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धनेश से मुलाकात
देवेंद्र मेवाड़ी
एक दिन सुबह-सुबह घर के सामने कुसम के पेड़ पर
तेज ‘कीईई...कीईई! की आवाज सुन कर हम समझ गए कि आज धनेश यानी ग्रे हार्नबिल
मिलने आ गया है। बेटी ने कैमरा संभाला और इस नए मेहमान के फोटो ले लिए।
इससे पहले मैंने 20 जुलाई 2014 को अपनी बालकनी के सामने पेड़ पर धनेश देखा
था। तब भी वह कुसम के इसी पेड़ पर आया था।
मैं सोचता रहा कि इसकी लंबी सींग जैसी चोंच को देख कर ही शायद अंग्रेजों ने
इसका नाम ‘हार्नबिल’ रख दिया होगा। ग्रे यानी धूसर रंग का है तो वे इसे
ग्रे हाॅर्नबिल कहने लगे। लेकिन, सच मानिए तो इस प्यारे पक्षी के लिए हमारे
लोक में प्रचलित नाम कहीं ज्यादा खूबसूरत हैं। धनेश खुद कितना अच्छा नाम
है। बल्कि, मैं तो इसे अब स्लेटी या धूसर धनेश कहना चाहूंगा। इस नाम में
अनुप्रास अलंकार की छटा भी है और सींग-वींग भी नहीं हैं। फिर, पंजाबी का
धनचिड़ी, गुजराती का चित्रोला, मराठी का भी धनचिड़ी, धनेश या सींगचोचा, और
बंगला का पुट्टियल धनेश नाम भी क्या कम है! यों, हिंदी भाषी क्षेत्र में
कहीं-कहीं इस चिड़िया को लमदार भी कहते हैं।
लेकिन, आस्ट्रिया, यूरोप के प्रकृति विज्ञानी जियोवानी एंतोइनो स्कोपोली इस
चिड़िया का नाम रख गए हैं- ओसीसेरॅस बाइरोस्ट्रिस। मतलब, इसका वंश है-
ओसीसेरॅस और प्रजाति है- बाइरोस्ट्रिस। यह नाम उन्होंने सन् 1786 में रखा
था। यूनानी भाषा में ओकुवा का अर्थ है भाला और कीरोस का मतलब है सींग।
इन्हीं शब्दों के आधार पर वंश का नाम ओसीसेरॅस हो गया। बाइरोस्ट्रिस का
अर्थ है दुहरी चैंच। इसलिए यह प्रजाति का नाम हो गया। जीव-जंतुओं और
पेड़-पौधों के नामकरण की यह पद्धति स्वीडन के वनस्पति विज्ञानी कार्ल लिनेयस
ने सुझाई थी। स्कोपोली उनका बहुत सम्मान करते थे और उन्हें चिट्ठियां
लिख-लिख कर अपने शोधकार्य के बारे में बताते रहते थे। स्कोपोली थे
यूनीवर्सिटी आॅफ पाविया, इटली में और कार्ल लिनेयस स्वीडन में। इतनी दूर
होने के कारण स्कोपोली चाहते हुए भी कभी कार्ल लिनेयस से मिल नहीं पाए।
स्कोपोली तो भारत भी नहीं आए। फिर इस भारतीय चिड़िया का नाम उन्होंने कैसे
रख दिया होगा? इस तरह कि उन्होंने भारत और चीन से फ्रांसीसी प्रकृति
विज्ञानी पियरे सोनेरात के जमा किए गए नमूनों का नामकरण किया था। उन्हीं
में इंडियन ग्रे हार्नबिल का नमूना भी रहा होगा।
बड़ा मजेदार पक्षी है यह धूसर धनेश, और पत्नी भक्त भी। हम मनुष्य इससे पत्नी
