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मरुथल की सीपियाँ

अज्ञेय

शायद संसार के सभी देशों में ऐसा लोक-विश्वास है कि सीपी को कान से लगाकर सुनें तो उसमें सागर का स्वर सुना जा सकता है। बहरहाल मैंने अपने बचपन में यह बात अलग-अलग प्रदेशों में सुनी थी और फिर कुछ विदेशी पुस्तकों में पढ़ी भी थी। मुझे याद है कि तभी से अनेकों बार सीपी कान से लगाकर सागर का स्वर सुनने का यत्न किया था। कौतूहल इसलिए और भी अधिक था कि तब तक सागर देखा नहीं था : चित्र ही देखे थे; और तब क्योंकि बोलती फिल्म का आविष्कार भी नहीं हुआ था इसलिए चलचित्र के साथ भी सागर का असली स्वर सुनने को नहीं मिला था, संगीत के द्वाारा ही उसका आभास प्रस्तुत किया जाता था। 'आभास' भी उसे क्यों कहें, अनुकृति भी वह नहीं थी; कह सकते हैं कि उसका एक सांगीतिक ध्वनि-रूपक चलचित्र के साथ प्रक्षेपित किया जाता था...

यों तो जिन सीपियों में सुनने का यत्न किया था वे भी अधिकतर नदी-ताल-पोखरों की सीपियाँ होती थीं-उन दिनों ताल-पोखरों के आस-पास कीच-कादों में भी काफ़ी बड़ी-बड़ी सीपियाँ मिल जाती थीं-बालक का कान ढँक लें इतनी बड़ी-और इसीलिए जब किसी अँग्रेज़ी परी-कथा में नायिका के लिए सीपी की उपमा दी गयी पढ़ी थी तब एकाएक चमत्कृत-सा हुआ था कि, हाँ, सचमुच सुन्दर कान सीपी-जैसे ही होते होंगे... कभी-कभी अचानक प्रकाश के स्रोत के आगे आ गये चेहरे में कान जैसे लाल जगमगा उठते हैं यह लक्ष्य किया था; उसी तरह सीपी उठाकर सूर्य के सामने रखकर पाया था कि वह भीतर से आलोकित हो उठती है-पतले कान-सी ठीक अगिया-लाल तो नहीं, पर फिर भी एक आकाशी नीली आभा लिये ललाई दशती हुई...अब तो सारे ताल-पोखरों का जल इतना प्रदूषित हो गया है कि बड़ी सीपियाँ तो क्या, छोटी-छोटी सीपियों के टुकड़े भी उनके आस-पास नहीं मिलते; और पहले सीपियों के अलावा जो अनेक प्रकार के घोंघे, गोल, चपटे, लम्बे या सींगिया शंख आदि भी मिल जाते थे उनकी तो बात ही क्या... हो सकता है कि पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के बड़े नदों के आस-पास अब भी मिल जाते हों-बाकी देश में तो कहीं उनका नामोनिशान नहीं दीखता, और शायद यह वृत्तान्त पढक़र आज के शक्की-मिजाज नौजवान तो यह समझेंगे कि यों ही बघार रहा हूँ। पर उन दिनों तो सचमुच कभी-कभी सीपियों के बदले शंख या घोंघे का भी छिद्र कान से सटाकर सागर का स्वर सुनने का यत्न किया करते थे। और अब भी उनमें वही शब्द सुनने को मिल जाता था तो उत्कृष्ट आह्लाद के साथ एक औचित्य का आश्वासन भी अनुभव होता था-ठीक तो है, पानी से जितना घना सम्बन्ध सीपी का है उतना ही शंख और घोंघों का, तब क्यों नहीं उनमें से भी उसी तरह सागर सुनाई देगा?

