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लकीरें

माथे पे लकीरें मिली मुझको
इस जनम की विरासत में
और पढ़ता गया
कुछ सोच कर
कुछ समझ कर
ताकि मैं विवेक कर सकूं
जो आधार बना
हाथों में छितरी लकीरों से
हुए कर्मों का
मैने स्वयं ही तो चुनी
यह कर्मों की गाथा
विश्वास में रची
या कभी शक से व्याकुल
जो भाग्यरेखा का रूप बन गयी
पर जो कुछ भी है
वह स्वयं का ही है
तभी तो पांव की लकीरें
गड़ती चली जाती हैं
और जीवन कर्मों के जाल में
उधेड़बुन करता हुआ
आशा और निराशा के मिश्रण से
सजता संवरता बिखरता हुआ
पथिक का पथ ही
सहज मंज़िल का निशान बन गया
ये लकीरें तो मिलीं मुझको
ताकि मैं विवेक कर सकूं
चल सकूं
उस पथ पर
जो स्वयं ही मेरे लक्ष्य का निशान होगा।

राजेन्द्र कृष्ण

अतीत

यह मानसिक विडम्बना है
या विवशता
कि अस्तित्व हीन अतीत
जो स्वयं को
दोहरा भी नहीं सकता
वेताल स्वरूप बन
बार बार
प्रशन सूचक की तरह
खड़ा हो जाता है
मेरे समक्ष
और उलझा देता है
मेरा आज का कार्यक्रम
और फेर देता है पानी
भविष्य की आकांक्षाओं पर
करमों का यह मायाजाल
कब सुलझेगा ?
कब जागेगा मेरे अन्तर में
सोया
विक्रमादित्य ?
जो अपने विवेक की तलवार से
काट फैंकेगा
अतीत के वेताल को
अतीत से मुक्ति
बन जाएगी राह
मोक्ष द्वार की चौखट तक ।
यह सफर कब शुरू होगा .... . .

राजेन्द्र कृष्ण

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