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प्रेम लो! इतने व्याख्यायित प्रेम की एक ओर परिभाषा लिये मेरे सामने आ खड़ी हुई हो तुम। प्रेम‚ नदी–समुद्र धरती–आकाश लता–वृक्ष नहीं तो? तुम ही कहो तुम्हारा प्रेम है क्या? देह सिर्फ देह की आत्मा बस आत्मा की कोई उपमा‚ उपमान सम्बंध चस्पां किये बगैर! स्त्री–पुरूष के बीच देह से आत्मा में आत्मा से देह में बहता रहता है प्रेम क्यों उलझाती हो? बहता है तो झरना है रहता है तो एक मोती है ये तुम्हारा प्रेम है क्या? तुम सामने हो तो एक मीठी तकरार तुम दूर हो तो एक आह्वान है प्रेम प्रतीक्षा है। प्रेम पीड़ा है। प्रेम मोह है। तुम्हारी देह पर मेरे मेरी देह पर तुम्हारे छूटे स्पर्श प्रेम हैं? ये उत्कट कामना प्रेम है? तुम्हारे बिन अधूरा होना प्रेम है? तो तुम्हारे साथ की सम्पूर्णता फिर क्या है? अब मानो न मानो‚ हमारा एक दूसरे का पूरक होना ही प्रेम है। |
मात्र एक उत्सव उत्सव के औत्सुक्य में जब जब चमके मेरे नेत्र अगले ही पल निष्प्रभ हो गए हर श्रृतु के उत्सवों की मात्र मूक दर्शक रही मैं पर्व दृश्य बन बदलते रहे साल दर साल हर बार बदहवास मन भागा उत्सवों की जगमगाहट की ओर नंगे पैर मगर लौटा हथेलियों में अंधेरा लिये आंचल में जो बटोरे वो तो पतझड़ी पत्ते निकले लोकधुनों पर जब जब धिरके पैर धरती तक कंटीली हो गई‚ तुम्हारी आंखों की विवश कातरता देख मैं फिर भी जल रही हूँ दीपशिखा जो हूँ जीवन रहने तक जलूंगी। मेरा मन कहता है कि मेरे जीवन में भी एक उत्सव तो होगा जनशून्य सही वह बसंतोत्सव उतरेगा सन्नाटों के जंगल में प्रकृति अपने हजार नेत्रों से देखेगी नृत्यरत रति को सारे पीले पत्ते पलाश के जलते फूलों में बदल जाएंगे एक उत्सव तो होगा मात्र एक उत्सव। |
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