यों तो कुछ वर्षों के बाद मैं भी उसी वय में पहुँचा जो शक्की-मिजाज नौजवानों की होती है। अपनी सन्देह-बुद्धि को मैंने वैज्ञानिक जिज्ञासु भाव के साथ जोडऩे की कोशिश की हो वह अलग बात है। (शायद सब नहीं तो अनेक दूसरे नौजवान भी वैसी कोशिश करते होंगे!) तब प्रयोग करके यह भी देखा कि बाहर हो रहा कोई दूसरा शब्द भी सीपी-घोंघे में से सुनाई देता है; उसकी भीतरी खोखली गोलाई अवश्य उसे कुछ ऐसे एक स्वर का रूप दे देती है जिससे सागर का स्मरण हो आए। बिजली के बड़े पंखे का स्वर भी सीपीकी ओट से सागर की पछाड़ के एकस्वर जैसा ही तो लगता है... फिर तो यह भी समझ में आया कि बाहर सम्पूर्ण नि:स्वन भी हो तो भ्ी उस छोटे गूँजघर में जो अनुगूँज सुनाई देती है वह सागर की नहीं, अपने ही रक्त-प्रवाह के सूक्ष्म स्वर की अनुगूँज होती है-उस प्रवाह को हम यों नहीं सुन पाते पर कान पर ढँकी हुई सीपी एक ध्वनिविस्तारक गूँजघर का काम देती है और इसलिए जो स्वर बाहर से पूरी तरह अश्रव्य होता है वह भीतर से एक मन्द्र-गम्भीर घोष की तरह बज उठता है।

मन्द्र-गम्भीर घोष-भीतर से सुना हुआ घोष! यह कई वर्षों बाद एकाएक समझ में आया कि उसे सुनना-और यों सुनना-भी तो एक सागर को सुनना ही है-उस सुदूर सागर को नहीं जो केवल एक विक्षुब्ध तोयनिधि है, उस अनन्त आभ्यन्तर विस्तार को जो सत्ता का एक अवशेष सागर है, वह सागर जिसके साथ फिर यह भीतर-बाहर का भेद भी अर्थहीन हो जाता है, जिसके साथ सीपी के गूँजघर का भी यही रिश्ता होता है कि वह भीतर को बाहर तक गुँजा देती है...

जब यह समझ में आया तो मन में यह भाव भी उठा कि सागर को प्रत्यक्ष देखकर जो हम घंटों उसे देखते ही रह सकते हैं, उस सम्मोहन का एक कारण क्या यह भी नहीं है कि सागर भी चेतन अथवा अवचेतन रूप से सत्ता के महाम्बुधि का एक रूपक बन जाता है? पर तब क्या उस अनाद्यन्त सत्ता का एक ही रूपक है-क्या हमारी सर्जक कल्पना इतनी पंगु है कि और रूपक भी हम नहीं गढ़ सके या आविष्कृत कर सके?-क्योंकि इस स्तर पर फिर रूपक निरी गढ़न्त नहीं रहते, भीतर कहीं एक उन्मेष होता है, एक कौंध-सी एक बिम्ब सामने उजला जाती है और उसके साथ फिर एक सादृश्य-सम्बन्ध भी उद्घाटित हो जाता है। यह नहीं कि सभी रूपक ऐसे होते हैं, कि सादृश्यों के सहारे हम रूपकों को कभी गढ़ते नहीं, या कि हमारा उद्देश्य कभी चमत्कार पैदा करना, दूसरों को चमत्कृत करना नहीं होता। निश्चय ही अधिकतर तो रूपक हमारे रूपकल्पी मानस की ही उपज होते हैं। पर कुछ निश्चय ही ऐसे होते हैं जहाँ यह प्रक्रिया उलट जाती है : वहाँ हम चमत्कृत करते नहीं, होते हैं; सादृश्यों के सहारे बिम्ब तक नहीं जाते बल्कि बिम्ब ही हमें अपनी कौंध से ठगा-सा छोड़ जाता है और सादृश्यों की पहचान ही हम बाद में बुद्धि-व्यापार के सहारे पाते हैं... वहाँ जो रूपकल्पी सर्जना क्रियाशील होती है वह हमारी अकेले की नहीं, एक लोकव्यापी सर्जन का तेज लिए होती है जिसके लिए हमारी चित्त केवल एक भंडार घर है। वह रूप रचता है और इस भंडारे में रख जाता है : हम जब-तब उसे पाते हैं और प्रसन्न होते हैं कि हमने कुछ खोज निकाला!

