पूर्वोत्तर में रहने का भरपूर अवसर मिला मुझे और लोक – उत्सवों और नृत्यों को देखने का सौभाग्य भी मिला। यहां की संस्कृति में नृत्य बहुत बड़ा भाग घेरता है। नृत्य सामुदायिक उल्लास का प्रतीक भर नहीं बल्कि जीवन जीने को आसान बनाने वाला दर्शन है।

सात बहनों का क्षेत्र है पूर्वोत्तर। जब बहनें साथ होंगी तो उत्सव भी होगा और नृत्य भी। पूर्वोत्तर के संगीत में इन सात बहनों के गले की वह मिठास और पैरों की वह गति है कि मोहित हुए बिना रहना असंभव है। यूं तो हर क़बीले, हर गांव, हर जाति का अपना नृत्य है। पुरुषों के अलग तो स्त्रियों के अलग नृत्य हैं। खेतों के नृत्य हैं, बुवाई के हैं तो कटाई के भी। पतझड़, बरसात और बसंत के भी, हिमपात के भी नृत्य हैं। प्रेम, विरह, जन्म, विवाह उल्लास के नृत्य हैं तो युद्ध के नृत्य भी हैं। शिकार से नृत्य हैं तो जंगली जानवरों और पेड़ों से मित्रता के भी। पूर्वोत्तर के हर प्रदेश में इतने लोकनृत्य हैं कि उंगलियां गिनते कम पड़ती हैं। संगीत की विविधता के तो क्या ही कहने। पर्वत, जंगल और हरीतिमा को दो वाद्य बहुधा परिभाषित करते प्रतीत होते हैं, ढोल और बाँसुरी। इन दो वाद्यों को इस तरह विविधता में प्रयुक्त किया जाता है कि कहीं मन को लुभाती रूमानियत जागती है, कहीं श्रमशीलता की गति तो कहीं युद्ध का आह्वान, कहीं देवताओं को जाग्रत करती पुकार तो कहीं बुद्ध की प्रशांत मुद्रा में आपको लीन करती ध्वनियाँ। जैसा कि ज़ाहिर है, आदिवासी और सामूहिकता में ज़मीन से जुड़े समूहों का आरंभिक दर्शन नृत्य और उल्लास और तात्कालिकता में जीना था। इसलिए पूर्वोत्तर के हर प्रदेश की अनेकों जनजातियों के अनेकों लोकनृत्य हैं, जिनमें हथकरघों से निकले अनूठे रंग, शिरोधार्यों के रूप में कहीं पंख तो कहीं संटियां, गलों में रंगीन मोतियों की गुंथी मालाएं….मुखौटे आदि पूर्वोत्तर के लोकनृत्यों को अतिविशिष्ट बनाते हैं। जितने नृत्य उतनी छटाएँ किंतु यहां हम हर प्रदेश के मुख्य लोकनृत्य की ही संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

मणिपुर

पूर्वोत्तर के हिस्से में केवल एक ही शास्त्रीय नृत्य आया है, वह है मणिपुरी नृत्य। मणिपुरी नृत्‍य भारत के अन्‍य शास्त्रीय नृत्‍य रूपों से एकदम अलग है क्योंकि यह नृत्य धीमी गति से संचलित होता है।   हल्के मुड़े घुटने और कोमल अर्धचापों में समस्त नृत्यांग सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से हाथों और उंगलियों से होकर गरदन और नेत्रों प्रवाहित होती हैं।

यह नृत्य मणिपुर की मैतेय पुरोहितों की विरासत है। मैतेय पुरोहित मानते हैं कि जब ईश्‍वर ने पृथ्‍वी का सृजन किया तब यह केवल एक पिंड के समान थी। सात लैनूराह दैवीय प्रतिनिधियों ने इस विशाल पिंड पर नृत्‍य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया। यही मैतेय जागोई का उद्भव है। आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्‍य करते हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं।

दंतकथा से आगे चलें तो यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरुआत में भजनों के नृत्‍य रूपों में से बना फिर पारंपरिक शास्त्र बना। कृष्ण इस परंपरा नायक रहे हैं तो भागवत पुराण तथा गीतगोविन्द की रचनाओं से ली विष्यवस्तुएं इसमें उपयोग की जाती हैं।

