आज लीला बन गया मैं स्वयं 
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सूर्य डूबा 
नीति का अध्याय डूबा
शुभ्र जल के ज्वार पर आसीन
निर्मम न्याय डूबा

असित वसना असित काया
असित आत्मा निशा
मैं बस नेत्र 
अपलक और निश्चल नेत्र
भीतर एक शून्य विराट
जिसमें डूबता निर्बंध 
मेरी चेतना की इस निविड़तम निशा का सब तिमिर
                             जिसमें धरा डूबी गगन डूबा
                                    सौध डूबा सदन डूबा
                                           

 और डूबा मैं
 अजन्मे आंसुओं के लवणसागर में
 कि जब मैंने स्वयं ही कर दिया निर्वासित 
 अपने प्राण के लावण्य को

स्मरण जैसे मरण
विहवल-चरण 
मैं इत-उत चलूं

क्या बताऊं 
क्यों 
किसे 
कोई नहीं कुछ पूछता
मैं पुरुष उत्तम 
सभी मध्यम सो रहे होंगे
अन्य को अनुमति कहां साहस कहां
आकर सुनें मेरे कटे अर्धांग का चीत्कार

नियम की नोक पर आरूढ़ 
मानुस को कहां यह ध्यान
यह जो नियम है 
            यम है

ईश था 
अहर्निश रचता-रचाता
एक लीला – 
हास-रंजित
त्रास-भंजित
एक लीलाभाव से

आज लीला बन गया मैं स्वयं

कितना दुःख कितनी पीर कितना क्लेश 
ज्वाला विकट
पर आता न कोई निकट
मैं ही दृश्य मैं ही दृष्टि 
कैसा ईश किसकी सृष्टि

तेरा कक्ष जैसे वक्ष पर्वत का
एक ही आयाम सरल सपाट
भित्तिचित्रित 
अल्पना पर्यंक दीपाधार वातायन 
लता नभ चंद्रमा पीताभ
सब निष्प्राण सब हैं मूक 
केवल बोलता है राम
जैसे एक विधुर उलूक

खंडहर ही खंडहर है
रुधिर से आकाश गंगा तक

तेरा कक्ष जैसे वक्ष पर्वत का
था कभी साक्षी 
हमारे सतत स्पंदनशील
सुख के स्वेद से सुरभित सहज सहवास का
रह गया है एक सूखा साक्ष्य भर

तुम्हारे कक्ष का दर्पण हुआ निर्बिम्ब
लोचन अंध वाणी रुद्ध 
तुम जो नहीं तो वह क्रुद्ध
मैं हूं पर नहीं हूं मैं

मैं छविहीन 
तुम जो नहीं तो कोई नहीं छवि प्रिये

दिशाएं हो गयीं गूंगी
निशा निःशब्द गिरती है

स्मृति में गूंजते हैं अयोध्या के
राजनीतिक छंद
जिनकी व्यंजना से व्यथित 
मैंने ग्रहण कर अभिधार्थ
वन को गमन करने का लिया था
सात्विक निर्णय

कठिन प्रसंग 
कंटक-कुलिश-कीलित काल
तुम जो संग कुसुमित रंग
दुस्सह दाघमुख आकाश 
निर्दय निष्करुण निर्मेघ 
उसने धरा तुमको देख
रसवंती धरा का रूप
प्रणय-प्रतीति की वह प्रथम सुधि 
वह चाह 
औंधी वाटिका की छाँह

कैसा ईश क्या उष्णीष
धारे किसे लाखों शीश
क्या आराध्य सबका साध्य
इतना विवश इतना बाध्य
सबका सत्य मेरा सत्य
मैं भी जीव मैं भी मर्त्य

माँ के रक्त का अपनत्व
मैंने खो दिया देवत्व
मज्जा मांस अस्थि त्वचा
मा ने गात मेरा रचा

फिर भी रह गया था शेष 
किंचित देव द्युति का अंश
जैसे दंश जैसे दंश

पर उस मधुर मिथिला भूमि
का वह प्रमन पुष्पोद्यान
आता ध्यान
कैसी सघन दूर्वा राशि
कितनी हरित कैसी स्नात
जिसको छू किरण अवदात
दिखती थी तनिक हरिताभ

स्मृति में कौंधते हैं 
विटप वर्तुल विवधवर्णी पुष्प
स्मृति में कौंधती है 
कर-कमल नीरज-नयन की दीप्ति
मिट्टी की हँसी की यष्टि !

मिट्टी की हँसी की यष्टि 
जिसमें डूब खो दी दिव्यता मैंने
हुआ मैं मर्त्य पार्थिव देह 

पृथ्वी गगन पावक पवन पानी प्रेम!– 

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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