और यह बोध मेरे मन में उठा तो कभी सागर के किनारे बैठे उसके सम्मोहन में खोये-खोये नहीं, बल्कि एक बार मरुथल की रात में टहलते हुए एकाएक... रात सुन्दर थी, तारों-भरी तो नहीं थी, पर कुछ तारे अवश्य थे क्योंकि दशमी का चाँद भी कुछ उलटा-सा झूल रहा था। सन्नाटा भरपूर था, बत्तियाँ भी कहीं नहीं दिखाई देती थीं क्योंकि एक तो बस्ती भी पास कहीं नहीं थी, दूसरे वे 'दियाबाती ठप्' के संकटकालीन दिन भी थे, जब लोग दिन छिपते-न-छिपते घरों में घुसकर मानो अन्धकार के प्र्रस्तार में अपने अस्तित्व का प्रसार लय कर देते थे... तो ऐसे में ही, एकाएक ही, मैंने जाना कि यह मरुथल भी तो उसी अस्तित्व के महासागर का एक रूपक है-उतना ही समर्थ रूपक जितना कि जलनिधि... चमत्कृत होने के लम्बे क्षण ने जब धीरे-धीरे मुझे अपने चंगुल से मुक्त किया, तब फिर सादृश्यों की लहरें मन में उमडऩे लगीं। मरु रेती में हवा से अँकी हुई लहरों के कई चित्र आँखों के आगे से दौड़ गये; हवा से लगातार लहर की तरह बदलते हुए रूप भी-क्या मरु भी उतना ही उद्वेलित नहीं होता जितना समुद्र! और जब होता है तब क्या वह भी उतना ही रूपकल्पक, रूप-स्रष्टा नहीं हो जाता जितना समुद्र? मरुथलों में कुछ-कुछ घंटों में बदल गये रूप मैंने देखे हैं-रेत की लहरें ही नहीं, रेत के ढूह और ढूहों के समूह जो एक जगह से हटकर दूसरी जगह जा जमे हैं-जैसे डाँगरों का एक झुंड एक जगह से उठकर दूसरी जगह जा बैठा हो... नलिनविलोचन जी ने रेत के ढूहों की तुलना बैठी बिल्लियों के साथ की थी-जहाँ तक सादृश्य की बात है वह संगत है, पर आकार-भेद के कारण एक कठिनाई उठ खड़ी होती है। मरुदेश में इतने बड़े-बड़े ढूह रातों-रात स्थानान्तरित होकर नया परिदृश्य बना जाते हैं कि उसे पहाडिय़ों का विचलन कहना अधिक संगत होगा।

तो सत्ता के अनन्त विस्तार का ही एक रूपक मरुथल भी हो सकता है जैसे कि सागर : और शायद इसीलिए मरुथल ने उस विस्तार के अपने दार्शनिक पैदा किये हैं जो आरण्यक ऋषियों से किसी तरह कम नहीं रहे होंगे। और यदि उन ऋषियों के हरे-भरे समृद्ध गृही जीवन के कारण इस तुलना को स्वीकार करने में कुछ कठिनायी होती हो तो मुनिजनों से तो उनकी तुलना की ही जा सकती है-मुनि तो वे सब थे भी और प्राय: मरुवत मौन रहने के भी अभ्यासी थे-वह उनकी साधना या तपस्या का एक रूप था। जैसे बिना दिग्दर्शक यन्त्रों के, केवल सहज ज्ञान के बल पर मरु पार कर लिया जाता है, वैसे ही ये मरुवासी मुनि सहज ज्ञान के सहारे सत्ता के महामरु को भी पार कर लेने की साधना करते थे : वह सरलतम जीवन और वह चरम सहजता ही उनका साध्य थी। यहाँ फिर एक रूपक का ही सहारा था-और इस बिन्दु पर विचार करके देखें तो जिसे हम 'रूपक' कहते हैं उसके यूनानी नाम का व्युत्पत्त्यर्थ ही था, 'जो पार ले जाये'- और पार भी ऊपर के किसी सेतु से नहीं, जो नीचे से ही पार करा दे! यानी मेटाफ़ोर एक प्रकार का तीर्थ ही है- वे भी तो तिरकर पार हो जाने के स्थल ही होते हैं- 'उतारे' ही होते हैं?

