पूर्वाग्रहों से जूझते किसी भी समाज की कहानी हो सकती है ” क्रैश ”

ऑस्कर विजेता फिल्म क्रैश कई कहानियों का संगम है जो शुरूआत में एक दूसरे से भिन्न लगती हैं पर अन्त तक आते आते उन सबका आपस में सम्बन्ध साफ प्रतीत होने लगता है। पॉल हैगिस द्वारा निर्देशित फिल्म में कहानी बहुत महत्वपूर्ण हैं और पात्र गोरे, काले और इमिग्रैन्टस के खानों में बँटे हुये हैं जो अपने अपने भय और पूर्वाग्रहों से भरे हुये जी रहे हैं।

फिल्म रेसिज्म का दंश झेलते अमेरिकी समाज की कहानी है। गोरे, काले और मूल रूप से दूसरे देशों से अमेरिका में आकर बसे पात्रों के तनावों से दो चार होते जीवन को समेटे हुये फिल्म आगे चलती है। अपने तनावग्रस्त जीवन में सारे चरित्र कहीं न कहीं किसी न किसी बुराई को सहने को विवश हैं। काले और गोरे चरित्र एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों से भरे हुये हैं और अगर वे किसी पद पर हैं तो उसका फायदा दूसरे को प्रताड़ित करने में उठाते हैं। क्या गोरे और क्या काले सब पात्र अपने ढ़ंग से रेसिस्ट हैं।

फिल्म में एक कहानी कालों से नफरत करने वाले गोरे पुलिस अधिकारी की है जो सड़क पर एक काली युवती को उसके पति के सामने शारीरिक रूप से शोषित करता है क्योंकि वह उसे अपने पति से तलाशी के नाम बदसलूकी करने से रोकना चाहती है।़ गोरे पुलिस अधिकारी का गोरा साथी अपने साथी के कारनामे से विचलित है पर उसे रोक नहीं पाता। मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना के घर जाने के बाद काले पति पत्नी आपस में लड़ते हैं क्योंकि पति सारे गोरों और उनकी कालों से नफरत करने की आदत से लड़ने में अपने को असमर्थ पाता है और बात को टालना चाहता है वहीं पत्नी उस गोरे पुलिस अधिकारी को सजा देना चाहती है।

पर कहानी में सब कुछ इतना इकहरा नहीं है और कहानी कई धरातलों पर आगे बढ़ती है। कालों से नफरत करने वाला पुलिस अधिकारी, प्रोस्टेट कैंसर के शिकार अपने पिता की तकलीफों से परेशान है। वह अपने पिता की एक काली अधिकारी महिला के पास जाता है और अपने पिता का किस्सा सुनाता है पर काली युवती के दिल में कोई सहानुभूति नहीं है और वह सुरक्षा अधिकारी को बुलाकर गोरे पुलिस अधिकारी को अपने ऑफिस से बाहर निकलवा देती है।

सड़क पर एक्सीडैंट हुआ है। पलटी हुयी कार में फँसे हुये व्यक्ति को बाहर निकालने के लिये गोरा पुलिस अधिकारी खिड़की से अन्दर घुसता है तो पाता है कि एक युवती अपनी सीट बैल्ट में बुरी तरह फँसी हुयी है और यह वही काली युवती है जिसे उसने पिछली रात सड़क पर प्रताड़ित किया था। युवती उसे देखते ही नफरत से चीखने लगती है कि कोई भी चलेगा पर उसकी सहायता वह नहीं लेगी। वह युवती को समझाने की कोशिश करता है। कुछ देर के संघर्ष के बाद वह स्थिति को स्वीकार कर लेती है। दर्शक, काली युवती को शारीरिक प्रताड़ना देने वाले गोरे से नफरत करे या अपने जीवन को दाव पर लगाकर एक युवती की जान बचाने वाले पुलिस अधिकारी को पसंद करे? निर्देशक की खूबी है कि पात्रों की मनोस्थिति के साथ दर्शक भी इधर उधर डोलते रहते हैं और पात्र जब जैसा करते हैं उसके अनुसार ही भाव दर्शक से पाते हैं।

