एक लऽम्बी बेहोशी के बाद
जागी हूँ‚
अपने ही स्व की न जाने कितनी कितनी
परतों के बीच
आत्मविस्मृति के खोल में बन्द थी मैं
न जाने कितने सम्बोधनों से पुकारती तुम्हें
मेरी लहराती – बिखरती आवाज़
चेतन – अवचेतन के असंख्य गलियारों से
टकरा कर लौटती थी तो लगता था
तुम्हारा उत्तर है‚
वहाँ बेहोशी के उस पार
सफेद जालीदार पर्दे थे‚ गुलाब थे
चारागाह थे मीलों फैले
मैं दौड़ती थी‚
खिलखिलाती‚ गुनगुनाती
उस हरे भरे मोड़ से मुड़ती
तुम्हारी हल्की सी परछांई के पीछे
आज जागी हूँ तो गहरे सलेटी परदे हैं‚
अंधेरा है
विचलित सी‚ अकेली मैं हूँ
गौर करती हूँ तो‚
पाती हूँ‚
एक अजीब सी बात‚
दोनो अवस्थाओं में
एक सी ही है
बेहोशी के सफेद पर्दों की सपनीली रोशनी और
चेतना के गहरे परदों के अथाह अंधेरे में…
अरे! तुम तो कहीं भी नहीं थे
न वहाँ थे‚तब
न यहाँ हो‚आज
मेरी ही आवाज़ की प्रतिगूंज थी वह
जिसे मैं ने प्रत्युत्तर माना
मेरे ही स्व की प्रतिच्छाया थी वह
जिसे हरे भरे मोड़ से गुज़रता पाया
अब तुम कहीं नहीं हो
न मेरे बाहर न भीतर
एक टूटे खोल सी बिखरी बेहोशी है
और एक बार फिर
धुंधली नज़र से अंधेरों में
खुद को पहचानती सी
आत्मविस्मृत मैं हूँ…..