मरुस्थल के विचित्र अनुभवों में एक मरुथलीय सीपी पाने का अनुभव भी है- एक सीपी ही नहीं बल्कि एक ढोंका जिसमें एक साथ बीसियों सीपियाँ और शंख शिथिल रूप में दीख रहे थे। जीववैज्ञानिकों ने बताया कि ये जीवाश्म या कि शिलित जीव अथवा जीव-गेह इस बात का प्रमाण है कि मरुथल भी लाखों बरस पहले एक सागर था : चाहे जिन भी कारणों से वह सूख गया और उसमें पलनेवाले जल-जीव सब जमकर पत्थर होते कीचड़ के दबाव से शिलित हो गये-तभी तो अभी पपड़ीले पत्थर की तहों में ये शिलित शंख और सीप मिलते हैं-और कभी-कभी उनके साथ शिलित सिवार या अन्य उद्भिज भी...यह तो रूपक का घनीकृत रूप हो गया। सागर, जो पहला रूपक था सूख गया और मरु बना; मरु जो दूसरे चरण का रूपक था अब हमें ये जीवाश्म और शिलित उद्भिज दे रहा है जो रूपकीकरण की तीसरी सीढ़ी हैं : प्रत्येक शिलित उद्भिज में कैसे वह 'होने का सागर' एक ज्वार-सा उमडक़र सब ओर घेर लेता है। ऐसे में तो सीपी को कान से लगाने की भी जरूरत नहीं रहती : एकाएक अस्तित्व के सागर के 'प्लुत एकस्वर' से हम घिर जाते हैं।

मरुदेश में मिली शिलित सीपी को भी मैंने कुछ कौतुक के भाव से कान को लगाकर देखा था : क्या इसमें भी सागर का स्वर सुना जा सकेगा? कौन-से सागर का? मरु-सागर का स्वर, जिसके शिलित कर्दम में वह शिलित सीपी पायी गयी? या कि उस बिला गये जल-समुद्र का जिसकी वह सीपी थी, जिसकी तरंगोर्मयों के साथ कभी वह सलील तिरी-उतरायी थी-उतरायी-इतरायी थी? क्या मरु स्वयमेव एक शिलित समुद्र नहीं है? या कि उसे समुद्र कहने-कहने में हमारा रूपक भी शिलित हो गया है? हमारी सारी भाषा ही तो अधिकांशत: शिलित रूपकों का समूह होती है : कवि-स्रष्टा लगातार 'होने के सागर' में डुबकियाँ लगाकर नए-नए शंख और सीपियाँ और मोती तक खोजकर लाता है, हम चमत्कृत भी होते हैं, पर हमारे चमत्कृत होते-न-होते वे शंख-सीपियाँ-मोती सब शिलित हो गये होते हैं : अनुभव का वह सागर ही शिलित हो गया है जिसमें कवि ने डुबकी लगायी थी। तब वह यह सारी शिलित सम्पत्ति हमारी ओर फेंककर फिर अपने शोध-कर्म में दत्तचित्त होता हे, अस्ति के सागर की नई साहस-यात्रा पर निकल पड़ता है। और उसके फेंके हुए वे सारे शिलित रूपक हमारी सामान्य भाषा की पूँजी बनकर जाते हैं। उसके नए काव्य-आविष्कार की प्रतीक्षा करते हुए भी हम पाते हैं कि हमारा विचार-भंडार समृद्धतर हो गया है, हमारी सम्प्रेक्षण-क्षमता बढ़ गयी है, हमारे संवाद में नई गहराई है और मानव-मात्र के आपसी सम्बन्धों की एक नई पहचान हमें एक-दूसरे के निकटतर ले आयी है। पुराण-कथा का लोभी राजा माइडास जो कुछ छूता था वह सोना हो जाता था-निष्प्राण और अन्तत: अप्रयोज्य सोना; पर कवि हमें जो कुछ दे जाता है वह पहले ही पत्थर होता और हम उसे अपनाते हैं तो लोभी-भाव से नहीं, इसलिए कि वे सारे पत्थर हमारे लिए रत्नों का ही काम देते हैं न सही श्रेष्ठ और अमूल्य रत्नों का, दूसरे दर्जे के 'नीम-दामी' रत्नों का काम ही सही-पर उन्हीं के सहारे हम सब 'पत्थरों के सौदागर' बनते जाते हैं, हमारा व्यापार भी बढ़ता जाता है और हमारी साख भी... हमारे पत्थर 'परस-मणि' तो नहीं होते-उस मणि की खोज में तो हमारा कवि गया ही होता है और हम उसकी लम्बी प्रतीक्षा में रहते ही हैं-और यह सारा व्यापार भी एक रूपक ही है, लेकिन समझने की बात यह है कि यह रूपक भी स्वयं शिलित होता हुआ हमें शिलित होने से बचाता रहता है। वही असल में इस रूपक-रचना की प्रक्रिया का असली रहस्य है : यह प्रक्रिया एक जीवित, स्पन्दयुक्त प्रणाली है जिसमें से लगातार वह रस प्रवहमान रहता हे जो हमें अस्ति के महासागर से जोड़े रहता है। नहीं तो उसके शिलित होने के साथ हमारी सारी सर्जनशीलता भी शिलित हो जाती-हम स्वयं ही शिलित हो जाते। शीत-निद्रा में पशुओं का रक्त ठंडा हो जाता है, जमता भी है; पर यह जमकर हिममय होना शिलित होना नहीं है। ऐसी शीतनिद्रा पर्याय (आह, यह भी एक रूपक है!) हमारे जीवन में भी होता है : समाज भी शीतनिद्रा में डूबते हैं, संस्कृतियाँ भी शीतनिद्रा लेती हैं-पर यह तो एक प्रकार का कायाकल्प होता है, पुनरुज्जीवन होता है, शिलित होना नही होता! शीतनिद्रा के बाद हिमालयी रीछ और गिलहरी नई स्फूर्ति के साथ क्रियाशील होते हैं; शिलित हो गयी सीपी दोबारा कभी उस सागर का स्वर नहीं सुनेगी जिसके साथ उसकी सम्बन्ध-प्रणाली भी शिलित हो गयी है जैसे कि वह सागर भी मरु में शिलित हो चुका है... हम चाहे उस सीपी के सहारे अस्ति के उस महासागर का स्वर सुन लें जिसके रूपक सागर और मरु हैं; पर हम भी वैसा कर पाते हैं तो इसीलिए कि रूपक-रचना की हमारी प्रणाली अभी जीवन्त और स्पन्दयुक्त है...

