ज़िन्दा राहें इस कदर सुनसान हो गई हैं
जिंदगी बसती थी कभी‚ पहचान कर रही हैं
जिन दीवारों के बीच बसते थे कभी घर
वही दीवारें मौत का सामान हो गई हैं।
दिल पत्थरों के आँसू बहा रहे हैं सुबह शाम
कुछ के लिये मौत‚ तिजारत का सामान हो गई है।
आदमीयत के हाथ घिर रहे हैं चारों ओर
अकेली जी नहीं जाती जिंदगी‚ बात आम हो गई है।
आओ हाथों में हाथ डाल आसान करें मुश्किलें
तेरी मुश्किल कल मेरी होगी‚ पहचान हो गई है।