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प्रेम हमें अंदर से सुंदर बनाता है
पंकज सुबीर
प्रेम को लेकर जितना लिखा गया है, कहा गया
है, उतना किसी और विषय को लेकर शायद नहीं लिखा गया होगा। और उसके बाद भी
प्रेम अभी तक अव्यक्त और अपरिभाषित ही है। कोई नहीं जानता कि वास्तव में
प्रेम है क्या। जब हम प्रेम में होते हैं, तब भी यह ठीक-ठाक नहीं समझ में
आता है कि हम जिस अवस्था में हैं, उसे यदि परिभाषित करना हो, तो कैसे किया
जाएगा। कोई पूछेगा कि तुम्हें क्या हुआ है, तो हम बताएँगे क्या ? जब से
दुनिया बनी है, जब से यहाँ जीवन है, तब से यहाँ प्रेम और नफ़रत दोनो
साथ-साथ अस्तित्व में हैं। दोनो एक दूसरे के प्रभाव को समाप्त करने के लिए
संघर्ष कर रहे हैं। नफ़रत चूँकि एक नकारात्मक भाव है, इसलिए इसका काम आसान
होता है, प्रेम एक सकारात्मक भाव है, इसलिए इसका काम कठिन या बहुत कठिन
होता है। अंतर वही होता है, जो निर्माण और ध्वंस में होता है। प्रेम को
निर्माण करना होता है। निर्माण करते समय बहुत धैर्य, बहुत कौशल, बहुत
एकाग्रता की आवश्यकता होती है। ध्वंस के लिए कुछ नहीं चाहिए होता। नफ़रत
ध्वंस का कार्य करती है, इसलिए ही हर युग में, हर समय में उसका काम बहुत
आसान होता है। प्रेम के लिए और कठिन होता है, नफ़रत द्वारा ध्वंस किये गए
समय में फिर से निर्माण करना। मानव मन की प्रवृत्ति होती है वह आसान कार्य
को अपने लिये पहले तय करता है। शायद इसीलिए दुनिया की अधिकांश आबादी हर समय
नफ़रत में व्यस्त रहती है। और कुछ मुट्ठी भर लोग होते हैं, जो अपने लिए
कठिन रास्ता चुन लेते हैं प्रेम का, जिनके लिए कबीर ने कहा है –'जो घर
फूँके आपना, चले हमारे साथ'। इसी घर फूँकने को जिगर मुरादाबादी कुछ दूसरी
तरह से कुछ यूँ कहते हैं –'इक आग का दरिया है और डूब के जाना है'। लेकिन
मानवता के लिए सबसे बड़ी राहत की बात यही है कि ये मुट्ठी भर लोग हमेशा, हर
युग में अंततः ध्वंस के पत्थरों से ही निर्माण करने में सफल रहते हैं।
प्रेम को लेकर एक बहुत सपाट-सी परिभाषा यह दी जाती है कि मानव, पशु, पक्षी,
सभी में अपने से विपरीत लिंग को लेकर जो आकर्षण होता है, वही प्रेम होता
है। कितनी संकुचित और सीमित परिभाषा है यह प्रेम की। यदि यही प्रेम है, तो
फिर तो इसके अलावा कुछ और प्रेम है ही नहीं। और फिर यह प्रेम तो चूँकि
विपरीत ध्रुवों के बीच का आकर्षण है, तो फिर यह तो भौतिक हुआ, और यह तो देह
या शरीर का आकर्षण हुआ, क्योंकि यह तो शरीर की दो अवस्थाओं के बीच का
खिंचाव है। जिस प्रकार चुंबक के दो विपरीत ध्रुव एक दूसरे को खींचते हैं।
यह आकर्षण तो शरीर पर आकर समाप्त होगा। यहाँ पर 'समाप्त' शब्द का उपयोग
इसलिए किया जा रहा है, कि जो भी आकर्षण होता है, वह प्राप्ति के बाद समाप्त