जापान में रूपक-रचना की एक स्वतन्त्र पद्धति है जो कला के रूप में विकसित हुई है। शिलित रूपकों द्वारा भाषा की अभिवृद्धि की बात हमने की, पर जापान की रूपकल्पी प्रतिभा शायद भाषिक अभिव्यक्ति को इतना महत्त्व नहीं दती रही। हो सकता है इसका कारण बौद्ध जैन (ध्यान) परम्परा में रहा हो : 'तथता' की खोज सहज ही भाषा को एक तरफ़ हटा देती है और अन्तर्दीप्त मौन का सहारा लेती है। यह भी हो सकता है कि जैन परम्परा में इसका मूल न रहा हो, जैन ने केवल उस जड़ को सींचा हो जो उससे पहले ताओ की दीक्षा के साथ जम चुकी थी। जो हो, जापान ने भाषिक रूपक की अपेक्षा दृश्य रूपकों को ही अधिक महत्त्व दिया। यों जापानी भाषा की अपनी विशेषता है कि यह निर्विकल्प अर्थ की नहीं, अर्थ-श्रेणियों अथवा अर्थ-धाराओं की साधना करती है। जापानी भाषा में स्पष्ट और दो-टूक बात कहना बहुत कठिन है क्योंकि वह कभी वांछित या साध्य रहा ही नहीं : अर्थध्वनियों, प्रतिध्वनियों और मूच्र्छनाओं की सृष्टि और सम्प्रेषकता में ही उसने अपनी शक्ति मानी है। इस प्रकार रूपक वहाँ भी है तो, और वह अनेक-स्तरीय भी होता है; पर उनकी अनेक-स्तरीयता में वैसी शक्ति नहीं होती जो पुराण के प्रतीकों अथवा अभिप्रायों की, मिथकीय कथन की अनेकायामिता में होती है। मिथकीय उक्ति की शक्ति इसमें होती है कि वह अनेक आयामों में अर्थ-सम्प्रेषण करती है; किसी भी आयाम में वह अर्थ आवृत्त तो हो सकता है, पर धुँधला या सन्दिग्ध नहीं होता। पर जापानी संस्कार को वह धुँधलका पसन्द है जो वहाँ के प्राकृतिक परिवेश का भी सहज अंग है : बात की हल्की व्यंजनाएँ कई स्तरों पर हों पर कोई एक स्पष्ट या प्रधान या अभिधेय अर्थ न पाया जा सके-उसके लिए यह उसकी चारुता का प्रमाण है। मन्दिर नहीं दीखता, घनी धुन्ध में उसकी घंटा-ध्वनि का सुन पडऩा भी सन्दिग्ध हो जाता है-क्या हम सचमुच सुन रहे हैं या कि सुनने का आभास ही वहाँ है? जापानी का तो ऐसा सुनना ही श्रेष्ठ सुनना है : इसमें देखना ही सुनना हो गया है, और सुनना ही देखना।

