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आंखों का क्या
आँखों का क्या वो तो यूँ ही गाहेबगाहे भर आती हैं। सोने से पहले रोने से नींद मुझे बेहतर आती है।। मेरी किस्मत से आँधी का ना जाने कैसा नाता है। तूफाँ को ले साथ बिचारी फिर फिर मेरे घर आती है।। मुसीबतों को मेरे घर का पता किसीने बता दिया है। तरह तरह का भेस बना वो अकसर मेरे घर आती हैं।। परेशानियों का भी मुझ पर आने का अंदाज़ अलग है। ऊपर से सजधजकर अंदर पहन ज़िरहबख्तर आती हैं।। उलझन को सुलझाने पर भी लौट दुबारा यूँ आती हैं। सावन के महिने में दुलहन ज्यूँ अपने पीहर आती है।। ग़म का मुझसे और 'ज्ञान' का ग़म से कुछ ऐसा रिश्ता है। ज्यूं परवाने के पंखों को जला शमा खुद मर जाती है।।
बहारों से न तुम पूछो |
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अगर मौसम सुधर जाता, किसी का क्या बिगड़ जाता।
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