मणिपुर के प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘खाँबा थोइबी’ की अपनी पहचान है। यह बसंत का ड्एट डांस है तो ज़ाहिर है प्रेम इसका विषय होगा। जी हां, यह एक मोरांग राजकुमारी थोइबी और भले खुमाल जनजाति के गरीब विद्वान के दुखद प्रेम की कथा पर आधारित है।  इसे दो लोग या दो – दो के जोड़े में कई लोग कर सकते हैं। इसमें मणिपुरी डांस सी ही मोहक पोशाक स्त्रियां पहनती हैं, माथे पर चंद्राकार बिंदी सजाती हैं, गोटेदार मुकुट सजाती हैं। पुरुष सर पर पाग और धोती पहनते हैं। गीत में पहाड़ी धुन की मार्मिकता बसती है।

आठ बरस हुए मणिपुर में विश्वस्तरीय वार्षिक पर्यटन उत्सव ‘संगाई उत्सव’ शुरू हुआ है। यह मणिपुर का प्रसिद्ध उत्सव है, इसका नाम संगाई नामक हिरण की प्रजाति पर रखा गया है, जो मणिपुर का राज्य पशु है। अफसोस कि अब यह एक विलुप्तप्राय प्रजाति है। इस फेस्टिवल में न केवल मणिपुर की कला व संस्कृति, हस्तशिल्प, स्थानीय खेल, भोजन, संगीत तथा साहसिक खेलों का प्रदर्शन किया जाता है, बल्कि पूर्वोत्तर के बाकि प्रदेशों के लोकनर्तक भी भाग लेते हैं।

असम  

असम का बहुत लोकप्रिय लोकनृत्य है ‘बिहू’। दूधिया साड़ी पर लाल बॉर्डर वाली मेखला चादर पहने जब युवतियाँ कोहनियों मोड़ कर कमर पर रख, किसी हंसिनी के परों की तरह हिलाती समूह में थिरकती हैं तो वह दृश्य इतना अभिराम होता है कि पलकें झपकने का मन नहीं करता।

फसल पकते समय असम में कई मेले और त्योहार आयोजित होते हैं। असम में उत्सवों में बिहू नृत्य सबसे ज्यादा किया जाता है। यह लोकतांत्रिक नृत्य सभी असमिया लोगों को उनकी पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना एक साथ ले आता है। यह एक समूह नृत्य है जिसमें पुरुष और महिलाएं एक साथ नृत्य करते हैं, महिलाएं खड़ी रेखा या गोलाकार संरचनाओं में नृत्य करती हैं। पुरुष नर्तक और संगीतकार पहले नृत्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, जब महिला नर्तक आती हैं, तो नर नर्तक महिला नर्तकियों के साथ मिलान करने के लिए अपनी लाइन तोड़ देते हैं और नई संरचना बनाते हैं। इसमें पारंपरिक बिहू संगीत ही लिया जाता है जिसे वहां उपस्थित ढोल वादक, बांस के वाद्यों के वादक बजाते हैं और गायन मंडली करती है। ये बिहू गीत को पीढ़ियों तक सौंप दिया जाता है। गीतों के विषय में नए साल का स्वागत, कृषक – जीवन होता है। यद्यपि पुरुष और महिलाएं दोनों बिहू नृत्य करते हैं, महिला बिहू नृत्य में अधिक लास्य और विविधताएं होती हैं।

त्रिपुरा   

पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य का एक बहुत मोहक और प्रमुख लोक-नृत्य है ‘होजगिरि’। होजगिरी चावल की फसल होने पर यह रियांग आदिवासी मुदाय की छोटी लड़कियों द्वारा किया जाता है। इसमें वे घड़ों पर खड़े होकर अपने सिर पर बोतल या अन्य वस्तु लिये संतुलन बनाए हुए नृत्य करती हैं। यह कुछ – कुछ राजस्थान के भवाई नृत्य सा होता है।

यह त्रिपुर – गाथा की धन-धान्य की देवी मैलुम्मा ( लक्ष्मी) को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। मैलुम्मा देवी और अनाज से भरे मटकों की पूजा तीन – चार दिन चलती है। यह भी नवान्न के त्यौहार का मनोहारी नृत्य है, जिसे कन्याएँ ही कर सकती हैं। इसमें संतुलन बहुत बड़ी भूमिका निभाता है और आप छोटी लड़कियों को बड़े घड़े थामें देख चकित हो सकते हैं।

