उत्सव के औत्सुक्य में
जब जब चमके मेरे नेत्र
अगले ही पल निष्प्रभ हो गए
हर श्रृतु के उत्सवों की
मात्र मूक दर्शक रही मैं
पर्व दृश्य बन बदलते रहे
साल दर साल
हर बार बदहवास मन भागा
उत्सवों की जगमगाहट की ओर
नंगे पैर
मगर लौटा हथेलियों में अंधेरा लिये
आंचल में जो बटोरे
वो तो पतझड़ी पत्ते निकले
लोकधुनों पर जब जब
धिरके पैर
धरती तक कंटीली हो गई‚
तुम्हारी आंखों की विवश कातरता देख
मैं फिर भी जल रही हूँ
दीपशिखा जो हूँ
जीवन रहने तक जलूंगी।
मेरा मन कहता है
कि
मेरे जीवन में भी
एक
उत्सव तो होगा
जनशून्य सही
वह बसंतोत्सव उतरेगा
सन्नाटों के जंगल में
प्रकृति अपने हजार नेत्रों से
देखेगी नृत्यरत रति को
सारे पीले पत्ते पलाश के
जलते फूलों में बदल जाएंगे
एक उत्सव तो होगा
मात्र एक उत्सव।
कविताएँ
मात्र एक उत्सव
आज का विचार
जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
आज का शब्द
जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।