प्रत्येक आदि का अन्त
प्रारम्भ का समापन
किन्तु कविता
तुम्हारा अन्त कहाँ
अन्त में भी आरम्भ
एक अन्तहीन सिलसिला
क्षितिज की तरह
दूर‚ बहुत दूर तक
नभ को छूता
उस पार – इस पार
वृहद‚ विस्तृत‚ भव्याकार
मन करता है उड़ चलें
चल कर छू लें
क्षितिज के उस पार
कोई मनमीत प्रतीक्षारत
कोई नवगीत साधनारत
संभवत: मिले
किंचित दिखे
क्षितिज के उस पार
कविताएँ
क्षितिज के उस पार
आज का विचार
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।
आज का शब्द
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।