तुम क्या केवल चित्र हो,
केवल पट पर अंकित चित्र ?
वह जो सुदूर (दिखने वाली) निहारिकाएँ हैं
जो भीड़ किये हैं आकाश के नीड़ में,
वे जो दिन रात हाथ में लालटेन लिये चल रहे हैं
अंधकार के यात्री ग्रह,तारा,सूर्य,
तुम क्या उनके समान सत्य नहीं हो ?
हाय,चित्र ? तुम केवल चित्र हो?
इस चिर चंचल के बीच तुम शांत होकर क्यों रह रही हो ?
राहगीरों के साथ हो लो , ‘
अरे ओ, मार्ग हीन– क्यों दिन-रात के बीच रहकर भी तुम
सबसे दूर हो स्थिरता के चिरस्थायी अंतपुर में ?
यह धूल अपने धूसर आंचल को फहराकर
हवा के झोके से चारों ओर दौड़ती है,
वह वैसाख के महीने में,
विधवा-जनोचित परिधान को हटाकर
तपस्विनी पृथ्वी को सुसज्जित करती है
गैरिक वस्त्र से,
बसंत की मिलन-उषा में.–
हाय,यह धूलि,यह भी सत्य है.
ये तृण , जो विश्व के चरणतल में लीन हैं–
ये सब अस्थिर हैं,इसलिये भी सत्य हैं.
तुम स्थिर हो,तुम चित्र हो,
तुम केवल चित्र हो.