होता ही है। जो नहीं मिला है, वही आकर्षित करता है, जो मिल गया, वह विरक्ति
पैदा करता है। इसका मतलब यह वह प्रेम तो नहीं ही है, जिसके बारे में कबीर
चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि –'प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय'।
प्रसिद्ध आस्ट्रेलियाई लेखक सैम कीन कहते हैं "प्रेम किसी परफेक्ट व्यक्ति
की तलाश नहीं है, प्रेम इम्परफेक्ट व्यक्ति में परफेक्शन की तलाश है।" यह
प्रेम की अद्भुत व्याख्या है। प्रेम हमारे देखने का नज़रिया बदलता है। वह
जो कुछ है, उसी में सुंदरता तलाश करने की समझ देता है। प्रेम हर असुंदर में
सुंदरता तलाश कर ही लेता है। प्रेम के लिए कुछ भी असुंदर नहीं होता, प्रेम
का शब्दकोश बदसूरत शब्द से मुक्त होता है। यह शब्द वहाँ होता ही नहीं है।
प्रेम चेतना के स्तर पर कार्य करता है। चेतना का वह स्तर, जहाँ सब कुछ
सुंदर ही है। ओशो भी प्रेम के लिए यही कहते हैं 'प्रेम स्टेट आफ माइंड है,
स्टेट आफ कांशसनेस है, चेतना की एक अवस्था है।' प्रेम में होना सबसे सजग
होना होता है। सजग इसलिए कि जो कुछ भी आस पास घट रहा है, गुज़र रहा है, उस
सब का आनंद लेना है। चेतना का अर्थ ही यही होता है कि आप हर क्षण आनंद में
रहें। आनंद का अर्थ यह कि जो कुछ भी हो रहा है, उसी में आनंद को तलाश कर
लें। आनंद के लिए आपको किसी पर्व, किसी त्योहार, किसी अवसर विशेष की
आवश्यकता ही नहीं पड़े। हमारे आस पास हर क्षण ऐसा बहुत कुछ होता रहता है,
जो हमें आनंद दे सकता है, मगर हम जड़ बने रहते हैं, चेतना हो ही नहीं पाते।
ओशो इसी को चेतना की अवस्था कहते हैं कि जिसमें हम प्रेम में पड़े होते
हैं, हर गुज़रते हुए क्षण और उसमें घटती हुई घटनाओं के प्रेम में। कबीर भी
बार-बार मन की आँखों का ज़िक्र करते हैं, वे आसमान से लगातार, अनवरत, बरसती
हुई आनंद की वर्षा की बात करते हैं। हम इसे केवल दार्शनिक बात कह कर टाल
देते हैं। मगर सच यही है कि जो कुछ सैम कीन कहते हैं, वही ओशो कहते हैं, और
वही कबीर भी कहते हैं। सब कहते हैं कि दुनिया इतनी असुंदर नहीं है, यहाँ
सुंदरता बिखरी पड़ी है, मगर इस सबको देखने के लिए प्रेम में होना पड़ेगा।
ओशो कहते हैं "जब तक आप प्रेम को एक संबंध समझते रहेंगे, एक रिलेशनशिप, तब
तक आप असली प्रेम को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। वह बात ही गलत है। वह प्रेम की
परिभाषा ही भ्रांति है। संबंध की भाषा में नहीं, किससे प्रेम नहीं; मेरा
प्रेमपूर्ण होना है। मेरा प्रेमपूर्ण होना अकारण, असंबंधित, चौबीस घंटे
मेरा प्रेमपूर्ण होना है। किसी से बंधकर नहीं, किसी से जुड़कर नहीं, मेरा
अपने आपमें प्रेमपूर्ण होना हैं। यह प्रेम मेरा स्वभाव, मेरी श्वास बने।
श्वास आये, जाये, ऐसा मेरा प्रेम--चौबीस घंटे सोते, जागते, उठते हर हालत
में। मेरा जीवन प्रेम की भाव-दशा, एक लविंग एटिटयूड, एक सुगंध, जैसे फूल से
सुगंध गिरती है। प्रेम भी आपका स्वभाव बने--उठते, बैठते, सोते, जागते;
अकेले में, भीड़ में, वह बरसता रहे फूल की सुगंध की तरह, दीये की रोशनी की
तरह, तो प्रेम प्रार्थना बन जाता है, तो प्रेम प्रभु तक ले जाने का मार्ग
बन जाता है, तो प्रेम जोड़ देता है समस्त से, सबसे, अनंत से।" ओशो का यह
दर्शन प्रेम को बहुत सुंदरता से व्यक्त करता है। प्रेम में होना जीवन की
सबसे विशिष्ट अवस्था है। सबसे ज़रूरी है जीवन में प्रेम होना। वह जो पूरे
चाँद की रात में झिर-झिर बरसता हुआ महसूस होता है, वह प्रेम होता है। वह
जिसे महसूस करके समुद्र की लहरें भी ऊपर उठने लगती हैं, वह प्रेम है। वह
सब, जो केवल महसूस ही किया जा सकता है। उसे पाँच इंद्रियों में से कोई भी
अनुभूत नहीं करता, केवल मन महसूस करता है वह प्रेम होता है। वह इंद्रियों
से परे है, इसीलिए गुलज़ार उसके लिए कहते हैं –हाथ से छूके इसे रिश्तों का
इल्ज़ाम न दो...। वह सुगंध जैसा है, रंगों जैसा है, रेशम जैसा है, शहद जैसा
है, मीठे स्वर जैसा है, ये पाँचों गुण उसमें हैं जो पाँचों इंद्रियों से
महसूस किये जाते हैं, मगर फिर भी वह इंद्रियों से परे है। क्योंकि यह
इंद्रियों से परे है, इसलिए आप जीवन भर प्रेम में रह सकते हैं, इसका जीवन
या उम्र की किसी विशिष्ट अवस्था से कोई लेना-देना नहीं है। हमें जीवन भर
प्रेम में रहना ही चाहिए। जब आप प्रेम में होंगे तभी आपको फूलों से लदे
गुलमोहर, कोहरे के धुँधलके में मौन खड़े नीले पर्वत, टूट कर बरसते हुए
बादल, वसंत और शरद की गुनगुनी रातों में खिला हुआ पूरा चाँद, जंगलों से
गुज़रती हुई पगडंडियाँ, ये सब अच्छे लगेंगे। इन सबको देखने के लिए मन की जो
आँखें चाहिए, वो आँखें प्रेम का स्पर्श पाकर ही खुलती हैं। प्रेम जब अपने
मोरपंखिया स्पर्श से मन को छूता है तो मन की पाँचों इंद्रियाँ जाग उठती
हैं। बाँसुरी का स्वर जब कानों से सुना जाता है, तो वह केवल एक वाद्य यंत्र
से निकला स्वर होता है लेकिन जब मन उसे सुनता है, तो वह परा ध्वनि होती है।
कृष्ण की बाँसुरी की परा ध्वनि। मगर मन तभी सुनेगा, जब प्रेम में होगा।
कृष्ण की बाँसुरी को बिना प्रेम के सुना ही नहीं जा सकता। ओशो जिसे प्रभु
कहते हैं, वह यही परा आनंद है, जो शरीर की इंद्रियों से महसूस ही नहीं किया
जा सकता। जब मन प्रेम का स्पर्श पाता है तो हम ओशो के अनुसार चौबीस घंटे
प्रेमपूर्ण होते हैं।
प्रेम में कभी कहा जाता था कि प्रेम में देह 'भी' हो सकती है, अब कहा जाता
है कि प्रेम में देह 'ही' हो सकती है। प्रेम अब केवल और केवल देह पर
केन्द्रित हो गया है। यदि हो गया है, तो क्या उसे हम प्रेम कहेंगे ? क्या
आप इसे भी प्रेम कहेंगे कि एक लड़का किसी लड़की से एक तरफ़ा प्रेम (....?)
