मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
डायरी
|
साक्षात्कार |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
चौराहा
आज फिर खड़ा हूँ चौराहे पर सभी तरफ निकलते हैं यहॉं से रास्ते, मेरी मन्जिल को कोई नहीं है मगर । आज फिर खड़ा हूँ चौराहे पर किसी के भी साथ चल देने को, कोई राही दिखता नहीं है मगर । आज फिर से हूँ अकेला यह मृग मरीचिका का खेल, बहुत समय खेला । अभी भी मन भरा नहीं है मगर, आज फिर कोई साथ ढूँढता हूँ । कहीं भी चल दूँगा उसके झूठ ही कह देने पर, आज फिर खड़ा हूँ चौराहे पर । |
ज़िन्दगी एक रोज
|
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |