हिंदी उपन्यासों में स्त्री चेतना

मेरे गिर्द-इर्द जो किताबें रहती हैं, उन किताबों से निकलकर अक्सर गुस्ताख किरदार ही मेरे आस-पास मंडराते हैं। न जाने क्यों मुझे मरजानियां बहुत पसंद आती हैं। पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री का अपने मन की सुनना, बड़ी राहत देता है। सही और गलत से परे अपनी राह खुद चुनना, पर न जाने ऐसा क्यों होता है कि ये मरजानियां कभी पलट जाती हैं, कभी मार दी जाती हैं, तो कभी अकेली पड़ जाती हैं, उनके हाथ कुछ नहीं लगता…क्या अपने खाली हाथ देखकर उन्हें कभी पछतावा होता है! खुद को आज किस  मुकाम पर पाते हैं ये किरदार, मैं अक्सर उनसे ऐसे सवाल करती हूं।

एक बार फिर इन किरदारों से मुखातिब हूं। अपने पास बिठा लिया है इन्हें, पर न जाने क्यों! चिढ़ गईं सब की सब और कहने लगीं, ‘अब तो बख्शों हमें, तुम लोगों की नजरें हमेशा एक स्त्री पर ही क्यों रहती हैं? हम हंसे, तो क्यों हंसे? हम रोए, तो क्यों रो दिए? ‘ सब की सब नाराज होकर जाने लगीं, लेकिन अपनी-अपनी किताबों में दाखिल नहीं हुईं, एक पोस्टर लगा हुआ था कमरे में हिमाचल प्रदेश का। बस वहीं किसी के पहाड़ पर जा पहुंचीं, मैं भी उन्हें पुकारते हुए संग-संग हो ली।

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मैं उनसे बोलती रही, ‘बताओ न मुझे, तुम खुद को आज कहां पाती हो? ‘  मित्रो बड़ी वाचाल रही है, वही ‘कृष्णा सोबती’ की ‘मित्रो मरजानी’, तमककर बोली, ‘देख रही हो न पहाड़ों पर हूं, ऊंचाइयों पर पाती हूं खुद को।’

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‘मित्रो तुम्हारा किरदार मुझे बहुत पसंद है।’ मैंने कहा।

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वो हंस दी और बोली, ‘लंपटाई अक्सर सबको पसंद आती है, पर जब अपना जीवनसाथी करे तो बुरा लगता है।’

‘तुम्हें अगर लगता है कि ऐसा बुरा है, तो तुमने क्यों की? ‘

‘मैं लौट तो आई।’

‘जब पलटना ही था, तो उस राह गई ही क्यों? ‘

वो एक लम्हा चुप रही फिर बोली, ‘तुम इन पहाड़ों पर आई हो पहले कभी? ‘

‘हां।’

‘तो बस क्यों नहीं गई यहां? पलट क्यों गई? बोलो न! जीवन में सारे अनुभव होने चाहिए, एक ही जीवन मिला है, एक ही घर में जिंदगी कौन बिताता है, कभी तो बाहर की हवा खाएगा न! मैंने भी बाहर की हवा खाई। जिनमें दहलीज पार करने का साहस नहीं होता, वो चिढ़ती हैं मुझसे, तो चिढ़े। मेरा पास सारे अनुभव है, चिढऩे और कुढऩे का वक्त ही नहीं है।’

‘पर तुम अपनी मां की हालत देखकर पलटी थी, तुम डर गई थी, तुम्हें लगा कि तुम्हारा बुढ़ापा कैसे निकलेगा, एक आश्रय चाहिए होता है, एक सहारा।’

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मित्रो का चेहरा तमतमा गया और बोली, ‘तुम्हें अभी खाई में धक्का दूं यहां से, खुद को बचाने के लिए तुम उसी चीज को थाम लोगी, जो हाथ आएगी, समझी! खुद के वजूद को बचाए रखना, वो भी अपनी मनमानियां करने के बाद, यही असली चेतना है। मैं तब भी खुश थी, मैं आज भी खुश हूं, मेरे भीतर कोई कुंठा नहीं, मैंने जीवन को भोगा है।’

‘भोग…कितना खतरनाक शब्द है।’ प्रिया ने कहा। ‘प्रभा खेतान’ की इस ‘छिन्नमस्ता’ को खुद को चोट पहुंचाने में आनंद मिलता है। थक जाने की हद तक काम करते रहना, जिंदगी जैसे जीनी नहीं है, काटनी है, आज भी मायूस नजर आती है वो।

प्रिया धीरे-धीरे चलती जा रही थी और बोलती जा रही थी, ‘जब पहली बार पेंटी पर खून के निशां नजर आए थे, तो वो मासिक चक्र के नहीं थे, कौमार्य भंग हो चुका था, दस साल की उम्र में, सगे भाई ने किया था। कैसा है यह भोग का चक्कर कि इंसान वहशी बन जाता है, अपनी सगी बहन को भी नहीं छोड़ता!’

प्रिया की तकलीफ उसके चेहरे पर उजागर होने लगी। मैंने आहिस्ता से कहा, ‘पर तुम्हें नहीं लगता कि इसमें तुम्हारी मां का भी दोष है, अगर वो तुम्हें भरोसा दे पातीं, तो तुम शायद उन्हें बता देती और शायद इस हादसे को बिसरा चुकी होती।’

‘सच कहती हो, बता देती तो बिसरा देती, हल्की हो जाती। अपनों से छले जाते हैं, तो किसी से कहते नहीं बनता, हालांकि दाईमां को कहा था। मेरे लिए तो वो मां थीं, बाकि सब के लिए तो महज एक नौकरानी, कौन उनकी सुनता। कोई हमारी सुने, इसके लिए खुद को मजबूत बनाना होता है, मैंने खुद को मजबूत बनाया।’ प्रिया ने कहा।

‘पर तुम किसी पुरुष से क्यों नहीं जुड़ पाई? क्यों तुमने नेगेटिविटी को ओढ़े रखा? क्यों तुम्हें लगा कि सारे पुरुष धोखेबाज ही निकलेंगे? तुम्हारे पिता तो तुम्हारी मां से बहुत अच्छे थे, तुम्हें बहुत प्यार करते थे वो।’

‘सही है, वे अच्छे थे, उनसे कोई शिकायत नहीं थी मुझे, पर मैं मां से भी कोई शिकायत नहीं कर पाती। मां की जिंदगी भी कोई जिंदगी थी! बस बच्चे पैदा करने की मशीन ही तो थी वो। राहत यही कि उन्हें अच्छा पति मिला, उनका खयाल रखने वाला, पर उनका अच्छा होना भी तो मां के लिए बुरा ही साबित हुआ, उन्हें पता ही नहीं चला कि उनका वजूद सिर्फ इतनाभर नहीं है कि वो बच्चे पैदा करे। आंच तेज हो तभी दूध उफनता है और सीमाएं लांघ जाता है, मां एक पतली में ही धीरे-धीरे छिजती गई और पिता के जाने के बाद तो सिर्फ खुरचन बन गई, जली हुई। मेरा साथ बुरा हुआ, तो मैंने विरोध तो किया, हमारी मुसीबतें ही हमें तय ढर्रे से बाहर लाती हैं ।’

‘अपने बेटे को लेकर आपने कहा कि कुछ चीजें विरासत में मिलती हैं, उसे पिता का स्वभाव विरासत में ही मिला, वो लौट ही जाता, कहीं ऐसा तो नहीं, आपको भी आपकी मां से विरासत में मिला हो, बच्चों से एक दूरी? ‘

‘हो सकता है, ऐसा हो। मैंने महसूस ही नहीं किया कभी कि मां का प्यार क्या होता है, जाना ही नहीं कि पुरुष का प्रेम क्या होता है, पर मुझमें यह कहने का साहस तो है! मैं झूठी महानता ओढ़े हुए तो नहीं हूं, मैंने उसे उतार फेंका। बोझ जितना कम होता है, ऊंचाई पर चढऩा उतना ही आसान होता है।’

