जाने कौन है
जो बार बार भरमा जाता है मुझे
मेरे स्व को मेरे स्वयं की परिभाषा में उलझा
नित नये चोले पहना जाता है मुझे
कभी बचपन की मासूमियत का वास्ता देकर
कभी लड़कपन की छेड़–छाड़ सुनाकर
पति और पिता की उपमा देकर
मेरे योग को भोग बताकर
अपने भोग को योग समझाकर
मुझे स्वयं का मित्र बनाकर
गुरू चेले का खेल रचाकर
या मस्त मलंगी रूप दिखाकर
मेरे “ं मैं ” को मुझ से ही छिपाकर
जाने क्या दरशा जाता है मुझे?
मुझमें रह कर भी यह स्व
जोड़ता है मुझे इस व्यापक संसार से
कभी डोर तोड़ इस मायाजाल की
नितान्त अकेला कर जाता है
सत्य है‚ स्वप्न है
या मनमोहक भ्रम है यहॐ
मैं तो हरदम “एक” ही रहता
क्यूं फिर फिर अनेक रूपों में ढाल जाता है मुझे?
जाने कौन है
जो बार बार भरमा जाता है मुझे