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घर
घर चाहिये
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दर्द सीने का कारोबार
ज़ारी है अभिव्यक्ति एक कला। खुला दिल, ऑंखो में चमक तड़प–हँसी–मर्म सोच विचार इसके औेज़ार। अभिव्यक्ति स्वयं को साधना। टूटते बिखरते खयाल समेटना सँभालना साँसों की डोर मानिंद इकतार में बाँधना। अभिव्यक्ति बिंब और आईना। जानने मानने कहने के हर सफर के आरंभ और अन्त अपनी पहचान से अपनी पहचान तक। |
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