जब प्रिया ने कहा, हम पहाड़ की ऊंची चोटी पर थे, यहां से देखने पर सारी चीजें कितनी छोटी नजर आती हैं। मैंने प्रिया से सवाल किया, ‘फिर भी कभी अपने बच्चे की याद तो आती होगी? ‘

‘हां बहुत याद आती है।’ इस बार जवाब शकुन ने दिया। ‘मन्नू भंडारी’ के ‘आपका बंटी’ की शकुन।

शकुन की कहानी मुझे शकुन की लगती ही नहीं, बंटी दिखता है हरदम। अकेली औरतों को हरवक्त अपना बंटी दिखा करता है शायद …  तभी तो वो जिंदगी में किसी दूसरे पुरुष के आगमन की सोच से ही कांप जाती हैं। एक सिरहन-सी रगों में दौड़ गई और सवाल बन गई, ‘ तुम खुश रही शकुन, बंटी को छोड़कर अपने दूसरे पति के साथ? ‘

‘नहीं खुश नहीं रही, बहुत तड़पी, तब से अब तक लगातार तड़प रही हूं।’

अचानक हमारी नजरें खाई में गिरी एक कार पर जाती है, ‘उफ्फ कितनी पिचक गई है कार, इसमें सवार लोग बहुत घायल हुए होंगे।’  मैंने सोचा ही था ऐसा कि शकुन ने कहा, ‘इस मोड़ तक आए, तब उन्हें पता नहीं था कि उनके साथ ऐसा होगा। वो एक ख्वाब संजोकर आए थे। मैंने भी एक ख्वाब संजोया था। हम मिडिल क्लास लोग बहुत मर्यादाओं में रहते आए हैं। वो उम्र स्पर्श सुख लेने की थी, जब बंटी के पापा से मैं अलग हुई थी। रातें कैसे कटती होंगी मेरी, तुम्हें अंदाजा भी है? क्या करती मैं? मैंने नहीं सोचा था कि बंटी से दूर होना होगा। दूसरी शादी यानी दोयम दर्जा, मुझे तो उसके बच्चों को झेलना ही था, क्योंकि मुझे उसके घर जाना था, पर बंटी के पापा! वो तो उसे रख सकते थे, लेकिन नहीं। पर उन्हें कटघरे में कोई खड़ा नहीं करता, पुरुष बरी है, हमेशा से ही बरी है और रहेगा। हम ही ख्वाब नहीं देख सकते। वासना हमें छू भी नहीं सकती, क्यों! तुम्हारे घर में पालतू जानवर है? ‘

‘हां, है तो’

‘उसे भी किसी खास दिनों में मैटिंग करवानी होती है न! ‘

‘हां’

‘जानवर की भी फिक्र है, पर एक औरत की संवेदनाओं की कोई फिक्र नहीं। स्त्रियां तो सदियों से बच्चों को पालती आई है, एक जो मैं न संभाल सकी, तुम्हें बस वही नजर आ रहा है।’

‘नहीं, नहीं। मैंने ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा। तुम्हारे दर्द में मैंने अपने दर्द तलाशे हैं। सच कहूं तो जहां से तुम्हारी कहानी खत्म होती है, मेरी शुरू होती है। बंटी उदास नहीं होना चाहिए। बस इसीलिए मैंने अपनी तमाम उदासियां उतार फेंकी। देह के सवाल-जवाब मैंने देह के लिए छोड़ दिए हैं, रिवाजों को पीछे छोड़ दिया है। तुमसे मिलते-मिलते ही, तुममें खोते-खोते ही मैं किरदार बन गई। खैर मेरे किरदार की बात बाद में, पर सच कहूं, तो कुछ हादसे जीवन में बहुत कुछ सिखाने के लिए होते हैं, बंटियों का दर्द जानना बहुत जरूरी है और देह का मान भी जरूरी है, ये दोनों साथ चले तो कारा तोडऩी ही होगी।’