से प्यार का पाठ पढ़ सकते हैं। मोटी, काली-सफेद, घुमावदार चोंच और लंबी पूंछ
इसकी खास पहचान हैं। इसकी चोंच पूरे पक्षी जगत में अनोखी है। उसके ऊपर
प्रकृति ने काले रंग का कैस्क यानी शिरस्त्राण सजा दिया है। हमारे देश में
इसकी नौ प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से हमारा यह सलेटी यानी धूसर धनेश
प्रायः अधिक दिखाई देता है। पश्चिमी घाट क्षेत्र में मालाबार ग्रे हार्नबिल
पाया जाता है, लेकिन उसकी चोंच पर शिरस्त्राण नहीं होता। कुमाऊं की निचली
पहाड़ियों से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक और पश्चिमी घाट के इलाके में गिद्ध के
बराबर बड़ा ग्रेट पाईड हार्नबिल भी इसी बिरादरी का धनेश है।
धनेश को बरगद, पीपल आदि के फल बड़े पसंद हैं, हालाकि कीड़े-मकोड़े, दीमकों और
छिपकलियों के आहार से भी इन्हें परहेज नहीं है। टोली में हों तो इनकी उड़ान
देखने लायक होती है। पहले एक धनेश उड़ता है, उसके पीछे दूसरा, फिर तीसरा।
इसी तरह एक के बाद एक सीध में उड़ते जाते हैं मानो हर धनेश पीछे वाले धनेश
से कह रहा हो- आओ मेरे पीछे! अपने घर के पास हमने धनेश की तेज आवाज कई बार
सुनी है- कींईई....कींईई! यह भी देखा कि जब धनेश उड़ा तो उसने जोर लगा कर
पंख फटफटाए। थोड़ा हवा में तैरा, फिर पंख फटफटा कर सामने पार्क की ओर उड़
गया।
अक्टूबर 2014 में वैज्ञानिक सोच पर व्याख्यान देने मंदसौर, मध्य प्रदेश गया
तो वहां मैंने कई इंडियन ग्रे हार्नबिल देखे। 27 अक्टूबर को शिवना नदी के
तट पर प्रसिद्ध पशुपतिनाथ महादेव मंदिर परिसर से कुछ दूर खेतों में खड़े एक
विशाल बरगद के पेड़ से मिलने गया। वहां फसल की पहरेदारी कर रहे बुजुर्ग कालू
काका और दो-तीन अन्य लोग मिल गए। सामने एक और पेड़ की ओर मेरी नजर गई जिस पर
धूसर धनेशों की टोली खेल रही थी। टोली में दस-पंद्रह धनेश तो थे ही। वे
एक-दूसरे का पीछा करते और फिर टहनी पर बैठ जाते।
उन्हें देख कर मैंने पहले कालू काका से उस पेड़ का नाम पूछा और फिर चिड़ियों
का। उन्होंने कहा, “पेड़ को तो हम हुड़क-नीम कहते हैं। चिड़ियां तो चिड़ियां ही
है।”
तब मैंने उन्हें बताया, “कि ये लंबी चोंच और लंबी पूंछ वाले पक्षी सलेटी
धनेश हैं। इनसे हम कुछ सीख सकते हैं।“
काका ने पूछा, “क्या”
मैंने कहा, “अपनी घरवाली से प्यार करना और उसकी देखभाल करना।” फिर मैंने
उन्हें धनेश की पूरी जीवनचर्या के बारे में बताया।
सुन कर काका ने चकित होकर कहा, “बताओ, एक छोटी-सी चिड़िया इतनी समझदार और
हमें इस बात का पता नहीं!”
उसके बाद 24 अप्रैल 2017 को दिल्ली में ग्रे हार्नबिल माता-पिता अपने बच्चे
के साथ हमारे घर के पास कुसम के पेड़ पर आए। जैसे, बड़े हार्नबिलों का छोटा
पैकेट! लगता था, बच्चे का जन्म तीन-चार माह पहले हुआ होगा। माता-पिता उसे
अपने साथ आसपास की सैर कराने लाए होंगे जहां वे उसे पेड़ों की टहनियों पर
बैठने, फुदकने और उड़ने के पाठ पढ़ाएंगे। हमने देखा, पिता कहीं से रोटी का एक
टुकड़ा भी ले आया था जिसे उसने चोंच बढ़ा कर बच्चे को दे दिया। बच्चे ने रोटी
का वह टुकड़ा चाव से अपनी चोंच में पकड़ लिया।
मार्च से जून तक इंडियन ग्रे हार्नबिल यानी धूसर धनेश के प्यार का मौसम है।
इस बीच नर धनेश मादा धनेश को रिझाने की कोशिश करता रहता है। उसे चुन-चुन कर
बरगद, पीपल, गूलर आदि पेड़ों की पकी हुई बेेरियां यानी सरस फल खिलाता है। वे
दोनों घोंसला बनाने के लिए आसपास पीपल, गूलर, बरगद वगैरह के पुराने पेड़ों
का मुआयना करते हैं। उनमें कोई ऐसा कोटर या बिल खोजते हैं जो सुरक्षित हो,
जिसके भीतर बैठ कर मादा धनेश अंडे दे सके और बच्चों के निकलने तक अंडे सेने
के लिए उसी के भीतर रह सके। उचित कोटर या बिल मिल जाने पर नर धनेश उसकी
सफाई करता है। नर-मादा धनेश के मिलन के बाद वे दोनों कोटर या बिल को बीट और
मिट्टी से चिन कर, लीप कर अच्छी तरह बंद कर देते हैं। उसी बीच मादा भीतर
जाकर बैठ जाती है। नर धनेश कोटर या बिल को लीप कर केवल एक छेद छोड़ देता है
जिससे वह रोज भीतर बैठी मादा को भोजन दे सके।
जब मादा धनेश कोटर के भीतर बंद रहती है तो नर धनेश उसके लिए फल और
कीड़े-मकोड़ों का भोजन लाता रहता है। वह कोटर के छेद से भोजन भीतर डालता है।
इस बीच मादा के पंख झड़ जाते हैं। अंडों से चूजे निकलते समय तक मादा के नए
पंख उगने लगते हैं। प्रकृति ने यह ध्यान रखा है कि कोटर के भीतर अंडों से
बच्चे एक साथ नहीं निकलते। पहले एक अंडा फूटता है। उससे एक बच्चा निकलता
है। वह बच्चा कोटर के छेद को तोड़ कर बाहर आ जाता है। फिर कोटर में दूसरे
अंडे से बच्चा निकलता है। वह भी बाहर निकल आता है। फिर तीसरे अंडे से बच्चा
निकलता है। तब मां भी कोटर से बाहर निकल आती है।
बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, मुंबई में सहायक निदेशक (शिक्षा) डा. राजू
कसाम्बे ने इंडियन ग्रे हार्नबिल की पूरी जीवनचर्या को बहुत करीब से देख कर
एक प्रमाणिक पुस्तक लिखी है, ‘इंडियन ग्रे हार्नबिल-अनरावेलिंग द
सीक्रेट्स।’ इस पुस्तक में उन्होंने धनेश दंपति के प्यार और बच्चों के
पालन-पोषण का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। वह पूरा वर्णन एक प्रेरणादायक
प्रेम-कथा की तरह लगता है। धनेश दंपति की जीवनचर्या को देखकर पता लगता है
कि उनमें कितना प्यार होता है।
हमें इन पक्षियों से प्यार करना चाहिए और याद रखना चाहिए कि यह धरती हमारी
ही नहीं, इनकी भी है। केरल के ओरुमयानुर गांव के अंग्रेजी शिक्षक और चर्चित
कवि फैवियस एम वी ने अपनी मार्मिक कविता ‘डेथ आॅफ ए मालाबार ग्रे हार्नबिल’
में इस बात को शिद्दत से याद दिलाया है:
सर्र से निकल जाती है वह कार
जंगल की उस सड़क पर।
किसे है परवाह लिंचिंग के इस दौर में बेचारी चिड़िया की?
शांत हो गई
बेरियां भरी उसकी चोंच।
साथिन सुनती है
उसके पंखों की आवाज जो पास नहीं आती....
पक्षी प्रेमी का उठता है विचार
उस मृत शरीर से
और चढ़ता है ऊपर
पेड़ के तने पर
और गिरा देता है
बेरियां छेद से बंद घोसंले के भीतर।
चोंचे खुलती हैं
असहनीय भूख से।
जरूरत है विश्व को
इस कोशिश की
असंख्य हैं
टूटे हुए पंख।
- फेवियस एम वी
कोरूमयानुर गांव, केरल
देवेंद्र मेवाड़ी
पताः सी-22, शिव भोले अपार्टमेंट्स,
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