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ओ
अदेखे
अजाने सूर्य
घनीभूत अंधेरे के गर्भ में
दर्द से पका मन लिये‚
पिछला पूरा प्रहर ढोया है मैं ने
अंधेरे ही की बनती बिगड़ती आकृतियों में
भविष्य का चेहरा ढूंढते–ढूंढते
पनिया गई है मेरी आँखे।
तुम्हारे विश्वास का प्रकाश स्तम्भ
मेरे अंधेरों के समुद्र से‚
अभी बहुत दूर है।
तुम आहत क्यों होते हो?
अगर‚ नहीं हो पाता विश्वास मुझे
प््राकाश के किसी अस्तित्व पर।
तुम तो बंधे हो‚
अपने समग्र विशाल अस्तित्व के साथ
भिन्न–भिन्न आधारों से
चल कर मेरे पास नहीं आ पाते
और ये‚
विवशता की मार्मिक धुन भी तो
नई नहीं है मेरे लिये
जिसे बार–बार तुम्हारी ओर से
आने वाली हवा गुनगुनाती है
मेरी अविश्वासों से भरी पुकारों से
तुम आहत मत होना मेरे सूर्य
मैं तो दूर अपने ही अंधेरों में
डूबा हुआ एक
अकिंचन नक्षत्र हूँ।
हजार–हजार प्रकाश–वर्षों में सही
कभी तो पहुँचूंगा तुम्हारे एक दम सामने
अपनी कक्षाओं में घूमता हुआ
तुम्हें देख सकूंगा
और विश्वास कर लूंगा कि
ओॐ अदेखे–अजाने सूर्य
तुम प्रकाश का विशालतम पुंज हो
अपनी सम्पूर्ण शाश्वतता में।
– मनीषा
कुलश्रेष्ठ
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केलिसखी
आज की रात
हर दिशा में
अभिसार के संकेत क्यों हैं?
हवा के हर झोंके का स्पर्श
सारे तन को झनझना क्यों जाता है?
और यह क्यों लगता है
कि यदि और कोई नहीं तो
यह दिगन्त व्यापी अन्धेरा ही
मेरे शिथिल अधखुले गुलाब–तन को
पी जाने के लिये तत्पर है
और ऐसा क्यों भान होने लगा है कि
मेरे ये पांव‚ माथा‚ पलकें‚ होंठ
मेरे अंग–अंग – जैसे मेरे नहीं
मेरे वश में नहीं हैं – बेबस
एक एक घूंट की तरह अंधियारे में
उतरते जा रहे हैं
मिटते जा रहे हैं
और भय
आदिम भय‚ तर्कहीन‚ कारण हीन भय जो
मुझे तुमसे दूर ले गया था‚ बहुत दूर –
क्या इसलिये कि मुझे
दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लाए
और क्या ये भय की ही काँपती अंगुलियाँ हैं
जो मेरे एक एक बंध को शिथिल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ नहीं कह पाती
मेरे अधखुले होंठ काँपने लगे हैं
और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुंद गई हैं
और सारे जिस्म में प्राण नहीं हैं
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट‚ और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जाएं
तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जाएं
तुम्हारा रक्त मेरी मृतप्राय शिराओं में प्रवाहित होकर
फिर से जीवन संचरित कर सके
और मेरा यह कसाव निर्मम है
और अन्धा‚ और उन्माद भरा
और मेरी बाहें
नागवधु के गुंजलक की भांति
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर‚ बांहों पर‚ होंठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्तपंक्तियों के नीले–नीले चिन्ह
उभर आए हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध हहराती
लहरों के थपेड़ों से –
छोटे प्रवाल द्वीप की तरह बेचैन
– धरमवीर भारती
यह कविता "कनुप्रिया" से
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