करता है और लड़की की तरफ़ से नकारात्मक उत्तर पाकर उस पर तेज़ाब डाल देता
है। नहीं.... वह लड़का और किसी भी अवस्था में हो सकता है, लेकिन प्रेम में
तो कभी नहीं हो सकता। यह निश्चित रूप से नफ़रत की एक दूसरी अवस्था है। वह
लड़का केवल उस लड़की की देह को पाना चाहता था और असफल रहने पर उस देह को
मिटा देना चाहता है, विकृत कर देना चाहता है। यदि उसके बाद भी आप कहेंगे कि
वह लड़का एकतरफ़ा 'प्रेम' में था, तो माफ़ कीजिए आपकी बुद्धि और ज्ञान पर
संदेह होगा। प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे कहते हैं "प्रेम हमेशा कुछ पागलपन की
तरफ़ ले जाता है, लेकिन हर पागलपन में कुछ कारण अवश्य होता है।" प्रेम
हमेशा रचनात्मक पागलपन की तरफ़ ले जाता है। यह पागलपन सकारण होता है। इस
दुनिया को बहुत से पागलों की आवश्यकता है। दुनिया को पागलों की आवश्यकता
हमेशा पड़ती है। प्रेम में डूब कर पागल हो चुके लोगों की। वे पागल जो इस
दुनिया को बता सकें कि प्रेम किसी प्रकार परिवर्तन लाता है। यह जो
चित्रकार, कवि, शायर, गायक, संगीतकार, पर्वतारोही, फोटोग्राफ़र, रंगकर्मी
होते हैं, यह सब पागल ही तो होते हैं। प्रेम में आकंठ डूबे हुए पागल।
दुनिया को दूसरी तरह से देखते हुए पागल। दुनिया की सीधी और सुखकर राह को
छोड़कर तिरछी और कठिन राह पर चलते हुए पागल। कुछ रच देने, कुछ सृजन कर देने
के आनंद में डूबे हुए पागल। प्रेम एक यात्रा है, जो अनंत काल तक चलने वाली
होती है। इसमें यात्री कभी नहीं थकता। जब सिर पर जूनून, पागलपन सवार होता
है, तो पैर थकते ही नहीं हैं। इन प्रेमियों को बरसों पहले कबीर ने कहा "जो
घर फूँके आपना चले हमारे साथ" और ये उसी रास्ते पर निकल पड़े जिस पर कबीर
गए। प्रेम का रास्ता। वह रास्ता जहाँ शरीर कष्ट पाता है, लेकिन मन आनंद में
होता है। इस रास्ते पर चलने के लिए जुनून होना, पागलपन होना सबसे ज़रूरी
है। प्रेम में जुनून नष्ट करने का नहीं होता, प्रेम में बचाने का, बनाने का
होता है। जूनून जब नकारात्मक होता है, तो साइको किलर्स, बर्बर तानाशाहों,
अत्याचारियों को पैदा करता है, और जब सकारात्मक होता है तो अमीर ख़ुसरो,
कबीर, ग़ालिब, गांधी, ईसा, सुकरात, बुद्ध जैसे प्रेमियों को पैदा करता है,
इंसानियत के प्रेमियों को। दुनिया हिटलर को भी पागल कहती है, सनकी कहती है
और गांधी को भी, लेकिन हिटलर को घृणा के साथ पागल कहती है और गांधी को
प्रेम के साथ। प्रेम तो वह होता है, जिसमें प्रेमी उस पर एक खरोंच भी
बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिससे वह प्रेम कर रहा है। इसीलिए तो कुछ पागल लोग,
जो नदियों से, जंगलों से, पहाड़ों से प्रेम करते हैं, वो इनको बचाने के लिए
पूरा जीवन लगा देते हैं। जुनून की तरह। यह प्रेम है। यहीं पर आकर प्रेम
बहुत व्यापक अर्थ वाला शब्द हो जाता है। वह फैल जाता है। यह जो फैलाव है,
इसीको लेकर जिगर मुरादाबादी ने कहा है –'इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये
फ़साना है, सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है'। जब प्रेम फैलता है तो
वह किसी एक शरीर को पाने की चाह के रूप में नहीं रहता। असल में प्रेम कुछ
पाने के लिए नहीं होता, प्रेम तो बचाने के लिए होता है, मानवता को बचाने के
लिए।
प्रेम में पागल होना असल में करेक्ट हो जाना है। सुकरात, ईसा मसीह, बुद्ध,
गांधी, यह सब प्रेम में पागल थे। दुनिया कहती थी कि ये दुनिया को उल्टी तरह