एक काला डिटेक्टिव है जो अपने पास आये एक गोरे नवयुवक की बात भी नहीं सुनता। उसकी माँ ड्रग्स की शिकार है और छोटा भाई एक अन्य काले साथी के साथ मिलकर कारें चुराया या छीना करते हैं। डिटेक्टिव का अहम कैसे संतुष्ट होता है ये पता चलता है जब वह एक गोरी महिला के साथ शारीरिक संपर्क बनाने में व्यस्त है और उसकी माँ का फोन आ जाता है। वह अपनी माँ से कहता है,” कॉल मी लेटर, आय’म हैविंग सैक्स विद ए व्हाइट वूमेन”। गोरी युवती भड़क जाती है।

गोरे पुलिस अधिकारी के हाथों पहले प्रताड़ित और बाद में बचाये जाने वाली काली युवती का पति परिस्थितियोंवश डिटेक्टिव के भाई के साथ रहने वाले दूसरे काले कार चोर के हाथ लग जाता है और पुलिस उनकी कार के पीछे पड़ जाती है। गोरे पुलिस अधिकारी का साथी काली युवती के पति को पहचान लेता है और उसकी काफी सारी गालियां खाकर भी उसे पुलिस के एनकाउंटर से बचाता है। पर इस गोरे पात्र के साथ भी सब इकहरा नहीं है। यह, काले डिटेक्टिव के चोर भाई को अपनी कार में सर्द रात में लिफ्ट देता है पर शंकित भी रहता है और उससे पूछताछ करने लगता है तथा गलतफहमी में समझता है कि डिटेक्टिव का भाई अपनी जेब से पिस्तौल निकाल रहा है और उसे गोली मार देता है तथा उसकी लाश को सड़क किनारे छोड़कर चला जाता है।

उससे पहले डिटेक्टिव के भाई का दोस्त एक कार छीनता है और जब दोनो तेजी से कार चलाते हैं तो एक चीनी व्यक्ति को कार से टक्कर मारकर उसे सड़क पर घायल पड़ा छोड़कर भाग जाते हैं।

स्थितियां झेलते हुये दो पात्र इस बात को उठाते भीं हैं कि वे दूसरे रंग वाले व्यक्ति की शिकायत इसलिये न करें क्योंकि मामला रंगभेद का हो जायेगा, रेसिज्म का हो जायेगा? हम क्यों चीजों को जैसा है वैसा नहीं देख सकते? मामला जब कानून और व्यवस्था का है तो उसे वैसे ही देखना और संभालना चाहिये।

एक ईरानी मूल का दुकानदार है जो अपनी दुकान की सुरक्षा के लिये पिस्तौल खरीदना चाहता है और हथियार बेचने वाले दुकानदार से अपमानित होता है। वह अपनी दुकान के दरवाजे का ताला ठीक करने के लिये एक काले व्यक्ति को बुलाता है। ताले वाला काफी देर की मेहनत के बाद उसे बताता है कि उसे ताला नहीं बल्कि दरवाजा बदलने की जरूरत है। ईरानी उससे झगड़ा करता है कि ताले वाला उसे धोखा दे रहा है और ताले वाला बिना पैसा लिये ही चला जाता है। दुर्भाग्य से रात में ईरानी की दुकान में चोरी हो जाती है और वह समझता है कि ताले वाले ने ही चोरी की है। वह गुस्से में पिस्तौल लेकर ताले वाले के घर पहुँच जाता है। ताले वाला अपनी पाँच वषीय बेटी से बहुत प्यार करता र्है। दर्शक तो जानते हैं कि ईरानी गलत सोच रहा है और जब वह ताले वाले की तरफ पिस्तौल तानकर खड़ा हो जाता है और ताले वाले की बेटी घर के अन्दर से ये देखकर बाहर भाग कर आती है तो सब दर्शकों के मन में ईरानी की बेवकूफी पर गुस्सा, घृणा और अपनी निस्सहायता का भाव एक साथ आया होगा कि गुस्से में क्या कर रहा है तू मूर्ख इन्सान? बच्ची की माँ उसे रोकती रह जाती है। ताले वाला भी अपनी बेटी को रोकना चाहता है पर वह उसके पास पहँुच जाती है और वह उसे गोद में उठाना चाहता है। गुस्से में काँप रहे ईरानी के हाथ से पिस्तौल चल जाती है। स्क्रीन पर मौजूद सब पात्रों समेत दर्शकों को लगता है बच्ची को गोली लग गयी। सबके मन में एक ही सवाल उठा होगा कि ईरानी ने ये क्या किया? शायद खुद ईरानी के मन में भी यही सवाल होगा कि ये उससे क्या हो गया। बच्ची कहती है,” पापा आई सेव्ड यू”।

