प्रेम और लिखना बंद करो अब!
पर क्यों?
हाँ‚ ठीक ही तो कहते हो।
तीस पार कर अब क्या प्रेम!
तो फिर लिखूं‚
उन सत्यों पर जो
किरकिराते हैं पैर के नीचे?
या अपने ही लोगों के
दोहरे मापदण्डों पर?
अपने नाम के आगे
श्रीमति लगाने की बहस पर
या
स्त्रियों के समूह में ही
‘च्च बेचारी… दो बेटियों की माँ ‘
होने की व्यर्थ की बेचारगी झेलने पर‚
किस पर लिखूँ?
बलात्कारों पर‚
कानून की नाक के नीचे होती
दहेज हत्याओं पर?
ये सारी कविताएं
लड़की होने की पीड़ाओं
से ही जुड़ती हैं क्या?
अभी ही तो जागी हूँ‚
मीठी स्वपिनल नींद से
और अब
न नष्ट होती प्रकृति पर
लिखने को शेष है
और प्रेम की भी स्थिति वही है
संवेदनहीन और नष्टप्राय:।
कविताएँ
प्रेम बनाम प्रकृति
आज का विचार
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।
आज का शब्द
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार हैं।