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घर

घर चाहिये
फर्श, चार दीवारें, छत
दो खिड़कियां चार कोने
दर।
घर।
घर चाहिये
दो धड़कनों का दिल
दो थामने वाले हाथ
माथे से शिकन पोंछते दो लब
घर।
घर चाहिये
मीठी तनहाइयों के दो पल
दहलीज़ पर गुज़रने वाली एक शाम
एक सहर
घर।
घर चाहिये।

– संगीता गोयल


 

दर्द

दर्द सीने का कारोबार ज़ारी है
अजनबी ख्याल आंक गया
विवशता की लकीरें
विश्वास के परे
टेढ़ी मेढ़ी राहों में
नहीं उदारी है
कटघरे में सुनाई दे
ओस की टपक कहां
सिकुड़ती कहानी
सूत्रधार की लाचारी है
आधार के आकार का
जो करेगा सृजन
उस नये भगवान की
तलाश ज़ारी है
त्रिकोण का चौथा कोण
खोजते थे तुम
कब समझोगे ये खुद
भूख तुम्हारी है।

– संगीता गोयल

अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति
एक कला।
खुला दिल, ऑंखो में चमक
तड़प–हँसी–मर्म
सोच विचार
इसके औेज़ार।
अभिव्यक्ति
स्वयं को साधना।
टूटते बिखरते खयाल
समेटना सँभालना
साँसों की डोर मानिंद
इकतार में बाँधना।
अभिव्यक्ति
बिंब और आईना।
जानने मानने कहने
के हर सफर के
आरंभ और अन्त
अपनी पहचान से
अपनी पहचान तक।

– संगीता गोयल

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