ताले वाला ईरानी को कोसता है और फिर बच्ची की कमर को देखता है और पाता है कि वह बच गयी है। वह बच्ची को चूमता हुआ घर के अन्दर चला जाता है, पीछे घबराहट और खुशी दोनों से भरे हुये ईरानी को छोड़कर। दर्शक भी, ” व्हाट ए रिलीफ” के भाव से तो गुजरते ही हैं। शायद ये फिल्म के सबसे अच्छे क्षण हैं जब ईरानी के चेहरे पर अनहोनी के न घटने की खुशी आती है। अपने घर जाकर वह सांत्वना के भाव चेहरे पर लिये अपनी बेटी को पूरी घटना बताता है।

हो सकता है कि क्रैश से अच्छी फिल्में ऑस्कर में इस वर्ष गयी हों जो प्रस्तुतीकरण और तकनीकि रूप से बेहतर हों। पर क्रैश एक समसामयिक फिल्म है। दो पुरूषों के प्रेम को दर्शाती फिल्म,”ब्रोकबैक माऊंटेन” के बारे में काफी हल्ला है कि वह ज्यादा उचित उर्म्मीदवार थी इस बार के ऑस्कर के लिये। पर कहानी के स्तर पर क्रैश का विषय ज्यादा व्यापक है और किसी भी तनावग्रस्त समाज के ऊपर फिट हो सकता है। गे होने के कारण शायद कोई पुलिसवाला उस व्यक्ति को गोली नहीं मारेगा पर भिन्न समुदाय, भिन्न धर्म का होने के कारण ऐसी नफरत हो जाना संभव है। रेसिज्म अन्दर अन्दर रहकर पलने वाला भाव है जो व्यक्ति को कभी न्यायिक भाव से सोचने नहीं देता।
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बनी चाहे हॉलीवुड में हो पर ” क्रैश ” भारत और हमारे जैसे अन्य समाजों की भी कहानी है। जरा क्रैश के काले, गोरे और इमीग्रैन्टस के पात्रों को हिन्दु, मुसलम़ान, सिख या ईसाई में बदल दें तो क्रैश हमारे ही समाज की फिल्म बन जायेगी।

हमारा समाज क्या अलग है अमेरिका के रेसिस्ट समाज से? हमारे मन क्या उतने ही हिंसक नहीं हैं उन लोगों के लिये जिनसे हम अन्दर ही अन्दर नफरत करते हैं? हम क्या कम रेस्स्टि हैं?

हमारे यहाँ क्या एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह नहीं होते? हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई सब एक दूसरे से संशित रहते हैं। जो अपने को अल्पसंख्यक कहते या मानते हैं उनकी निगाह में उनकी हर समस्या बहुसंख्यकों की दी हुयी है और उन्हे उनके पूरे अधिकार नहीं मिलते। बहुसंख्यक समझते हैं कि इस अल्पसंख्यकवाद ने देश की मिट्टी पलीद की हुयी है और देश की सारी समस्यायें अल्पसंख्यकों की देन हैं। हम जाति, धर्म, क्षेत्रवाद और भाषावाद से घिरे हुये लोग हैं जिन्हे हर भिन्न व्यक्ति समस्या लगता है और हम अपने से भिन्न व्यक्ति से अन्दर ही अन्दर भयभीत और चौकन्ने रहते हैं।

जब तक हम व्यक्तिगत रूप से किसी को नहीं जानने लगते तब तक वह हमारा विरोधी ही है क्योंकि उसके मूल के बारे में, वह किस जाति, धर्म या स्थान को प्रतिनिधित्व कर रहा है इसके बारे में हमारे मन में पहले से हजार बातें भरी रहती हैं।

`’ये लोग तो होते ही ऐसे हैं” दिन भर में कम से कम पचास बार सुना जाने वाला वाक्य है जो एक समुदाय दूसरे समुदाय के बारे में, एक जाति वाला दूसरी जाति के लोगों के बारे में और एक राज्य का निवासी दूसरे राज्य के निवासी के बारे में कहता रहता है।

पंजाब में तो आतंकवाद के जमाने में ही गैर सिखों को समस्या थी पर बम्बई या मुम्बई में तो सामान्य दिनों में भी असम, उ०प्र० और बिहार से नौकरी के लिये परीक्षा देने गये उम्मीदवार पिट जाते हैं। वहाँ उ०प्र० वाले सब लोग भइया हैं। साउथ वाले अन्ना, मुलु आदि हैं। बंगाली साहित्य और फिल्मों में नौकर हमेशा हिन्दुस्तानी चाकोर है मानो बंगाल हिन्दुस्तान नहीं था या है। हिन्दी फिल्मों में भी घरों में नौकर हमेशा बिहारी, भोजपुरी या पूर्वी उ०प्र० की भाषा बोलता है। क्यों हम एक इम्प्रैशन बना डालते हैं एक कौम के बारे में, एक राज्य के बारे में?

