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नाम तुम्हारा
करीब आयेगी कभी जिन्दगी इतनी
सोचा न था
दीन से दिन दिन दूर
पागल की लगन से
चला था .....चलता रहा था
पर कल की शाम जब
बातों ही बातों में
लायी तुमने
सुन्दर सुहानी बयार और
ब्रज के कदम्ब की
महकायी खुशबू
निनाद कर उठे
यन्त्र जीव मन
और मैं सोचने लगा
क्या सचमुच ऐसा होता है
क्या करीब आती है कभी
जिन्दगी इतनी

– अखिलेश सिन्हा
18 अक्तूबर 2000

नयनतारा

नये धूप की नयी रौशनी
यमुना जल सी
नवीन नील निश्चल
ताल सी लाती हुइ जीवन में
राज सी कर जाए
मधुर गीत गूंजे
थार से गंगा तलक
इन्द्र के सुर लोक मे ज्यों
स्वर लहरी बिखर जाए

– अखिलेश सिन्हा
18 अक्तूबर 2000
 

क्या जवाब दूं
क्या जवाब दूं
कि मन उदास क्यों है

सब कुछ तो है मेरे पास फिर
इक कमी का एहसास क्यों है

जी लीं जो इक बार घड़ियां
भूले न मन से वो हास क्यों है

कह तो दिया कि जाते हैं
फिर बुलावे की आस क्यों है

सभी तो गुजर गए काएदे से मगर
साथ मेरे ही ए परिहास क्यों है

संजोयी हैं जतन से ख्वाबों की लड़ियां
नहीं जरा भी उनको ये आभास क्यों है

हर बीतता क्षण :
बीते इक जीवन
जीवन में इस कदर मौत का निवास क्यों है

मर कर भी मिट न पाएंगे गम सारे
रूह को इस बात का विश्वास क्यों है

न पूछो सवाल ऐसै
कि इनके जवाब नहीं होते

– अखिलेश सिन्हा
3 दिसम्बर 2000

 

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