अपनी बेचैनियों को उठा कर
कहाँ रख दूं
किसी ताख पर
या लपेट कर सरहाने
मेरे कान सोते क्यों नहीं
आँखें सूंघती रहती हैं
तुम्हारे सूजे होंठों
को चखती है मेरी पेशानी
मेरे होंठ ऊंघते हैं
तुम्हारे चुंबनों के दौरान
सब गड़बड़ा गया है
मैं चीख कर हँसने लगी हूं
और खिलखिला कर रोती हूं
मेरी आतप्त वासनाओं को क्या हुआ है?
प्रेम है कि कोई लगातार गिरती बर्फ़
ठंडा पड़ता जा रहा है
सारा गुस्सा, सारी जलन
मैं देख रही हूं तुम ढक रहे हो
खुद को एक छाया से
जिसे मैं उधेड़ देना चाहती हूं
किसी और के लिए निकले
तुम्हारे अस्फुट स्वर
मुझमें भर रहे हैं ठंडी हिंसा
सारे मुखौटे खींच कर पूछने
का मन है
कहो?
किस के लिए
तुम रंग रहे हो अपनी खाल
कहाँ छिपा दी है
वह विज्ञापन बनी आस्था
कट्टरता के नाखूनों को
किस के लिए मुलायम कर रहे हो
तुम जन्मजात नर हो
किसी को पाने के लिए
कर सकते हो पार
अंटार्टिका
या सहारा रेगिस्तान भी
अपनी ज़मीन से भागते हुए
एक अजीब थकान में हूं मैं
शुतुरमुर्ग की तरह
अपनी खोई हुई आग की तलाश में !!