कुम्हार में
नज़र आता है मुझे
अक्स
अपना ही
वो गढ़ता है
मिट्टी से
चीज़ें कई
मैं
गढ़ता हूं
ख़ुद को
रोज़
कुछ काट-छाँट कर
ताकि बना रहूँ
किसी तरह
जिंदगी की चाक पर।
क्या कहते हो?
मैं एक घर बनाना चाहता हूं
बड़ा-सा
जिसके आँगन में
छाँव देते पेड़ हों
जिसकी घनी टहनियों पर
दिखाई दें
गोरैय्या का घोंसला
दो-चार क्यारियाँ हों
फूलों से
लदी सजी
और दौड़ लगाती
गिलहरियाँ
क्या कहते हो
इन सबके लिए
ज़रुरत होगी
मिट्टी की
अपनी मिट्टी?