पर हम भाषा की गौणता जताते-जताते इस बात को इतना तूल दे गये। कहना यह चाहते थे कि जापानी संस्कार दृश्य रूपक को अधिक महत्त्व देता है : और उसका शायद सबसे विलक्षण उदाहरण उसके सागर के रूपक हैं। क्योतो के एक मठ का पत्थर-कंकड़ों से बना हुआ सागर-दृश्य जगद्विख्यात है : पत्थर के ढाँकों के द्वारा प्रतीकित द्वीप और पर्वत, छोटे टुकड़ों के द्वारा प्रतीकित समुद्र और तरंग और फेनोर्मियाँ : एक शिला-निर्मित, शिलीभूत सागर के द्वारा अस्तित्व के महासागर का रूपक प्रस्तुत किया जाता है और उसे बदलकर फिर से रूपायित कर सकने में कितने साधकों की कितनी ऊर्जा व्यय होती है! ऊर्जा तो स्वाभवत: एक अस्थिर, चंचल, गतिशील, लहरिल प्रवाह है : उसे यों साधकर एक निश्चल रूप दे देना भी बड़ी साधना है-बड़ी कला-साधना भी है, जीवनानुशासन तो है ही। पर अन्ततोगत्वा तो उसकी पहुँच भी एक रूपक तक ही है : साधक कलाकार एक रूपक ही तो रच पाता है। और वह रचना भी एक सचेत कर्म हे, 'चेष्टित' कहकर हम उसे घटिया स्तर पर न भी लाना चाहें तो भी। पर सागर और मरुथल तो ऐसे सचेत कलाकर्मी नहीं हैं। वे तो रूप-स्रष्टा हैं, अधीर और अनाशुतुष्ट स्रष्टा हैं, तभी तो रचने के साथ मिटाते भी चलते हैं! सागर के साथ तो यह भी पता नहीं चलता कि कौन-सा 'बनना' है और कौन-सा मिटना- सारी प्रक्रिया ही इतनी द्रव और त्वरायुक्त होती है! हाँ, मरुथल की कलासृष्टियाँ तो मिटने से पहले पहचान में भी आ जाती हैं; तभी लगता है कि उसकी रूप-चेतना सागर की अपेक्षा प्रबलतर है-वह तो मरु में भटककर प्राण गँवा देनेवाले जीवन-जन्तुओं की सूखी हड्डियों को भी कुछ रेत से ढँक और कुछ उघाडक़र ठीक-ठिकाने जमा कर एक सन्तुलित कलाकृतियों का रूप दे देता है! फिर जल्दी ही वह उसे बदल भी देता है, पर तब तक हम उसे पहचान चुके होते हैं, उसका रूपकार्थ पा चुके होते हैं-चाहे वह रूपकार्थ हमारा ही होता हे, मरुथल का नहीं, कयोंकि वह तो उसे तब तक मिटा चुका होता है, रद्दी कर चुका होता है!

सीपी में सागर का स्वर सुनाई देता है, हाँ, और हमारा सारा जीवन ही तो एक सीपी है, सात्विक, सत्य, रंगों-भरी सीपी, जिसके द्वारा हम सागर का नहीं, सागरों के स्वर सुन पाते हैं-जो सागर हममें मिलकर एक हो जाते हैं। उनका हममें मिलना, हमारे द्वारा उस मिलन का पहचाना जाना ही शायद हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है-इतनी बड़ी कि इस रूपक को थोड़ा और बढ़ाकर हम कह सकते हैं कि वह हमें हो जाती है तो हमने सीपी में सागर ही नहीं सुन लिये होते, हमने उसमें मोती भी पा लिया होता है।

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