‘जिन्होंने अपनी देह का मान रखा, वो पंचकन्या कहलाई।’ ये प्रज्ञा ने कहा। ये ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ की ‘पंचकन्या’ है। बिंदास जिंदगी से भरपूर प्रज्ञा। कुछ भी तो अच्छा नहीं मिला उसे जीवन में, लेकिन उसने उन चीजों को पीछे छोड़ दिया था। उसे सोचती हूं तो लगता है कि वो शायद सही मायने में दार्शनिक है। हंसते हुए, चलते हुए अब वो मुझसे मुखातिब है।

‘बताओ इस रास्ते में कितने देवदार की पेड़ हैं? एक मिनट में कितने गिन सकती हो? ‘

मैंने पेड़ गिनने शुरू कर दिए और कहा, ’25’

‘फिर से करो, एक मिनट तक’

मैंने फिर से गिनने शुरू कर दिए और इस बार मैंने 39 पेड़ गिने।

प्रज्ञा ने कहा, ‘जिंदगी ऐसी ही है। मैं वही देखती हूं, जो मैं देखना चाहती हूं, इस राह में और भी बहुत सारे पेड़ हैं, लेकिन हमने उनको अनदेखा किया, सिर्फ देवदार के बारे में सोचा और उसे देखते गए। जितना गौर से उसे देखते गए, उसकी संख्या बढ़ती गई। जीवन में जो भी विपरित मिला, मैंने उसे अनदेखा किया और जो भी अच्छा मिला, मैं बस उसे ही सोचती रही, उन्हीं नेमतों को गिनती रही और नेमतें बढ़ती गईं। एग्नेस, माया, वो कालबेलिया नर्तकियां और अब तुम सब का साथ और ये पहाड़, नदी…ये झरना…। ‘

‘तुम यहां भी कपड़े उतारकर नहाने वाली हो क्या? ‘ मैंने हंसते हुए पूछा

‘मन हुआ तो करूंगी ऐसा। हम औरतें हमेशा या तो खुद कपड़ों में उलझ जाती हैं या कोई और हमें उलझा देता है। एक देह से परे जब उसे देखा ही नहीं जाता, तो उसे भी अपनी देह से प्यार कर लेने दो। इस आसमां को भी, इन पेड़ों को भी, कलकल बहती नदी को भी।’

‘तुम्हें नहीं लगता कि देह ही उसकी दुश्मन है? ‘

‘हां है तो, इंकार नहीं कर रही हूं। इस देह के साथ खतरे बहुत है। स्त्री देह, एक सृजन, एक उत्सव। कुदरत का सृजन जिन जगहों पर सबसे ज्यादा दिखता है यानी ये नदियां, ये पहाड़, इन्हीं जगहों पर आपदाएं सबसे ज्यादा आती हैं । इस पल हम हैं यहां और अगले पल कोई जलजला आ जाए तो! सब खतम हो जाएगा, पर प्रलय के बाद फिर सृजन ही होता है। इन पहाड़ों का महत्व कम नहीं होगा और हमारी देह का उत्सव भी समाप्त नहीं होगा।’

‘तुमने कभी किसी को कटघरे में खड़ा नहीं किया? ‘

‘मुझे कोई फायदा नजर ही नहीं आया, मेरे पास वक्त भी नहीं था। तुमने मेरे बारे में पढ़ा था न, जुंओं भरे बालों वाली सूगली-सी लड़की और टीवी रिपोर्टर बनने का सफर। जब हम सफर में होते हैं, तो सफर की मुश्किलों पर बात नहीं करते, उसकी खूबसूरती पर बात करते हैं।’

‘वक्त के साथ चीजें बदल गई शायद, औरत पहले से ज्यादा आजाद हुई हैं।’