मिज़ोरम

बचपन से मुझे स्कूल के एनुएल फंक्शन में होने वाला बैम्बू डांस और इसकी लयात्मक खट – खट पसंद थी, लड़के बांस लेकर नीचे उंकड़ू बैठते और बांस को नगाड़े की लय पर पास लाते दूर ले जाते और सेरोंग पहने लड़कियां बांसों के बीच बनती जगह में एक लय में एक खेल की तरह से कूदतीं और बाहर निकलतीं थीं। तब मुझे नहीं पता था, मिज़ोरम जाकर मुझे ‘चेरॉव’ यानि बैम्बू डांस का मौलिक स्वरूप देखने को मिलेगा। इतिहास कहता है चेरॉव नृत्य बहुत आदिम और प्रागैतिहासिक है।

क्योंकि बांस, डांस और मनुष्य का साथ भी आदिम है। इसे लंबे बाँसों के समानांतर प्रयोग से किया जाता है। इसमें लय ताल ही नहीं, समय के उस अंतराल पर भी एकाग्र होना होता है जब बांस टकराए और दूर जाए और रिक्त जगह में लड़कियां कूदें बांस के मिलने से पहले बाहर निकल जाएं। अभ्यास के चलते बाँसों का टकराना और नृत्य का संतुलन दोनों देखते बनता है।

मेघालय

मेघालय सच ही में बादलों का घर है। मुझे महीनों रहने का अवसर मिला यहां और एक उपन्यास की रूपरेखा भी बनी। यहां के पश्चिमी संगीत के बैंड पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। लेकिन लोक संगीत और नृत्य से भी मेघालय वासी उतना ही जुड़े रहे हैं। ‘लाहो’ यहां का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। जिसे स्त्री – पुरुष दोनों बहुत रंगीन वस्त्र पहन कर करते हैं। लाहो को यहां के खासी फ़ेस्टीवल के समय किया जाता है। बांसुरीनुमा वाद्य पर मोहक पहाड़ी धुन बजती है, ढोलक की थाप पर नर्तक छोटे – छोटे स्टैप्स करते हैं, जैसे धान रोपनी कर रहे हों। पुरुषों के हाथ में फावड़ा और स्त्रियो के हाथ में दरांती नुमा औज़ार होता है। बाँसुरी की तान पहाड़ों पर बहुत मीठी महसूस होती है, ढोलक थिरकन देती है और कृषि जीवन की कठिनाइयों के सुंदर मगर मार्मिक गीत दिल में गहरें धंस जाते हैं। लाहो सामुदायिक नृत्य आयोजन का उद्देश्य श्रम के बीच  मनोरंजन और विवाह योग्य लड़के और लड़कियों को आपस में मिलवाना है।

नागालैंड

चांग लो या सुआ ला नागालैंड का बहुत प्रसिद्ध लोकनृत्य है। यह चांग जनजाति द्वारा किया जाता है। हम जब तीन दिवसीय हॉर्नबिल फेस्टिवल में गए थे, तब यह रोज़ देखने को मिलता था। वैसे इसे पारंपरिक तौर पर पुरुष ही करते थे लेकिन अब कबीलों में पहले सी लड़ाइयाँ नहीं होती हैं। आजकल खुशी के अवसर पर स्त्रियां भी शामिल होती हैं। अब यह पोंगेलम उत्सव में किया जाता है। इसमें गीत नहीं ध्वनियां होती हैं ड्रम और मुंह से निकली। बहुत अलग ढंग के उछलते हुए पांच से सात तरह के पद- संचालन होते हैं। पुरुषों के हाथ में सजा  हुआ भाला रहता है क्योंकि यह युद्ध में विजयोपरांत की नृत्य-परंपरा का नृत्य है। वह जोश और नपीतुली आक्रामकता इस नृत्य में दिखती है। यह अनूठा और विविध रंग-विन्यास वाला नृत्य है। नागा योद्धाओं की आकर्षक पोशाकें, महिलाओं के मोहक लिबास इसे बहुत अभिराम बना देते हैं। पुरुष सर पर काले सफेद बड़े पंखों से बना मुकुट पहनते हैं और गले मेन हड्डियों के बने जेवर, काली लाल मोतियों से सजी कोपीन से निचला हिस्सा ढंकते। स्त्रियां छोटे लाल-काले सैरोंग और मालाएँ पहनती हैं। हरीतिमा और पर्वतों के बीच एक मैदान में होता यह नृत्य-दृश्य बहुत ही भव्य लगता है। यह हॉरनबिल महोत्सव का प्रमुख आकर्षण भी रहता है।

