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अन्यमनस्कता

जब भी अन्यमनस्कता के क्षण
मन पर गहरा–गहरा के
घिर आते हैं‚
मैं अपने भीतर सूखते जाते प्यार
और दीवाने दिनों की स्मृतियाँ
टतोलती हूँ।
सोचती हूँ‚ शायद राहत मिले
लेकिन‚
प्यार एक परत और सूख चुका होता है
बीते दीवाने दिनों की स्मृति‚
यथार्थ की एक और लहर
मिटा चुकी होती है
और मैं छूट जाती हूँ‚
और ज्यादा
अन्यमनस्क!

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

प्रेम बनाम प्रकृति

प्रेम और लिखना बंद करो अब!
पर क्यों?
हाँ‚ ठीक ही तो कहते हो।
तीस पार कर अब क्या प्रेम!
तो फिर लिखूं‚
उन सत्यों पर जो
किरकिराते हैं पैर के नीचे?
या अपने ही लोगों के
दोहरे मापदण्डों पर?
अपने नाम के आगे
श्रीमति लगाने की बहस पर
या
स्त्रियों के समूह में ही
'च्च बेचारी… दो बेटियों की माँ '
होने की व्यर्थ की बेचारगी झेलने पर‚
किस पर लिखूँ?
बलात्कारों पर‚
कानून की नाक के नीचे होती
दहेज हत्याओं पर?
ये सारी कविताएं
लड़की होने की पीड़ाओं
से ही जुड़ती हैं क्या?
अभी ही तो जागी हूँ‚
मीठी स्वपिनल नींद से
और अब
न नष्ट होती प्रकृति पर
लिखने को शेष है
और प्रेम की भी स्थिति वही है
संवेदनहीन और नष्टप्राय:

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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