नीम की पत्तियों से
अँटा रहता था वह कच्चा आँगन।
जहाँ कैशोर्य ने धकेल दिया था अचानक‚
यौवन की मदिर गंध से
गंधाती बाँहों में
चौंक कर उड़ गए थे
चेतना के पंछी‚
भय से मुंद गई थीं आँखें
लडखड़ा गया था आत्म संयम‚
आँखों पर पट्टी बाँध चल पड़ी थी
उन भीगी पत्तियों को कुचल ।
पैर रूके जहाँ‚ वहाँ पाया
पक्का संगमरमरी फर्श
पत्ते न थे‚
न थी वो नमी।
आँखें खोल कर देखा था‚
पहली बार स्वप्निल चेहरा तुम्हारा‚
हठात ही सौंप दी थीं
सर में टँकी नीम की पत्तियाँ
और हथेलियों की नमी तुम्हें।
छोड़ उस कच्चे आँगन को
अकेला रोप लिया था स्वयं को
तुम्हारे पक्के संगमरमरी आँगन की
छोटी सी कच्ची क्यारी में।
आज‚
मुरझाते हैं जब–जब स्वप्न–पुष्प
टप–टप गिरते हैं तपते फर्श पर‚
तब याद आता है
बेतहाशा‚
कच्चे नीम की पत्तियों से भरा
वही आँगन।
कविताएँ
कच्चा आंगन
आज का विचार
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।
आज का शब्द
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।