 अरुणाचल प्रदेश

 अरुणाचल का अर्थ है, उगते सूर्य का पर्वत क्योंकि अरुणाचल का अधिकांश भाग हिमालय से ढका है। यह सीमांत प्रदेश होने के कारण बर्मीज़ – तिब्बती परंपरा का ही बोलबाला है। यहां जनजातियों की अपनी-अपनी प्रकृतिधर्मी आस्थाएं हैं। भले ही वे हिंदु, ईसाई और बौद्ध धर्म अपना चुके हों। नृत्य उनके जीवन का प्रमुख हिस्सा है, वे हर उत्सव और प्रसन्नता के अवसर पर नाचते हैं। अनेक प्रकार के प्रकृति और युद्ध से संबंधित लोकनाट्य और नृत्य प्रचलित हैं किंतु बौद्ध लोकनाट्य, मार्शल आर्ट वाले नाटकों परंपरा भी यहां है। जिनमें मुखौटे और भैंसे, सिंह का कॉस्ट्यूम डांस प्रमुख है। यहां का प्रतिनिधि लोक नृत्य है – बार्दोछम। छम का अर्थ है नृत्य जो तिब्बती बौद्ध धर्म के कुछ सम्प्रदायों तथा बौद्ध उत्सवों में मुखौटों एवं वस्त्रों का प्रयोग कर किया जाता है। बार्दोछम शेर्दुकपेन्स जनजाति के लोग करते हैं, ये अपने मुखौटे खुद बनाते हैं।  युद्ध – नृत्य या शिकार नृत्य जैसा लगता है। नर्तक हाथ में काठ की तलवारें लिए सिंह या भैंसे के मुखौटों और सतरंगी स्टर्ट पहन कर केवल पुरुष नाचते हैं, बारह पात्र होते हैं। स्थानीय लोक मान्यताओं के अनुसार यह नृत्य अच्छी दैविक शक्तियों और दुष्ट राक्षसों के बीच के संघर्ष का नृत्य है, जहां जीत सत्य की होती है। यह नृत्य लोकनाट्य का हिस्सा है। इसे देख मुझे मेवाड़ के भीलों का गवरी लोक-नाट्य याद आ गया था। जिसे बचपन में मैंने मोहल्ले में बच्चों बड़ों के साथ सड़क पर बैठ कर रात भर देखा था। जनजातियों के बीच यह एक अदृश्य सांस्कृतिक धागा शायद विश्वभर की जनजातियों को बाँधता है।     

मैं सिक्किम को इन ‘पूर्वोत्तरी सेवेन सिस्टर्स’ का इकलौता भाई कहती हूं। क्योंकि इसका जीनोटायप कहीं से अलग नहीं इन सात बहनों से।  

अभी हम बर्दोछम की बात कर रहे थे, इसके दूसरे रूप सिक्किम में सिंहछम, याक छम के रूप में मिलता है। जिसमें सिंह और याक के केवल मुखौटे नहीं, बल्कि पूरे कपड़ों, ऊन, खाल से बने नकली सिंह या याक में दो, चार या छह नर्तक घुसकर चकित कर देने वाला नृत्य करते हैं। यह सिंह हमारा वाला शेर नहीं यह स्नो लैपर्ड का प्रतीक है, जो हिमालय में मिलता है।

ऐसे विभिन्न ‘छम’ तो भूटान में भी होते हैं। वैसे सिक्किम में भूटिया फोक डांस ‘लू कांग्थमो’ होता है, जो तीनो लोकों के सारे देवी देवताओं को समर्पित होता है। स्त्री-पुरुष पारंपरिक लिबास, गहने सर पर सरकंडों की तीलियों के मुकुट पहने मोहक संगीत और गीतों के मधुर बोल पर समूह बना कर थिरकते हैं।

मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैं पूर्वोत्तर की सात बहनों और एक भाई वाले इन राज्यों में दो किश्तों में छ: साल बिता सकी और निकट से जाना कि इन प्रदेशों में जीवन बिलकुल आसान नहीं है और ऐसे में यह नृत्यप्रियता, ये उत्सव, रंगों से प्रेम ही इन्हें जीवंत बनाए रखता है। नृत्य एक कलात्मक आध्यात्म, एक दर्शन के साथ जीवनशैली है, यह पूर्वोत्तर के नृत्यों को देख कर समझा जा सकता है।

मनीषा कुलश्रेष्ठ


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.