अच्छा ही हुआ
तुम वहीं ठिठक कर
छूट गये मुझसे
अच्छा हुआ
छूट गये हमारे हाथ
प्रेम की ऊंचाईयों पर ही
हम हतप्र्रभ थे और उदास
मगर…
आज तुम उसी प्रेम को
खाई में पड़ा कराहता न देख पाते
अच्छा ही हुआ
जो‚
नहीं नापे वो सात कदम
साथ साथ हमने
अन्यथा
सप्तपदी की पवित्रता को
विस्मृत करते एक दूसरे का स्व
कुचल रहे होते हम
जो नाम एक दूसरे के हाथों पर
लिखते थे हम
अच्छा हुआ नियति ने
लकीरों में नहीं उतारे
वरना आज हम उन्हें
कोरी भावुकता कह कर मिटाते होते
जिस देह की अधूरी सी
स्वप्निल कामना थी तुम्हें
अच्छा हुआ छू न सके तुम
अन्यथा‚ अब तक
पोरों से दंश निकाल रहे होते तुम!!