पीड़ा के घनीभूत पलों में
होकर बेहद उदास
एक बार कहा था तुमने
‘ इसी जमीन का मौसम हूँ‚
कभी तो लौट आऊंगा’
तुम्हारा ही संशय
छल रहा था
विश्वास तुम्हारा
अन्तत: लौटे हो तुम
किन्तु
इतने बरसों में
ज़मीन चटख गई है
इसकी जीवंत उर्वरता में
तीखे लवण घुल चुके हैं
उमड़–उमड़कर बरसे हो तुम
बरस– बरस कर थक गए हो
एक अंकुर तक नहीं फूटा
तुमने हताश हो
थाम लिया है सर
अपने हाथों
और ज़मीन चटखते जाने की
अपनी ही पीड़ा से
बोझल है।
कविताएँ
इसी ज़मीन का मौसम
आज का विचार
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।
आज का शब्द
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।