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कविता रूठ गई

कितनी ही बेचैन
समाहित पीर हृदय में
बरसे जाते नैन
मोम से मौन खड़ें।

जो सांसो में बँधी
अचानक छूट गयी
आह रुको‚ हे प्रिये!
कविता रूठ गयी।

संग सोयी–जागी
हर पल साथ रही
सांसो  में रहकर क्यो
मुझसे दूर रही

वैभव ने चाहा
उसे मना लूँ
सुख सम्पदा का
भोग लगा दूँ।

महलों में मिलता प्रेम
झोपड़ॆ में क्यों रहती
जग के भीषण शस्त्रों से
भयभीत न होती।

कब तक रहेंगे मौन
देख अन्याय
अनदेखा कर देंगे
जग के भेदभाव

आम आदमी के हित
यदि सजग न होंगे
कवि होकर भी
कविता से दूर रहेंगे।


– डॉ सुरेशचन्द्र शुक्ल

आकेर नदी

(आकेर ओसलो की एक नदी है।)
नील गगन
चंचल चितवन
कल–कल छल–छल
बह नीर सजल

राजनगर
ऊँचे शिखरों से
धवल सजल
तुहिन क
से
जगमग

भानु प्रिया
रश्मियाँ अनल
परिवर्तित यथार्त
मधुमय तट के
वैभव विलास

हिमशिला
पिघल लघु नदी सरल
अनजित लहरों
के गीत विरल

किनारों
पर बिछ गयी धूप
सूरज से भीगी चन्द्र किरण
खेलती प्रीत के
खेल अनल

महामिलन
दÜ तन मन का
स्वछन्द मुक्त
आदर्श सूक्ति
की विवश मुक्ति
बन्धन में बँध
कर बटा प्रेम

लहरों को छू
छू गयी
हृदय के सप्त तार
श्वांसों से ज्यों वायु मुक्त
अनमोल प्रेम
सीमाओं से मुक्त अभय
संतृप्त सुखों का भव सागर।

– डॉ सुरेशचन्द्र शुक्ल

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