क्या लाया है
साथ अपने
इस बार मानसून
क्षितिज के त्रिआयमी फलक पर
बिखरे हुए वही गाढ़े गाढ़े तरल रंग
दिग दिगन्त तक डोलती
आवारा तूलिका
सलेटी हाथियों से हुंकारते
आकाश से बदन रगड़ते
मतवाले बादलों पर सवार
अपने कटाक्षों से मोहती दामिनी
बूंदों के मोतियों से सजी हवा
या कुछ और भी…
लौटा लाया है
सौंधी मिट्टी की प्यासी दहक
गीली कुचली घास की तुर्श महक
घास पर बिछे नन्हे नीले फूल
टिटहरियों का प्रजनन काल
मोरों की आतुर पुकार
चींटिंयों की जगह बदलती लम्बी कतार
बगुलों की लम्बी उड़ान
सीढ़ियों की काई लगी फिसलन भरी ढलान
या कुछ और भी…
लेकर आया है
कुछ नये खुलते रास्ते
कुछ नयी उपलब्धियां
अवचेतन पर तैरती पिछले बरसों की
सीली सीली स्मृतियां
एक अनजानी‚ कस्तूरी – सी महकती
अपने भीतर की कोई व्यथा
या कुछ और भी…
शायद कहीं छूट गया है इससे
एक बण्डल
उस अनहोनी का
जिसमें कस के बांधे होंगे
नियति ने लपेट कर नये दिन
कुछ प्रतीक्षा के‚ कुछ मिलन के
एक नया तारा‚ नये भाग्य का
कहीं सहेज कर रखा होगा
उम्मीद जगाता एक पत्र किसी का
क्या लाया है
साथ अपने
इस बार मानसून
क्या कुछ और भी…?