उस दिन तुम उठीं और
लजाते हुए देखा अपने अंगो को
छुपा कर रखना चाहा शर्माते हुए
अपने उस पहले अनुभव को
अपने से बचाते हुए
उस दिन कुछ देकर
साम्राज्य पा लेने का सुख था तुममें
उस दिन कुछ देकर तुम
बादल हो गयीं
फिर–फिर बरसने को आतुर…
उस दिन तुम उठीं और
थकान से बोझिल अंगों को तोड़ा
आसमान को तककर अंगड़ाई ली
बादल का वह टुकड़ा गुम हो गया यकायक
उस दिन तुम उठीं और
आईने के सामने जाकर
बोझिल पलकों को देखा
महावर मिटा चुके बदरंग पैरों को
फटी ऐड़ियों और
खुरदुरे हाथों को
एक गर्म निÁश्वास और
सखि धरती का एक टुकड़ा दरक गया
उस दिन तुम उठीं और
अपनी गीली देह पौंछ
देह के उन चीथड़ों को उतार दिया
जिसकी कीमत देह थी
उस दिन धोये तुमने
देह के सारे कलुष
और चिपकाये उस पर
चमकदार सिक्के — चमकदार पन्नियों
से लपेटकर
उस दिन तु.म उठीं और
………………………
तुम क्या कर सकती थीं
उस अँधेरे के खिलाफ
जो तुम्हारे घर में था
इसके सिवा…।