‘नहीं, आज भी शायद हमें किसी रहनुमा की तलाश है। जब तक अब्बू रहनुमा थे, तब तक जिंदगी अच्छी कटती रही, लेकिन जब शौहर रहनुमा बने तो जिंदगी ही न रही।’ ये ताहा ने कहा। ‘तसनीम खान’ के ‘ऐ मेरे रहनुमा’ की ताहा।

‘तुमने हिम्मत क्यों हार दी थी ताहा? ‘

‘मैं क्या करती, मैं भीतर ही भीतर टूटती जा रही थी, दिल के जख्म शरीर को लग गए, दोनों एक-दुजे से जुदा कहा।’

‘तुम हार गई ताहा, एक पत्रकार होकर हार गई! ‘

‘मैं नहीं, मेरे रहनुमा हार गए, मेरे अब्बू हार गए। उन्होंने जो राहें मेरे लिए बनार्इं, मैं उन्हीं पर चली, फूलों भरी राहें थीं वो। कांटे उन्होंने खुद निकाल दिए थे। उन्होंने कांटे निकालना मुझे सिखाया ही नहीं। लहू मेरा कतरा-कतरा बहता रहा, कांटों की चुभन से और एक रोज मैं खत्म हो गई।’

‘लड़ेंगे तो मर भी सकते हैं, पर वो लड़ाई, वो संघर्ष नजर आना जरूरी है, ताकि मरना भी जाया न हो।’ ये सारंग ने कहा। ‘मैत्रेयी पुष्पा’ के ‘चाक’ की सारंग।

‘पर तुमने भी तो अपनी असली लड़ाई तब शुरू की, जब तुम्हें श्रीधर का साथ मिला। एक रहनुमा का साथ।’ मैंने पूछा

सारंग कहती हैं, ‘सही कहती हो, पर इस साथ के लिए मैंने अपने कदम खुद बढ़ाए। मैंने खुद को पिता और पति की जागीर नहीं बनने दिया। पिता किसी को सौंप दे और वो जिंदगीभर अपने मुताबिक हमें हांकता रहे, मैंने ऐसे रिवाज को बदल डाला। अपनी देह मैंने वापस मांग ली। इस देह को वही स्पर्श चाहिए, जो पहले दिल से गुजरा हो, दिमाग से गुजरा हो।’

‘पर तुमने पति को भी कहां छोड़ा? ‘

‘ये एकनिष्ठा की उम्मीद हम औरतों से ही हमेशा क्यों होती है। वैसे भी रंजीत पति था और श्रीधर प्रेमी। पति और प्रेमी, रिश्तों के दो अलग नाम। एक ही होते दोनों तो किसी पर्यायवाची कोश में साथ मिल जाते, पर ऐसा है नहीं। बस मैंने यह जान लिया था और अपने मन की बात को उजागर भी किया, ठीक वैसे ही जैसे घूंघट के पट खोल अपना चेहरा सबके सामने ले आई। सारे पर्दे हटा दिए मैंने।’

मैंने पूछा, ‘पर्दे हटाने से कहीं नजर आई तुम्हारी बहन रेशम? ‘

सारंग एक पल रुकी, धुंध छट रही थी, सामने बर्फ से लकदक पहाड़ चमकता दिखाई दिया, वो मुस्कुरा कर बोली, ‘वो असली मरजानी थी, असली साहसी। वो साहस कैसे जाया होता, उसे न्याय दिलाने की लड़ाई में न जाने कितनी ही रेशमाओं की जिंदगी संवरती गई।’

जब सारंग ने ऐसा कहा, तब हम बर्फ से ढंके पहाड़ पर थे। सफेद जमी हुई बर्फ कितनी खूबसूरत लगती है, पर दिल का जोश कभी बर्फ सा जमना नहीं चाहिए। हम सब शायद यही सोच रहे हैं। इसी सोच में डूब गए थे और डूब रहा था दूर कहीं ठंडा सूरज, अगले दिन फिर से उगने के लिए।

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