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आंखों का क्या
आँखों का क्या वो तो यूँ ही गाहेबगाहे भर आती हैं।
सोने से पहले रोने से नींद मुझे बेहतर आती है।।

मेरी किस्मत से आँधी का ना जाने कैसा नाता है।
तूफाँ को ले साथ बिचारी फिर फिर मेरे घर आती है।।

मुसीबतों को मेरे घर का पता किसीने बता दिया है।
तरह तरह का भेस बना वो अकसर मेरे घर आती हैं।।

परेशानियों का भी मुझ पर आने का अंदाज़ अलग है।
ऊपर से सजधजकर अंदर पहन ज़िरहबख्तर आती हैं।।

उलझन को सुलझाने पर भी लौट दुबारा यूँ आती हैं।
सावन के महिने में दुलहन ज्यूँ अपने पीहर आती है।।

ग़म का मुझसे और 'ज्ञान' का ग़म से कुछ ऐसा रिश्ता है।
ज्यूं परवाने के पंखों को जला शमा खुद मर जाती है।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभु

बहारों से न तुम पूछो

बहारों से न तुम पूछो पता मेंरे नशेमन का।
नहीं शायद पता उनको पता इस चाकेदामन का।।

मिटा खुदको, लुटा खुशबू, खड़ा हूँ मैं अकेला यूँ।
बबूलों के बियाबाँ में हो जैसे पेड़ चंदन का।।

यहाँ तक ज़िंदगी गुज़री, मगर कुछ इस तरह गुज़री।
बिना बरसात के गुज़रा हो जैसे माह सावन का।।

चुराया होंठ से मेंरे तबस्सुम वक्.त ने ऐसे।
चुरा ले चोर कंगन ज्यूँ किसी मासूम दुलहन का।।

सियाही ने ग़मों की हैं मिटाए रंग खुशियों के।
कि जैसे हाथ की मेंहदी मिटाए झाग साबुन का।।

तेरे भीतर सुलगती है उदासी और खामोशी।
मगर ऐ ‘ज्ञान’ बाहर क्यों मचाता शोर फागुन का।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभु

अगर मौसम सुधर जाता...

अगर मौसम सुधर जाता, किसी का क्या बिगड़ जाता।
चमन का हाल इस दौरे खिज़ाँ में भी संवर जाता।।

ज़रा सी धूप से यारों, फ़लक जलने न वाला था।
मुसलसिल आसमाँ का यूँ बरसना तो ठहर जाता।।

अगर आँधी को आना था, यहाँ फुरसत से वो आती।
ज़रा ये ज़लज़ला पैरों तले से तो गुज़र जाता।।

किनारा इस सफ़ीने को मिले या ना मिले कोई।
भला होता अगर तूफ़ाँ के थमने पर भँवर आता।।

कहे बिन ही किसीसे कुछ चला है ‘ज्ञान’ महफ़िल से।
क़यामत कौनसी आती अगर देकर खबर जाता।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभु
 

 

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