सूरज क्षितिज से पहले
राजवंती के चूल्हे में सुलगता है
रोटी पूर्णिमा का चांद बन
काले तवे पर जा बैठती है
एक कर्मठ जीवन का दिन
क्षुधा शांत करने की
उमग से उगता है
पर रोटी खाई नहीं ,
बांधी जाती है ओसारे
रोटी कमाने की जुगत-जतन में जुटे
सब लौटते चौबारे,लौटाते दीर्घ सांस
मान – मनोव्वल, मनुहार में लगी राजवंती
गाय,चींटी, चिड़ियों को भी परोस देती रोटी के ग्रास
ये रोटी थप -तप रही है
ये रोटी सांझ की राह तक रही है !!