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कैसे रचूं रंगोली
सखी री मैं कैसे रचूं रंगोली
यह रंग फाग याद दिलावें
जब मैं पिया संग खेली होली
सखी री मैं कैसे रचूं रंगोली

आंख मूंदू तो पिया दिखत हैं
आंख खोलूं तो मैं अकेली
देखो भर आई अंखियां
पिया मत खेलो यूं आंख मिचौली

सखियां बुलावें पर मैं न जाऊं
मन न बहले, विरह में तड़पूं
जी चाहे यूं ही
बैठी रहूं मैं अकेली

खेत खलिहान आंगन
चौपाल बाज़ार भरे हैं
पर तुम बिन पिया
कोई न मेरा हमजोली

मन पूछे अंखियां ढूंढें
इन्हें कैसे समझाऊं
इन्हें क्या बतलाऊं
मैं स्वयं हुई एक पहेली

पिया छोड़ सौतन परदेस
अब तो घर लौटो
तुम बिन तन, मन प्यासा
बाट जोहे तुम्हरी दुल्हन नवेली
 

– सुमन कुमार घेई

दिवाली स्तुति
इस वर्ष ऐसा दीप जला दे
हर दिशा में प्रकाश फैला दे
मिटे अज्ञान का अन्धकार
हर हृदय में प्रेम सुधा बरसा दे
हे राम फिर कोई ऐसा बाण चला दे
भूख दरिद्र मिट जाए जग में
परोपकार सद्भाव हो सब में
मानव, मानव को मानव समझे
मिट जाएं बेकार के झगड़े
हे राम फिर से राम–राज बसा दे
आओ सब मिल यह प्रण लें
सत्य प्रेम अहिंसा धर्म धर लें
मिटे द्वेष क्लेश इस जग में
ज्योत से ज्योत जलाएं हर मन में
हे राम फिर से ऐसा उपदेश सुना दे
 

– सुमन कुमार घेई

दीपावली
अपनों के साथ मनाने में ही दीपावली की सार्थकता है - अनुपमा
अब के ऐसी दिवाली आये - आस्था
अलि प्रिय अब तक न आए - सुधा रानी
ओ चंचला लक्ष्मी - सुधा रानी
इस बार दीपावली कुछ अलग तरह मनाएं - मनीषा कुलश्रेष्ठ
एक दीपावली पापा के बिना - अंशु
एक नन्हीं बच्ची की दीपावली - अवनि कुलश्रेष्ठ
कर भला होगा भला - सुषमा मुनीन्द्र
गायें गीत बालदिवस के - कनुप्रिया कुलश्रेष्ठ
तुम्हारी बातें दीपक कतार सी - नीलम जैन
दिवाली का दिन - सुमन कुमार घेई
दिवाली का पर्व - राजेन्द्र कृष्ण
दिवाली दिवाली - संगीता गोयल
दिवाली स्तुति - सुमन कुमार घेई
दीपावली - राज जैन
दीपावली 2001 - राजेन्द्र कृष्ण
दीपावली और बालदिवस - अंशुल सिन्हा
पंचमहोत्सव का मुख्य पर्व - दीपावली - अचरज
यही तो है दीपावली - आयूषी श्रीवास्तव
लक्ष्मी पूजा - सुधा रानी
सुबह का भूला - मनीषा कुलश्रेष्ठ


 

मौन
कुछ ऐसा सोचो, जो कह सको
कि होंठों से आकर लौट जाते हैं शब्द
पांव से जमीन कुरेदते रहे
ख्.याल से ख्.याल जोड़ते रहे
कुछ बुनते रहे
कुछ ऐसे ही उधेड़ते रहे
हंसी छिपती रही, आंसू उमड़ते रहे
चेहरे के रंग बदले,
होंठ थर्राये, गला रुंध सा गया
यह कहें, ऐसे कहें – कैसे कहें
सोचते रहे –

रात गुज़रती रही, राह कटती रही
अब पौ फटने को है
साथ बिछुड़ने को है
अब तो कुछ ऐसा सोचो, जो कह सको
कि होंठों से आकर लौट जाते हैं शब्द।
 

– सुमन कुमार घेई

दंभी
मैं मरु का पत्थर
यूं ही खड़ा रहा,
यूं ही अड़ा रहा
कभी यह रेत
एक बहती नदिया थी
मैं उसका किनारा
बरगद की छाँव में,
पथिक की सेज
थके माँदों का सहारा
कभी गूँजती बँसी की धुन
कभी बच्चों की हँसी
कभी देखता पनघट पर
सखियों की चुहुल,
नयी दुल्हन का शर्माना
मैं दँभी, सोचता–
मैं हूं तो यह सब है,
मैं नहीं तो कुछ भी नहीं
यही सोचता रहा
समय की धारा बहती रही
नदिया किनारा बदलती रही
मैं पाषाण दँभी
यूं ही खड़ा रहा,
यूं ही अड़ा रहा
मैं हूं विशाल, सक्षम
बलिष्ट कन्धों से
समय चक्र रोक दूंगा
वो नदिया तो मुझी से थी
उसी की धारा बदल दूंगा
मैं विमूढ़, न समझा
मैं तो कुछ भी न था
वो समय था,
वो नदिया थी
मैं था बस एक किनारा
अब न बरगद की छाँव
न बँसी की धुन
न बच्चों की हँसी
न सखियों की चुहुल,
न दुल्हन का शर्माना
बस है तो इस बबूल के काँटे
गर्म लू और एक सन्नाटा
और --
मैं मरु का पत्थर, एक बेचारा

– सुमन कुमार घेई

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