एक राज्य वाले के लिये दूसरे राज्य के लोग अवसर छीनने वाले प्रतीत होते हैं। टी०वी के एक प्रतियोगी कार्यक्रम में अपने राज्य के उम्मीदवार को जिताने के लिये हँगामा मच जाता है मानो दाल रोटी मिलनी बन्द हो जायेगी अगर उनके यहाँ का उम्मीदवार जीत न पाया तो। जिस उ०प्र० के बड़े आकार और विकराल जनसंख्या से अहिन्दी प्रदेश के लोग भयभीत और चौकन्ने रहते है वहाँ भी पूर्व और पश्चिम की न पट पाने वाली खाई खुदी हुयी है।

हमारे देश में दूसरी जाति में विवाह करने वाले आज भी मारे जा रहे हैं। सवर्ण केवल उनसे अन्य तथाकथित रूप से कमतर जातियों से ही अन्तर नहीं रखते बल्कि खुद भी दसे बीसे या छोटी धोती और बड़ी धोती आदि में बंटे हुये हैं। पिछड़ो और दलितों में भी अति पिछड़े और अति दलित हैं जो सवर्णों के अलावा पिछड़ों और दलितों के भी शोषण का शिकार हैं।

हम सब आज भी किसी न किसी स्तर पर भारत के ही नागरिक से दुरभाव रखते हैं। हम अफवाहों से घिरे हुये, अफवाहों में यकीन रखने वाले भ्रमित लोग हैं। हम आतंकवादी को आतंकवादी न कहकर उसके धर्म पर ज्यादा ध्यान देते हैं और समस्या को सुलझने नहीं देते। हम गुण्डों को उनकी जातियों से पहचानने लगे हैं जो कि उनके लिये शरण का साधन बन गयी हैं और वे समाज में पनपे चले जा रहे हैं।

हमारे यहाँ बातें फैलायी जाती हैं और फिर वे विकराल रूप से फैलकर हमारे अन्दर घर कर लेती हैं। यहाँ तो दिन रात राष्ट्रहित की बातें करने वाले सामाजिक और राजनीतिक दलों में भी आपस में इतनी नफरत है कि दूसरे दल द्वारा किया गया देश के विकास का काम भी उन्हे नहीं सुहाता। देश का विकास भी वे अपने ही हाथों से करना चाहते हैं। हम और हमारे राजनेता इतने क्षुद्र स्वभाव के हो गये हैं कि एक राज्य का मुख्यमंत्री बड़ी बेशर्मी से सीना तानकर केन्द्र सरकार से माँग कर देता है कि चूँकि उ०प्र० और बिहार में विकास नहीं हो रहा है अत: उनके लिये निर्धारित राशि को काटकर उसके राज्य को ज्यादा राशि मिलनी चाहिये। ये अलग बात है कि उस राज्य में सबसे बड़ी सख्ंया में किसान आत्महत्या कर रहे थे। तो ये हमारे राजनेताआें की मानसिकता है कि सिर्फ मैं और मेरा, बाकी सब जायें भाड़ में। ऐसे राजनेताआें के समय में क्षेत्रवाद ज्यादा न पनपे तो और क्या हो? जनता तो जैसी है वैसी है पर हमारे नेता जिन्हे जिम्मेदारी का दामन संभालना चाहिये भावुकता भरी राजनीति में फँसे हुये हैं और अपने कर्मों से समाज को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुँचा रहे हैं। राजनेता किसी भी समाज का सबसे बड़ा पैमाना हैं और हमारा पैमाना बहुत ही निम्न कोटि का हो चुका है।

हम तो जाने कब ऐसी फिल्में बना पायेंगे जो हमारी समसामयिक समस्यायों को छूती हों पर तब तक दूसरों द्वारा बनी फिल्में ही देख लें।

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