से चलाने की कोशिश कर रहे हैं, पागल हैं। जबकि हक़ीक़त यह थी कि ये लोग
दुनिया को उस सीधे रास्ते पर ले जाने की कोशिश कर रहे थे, जो सही था। जिस
पर चलना लोग भूल चुके थे। ये पूरी दुनिया के प्रेम में पागल थे। इनके
पागलपन की मजनू के पागलपन से तुलना ही नहीं की जा सकती। मजनू का प्रेम
इब्तिदा थी और इन लोगों का प्रेम इंतिहा है। मजनू का प्रेम व्यष्टि है जबकि
इन लोगों का प्रेम समष्टि है। ये सब पागल प्रेमी दुनिया को हिंसा से दूर ले
जाने की कोशिश करते रहे। क्योंकि हिंसा के समाप्त हुए बिना प्रेम उपजेगा ही
नहीं। यह अलग बात है कि अंततः इन पागल प्रेमियों को हिंसा ने ही समाप्त कर
दिया। हिंसा हर युग में प्रेम को समाप्त करती रही है और करती रहेगी। इसलिए,
क्योंकि प्रेम के रहते उसका विस्तार, उसका फैलाव एकदम असंभव है। मगर यह भी
सच है कि हर युग में प्रेम को फैलाने के लिए कुछ जुनूनी, कुछ पागल आते
रहेंगे। और कहते रहेंगे –'इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी
आदमी थे काम के'। यह जो निकम्मा हो जाना है, यही तो प्रेम है, दुनिया जिसे
निकम्मा कहती है, प्रेम के लिये वही काम का आदमी होता है।
भगत सिंह ने लिखा था 'प्रेम हमें अंदर से सुंदर बनाता है"। यह अंदर से
सुंदर बनाने की जो प्रक्रिया है, यही प्रेम का सबसे मज़बूत पक्ष है। अज्ञेय
ने कहा था "दुख इन्सान को माँजता है" मुझे लगता है कि प्रेम भी यही करता
है। फिल्म अनाड़ी का मशहूर गीत "किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार" में
राजकपूर के पैरों के नीचे एक ग्रास हार्पर आ जाता है, राजकपूर का पैर हवा
में ही रुक जाता है, वो एक पत्ते पर उसे उठाते हैं और ले जाकर झाड़ियों में
छोड़ देते हैं। उस दृश्य को फिर से देखिये और देखिये राजकपूर के चेहरे के
भावों को। ऐसा लगता है कि कोई आकाश से उतरा हुआ फ़रिश्ता हो। यह प्रेम में
होने का परिणाम है। प्रेम ने माँज कर सुंदर बना दिया है। वही बात जो ऊपर
ओशो ने कही "प्रेम जोड़ देता है समस्त से, सबसे, अनंत से।" यह समस्त से
जुड़ाव ही है, जो एक कमज़ोर से ग्रास हार्पर को पैरों तले कुचलने से रोक
देता है। प्रेम सबको बचाना चाहता है। जो प्रेमी होता है, वो किसी एक के
प्रेम में नहीं होता, वो सबके प्रेम में होता है। एक से प्रेम से लेकर सब
से प्रेम तक की यात्रा को ही अंदर से सुंदर बनना कहते हैं। प्रेम हर समय
बचाने की जद्दो जहद में लगा होता है। मदर टेरेसा या गांधी तक की यात्रा
करते-करते प्रेम सारी दुनिया के दुख में हमें दुखी करने लगता है। यही सुंदर
होना है। तो फिर असुंदर कौन है ? असुंदर वह है जो दूसरों के सुख में दुखी
होता है और दुख में सुखी। सुंदर वह है जो दूसरों के सुख में सुखी और दुख
में दुखी होता है। प्रेम हमारे मन को साफ़ करने के लिए ग्लेशियरों से
पिघलता हुआ नीला पानी लाता है, हवा में फैले हुए परागकण लाता है, ऊँचे
पहाड़ों के शिखरों से चिनार, देवदार के सूखे पत्ते एकत्र करके लाता है, और
पूरे मनोयोग से हमें सुंदर बनाता है। इतना सुंदर कि सारी दुनिया हमें सुंदर
लगने लगती है। प्रेम की पाठशाला में, महब्बत के मदरसे में शिक्षित होने
वाला व्यक्ति ज्ञानी नहीं होता, विद्वान नहीं होता, वह सुंदर होता है, बस
और बस सुंदर होता है। अंदर से सुंदर। जब हम अंदर से सुंदर होते हैं, तो
हमें हर चीज़ सुंदर लगती है, हम सजीव-निर्जीव, हर चीज़ के साथ प्रेम में
होते हैं। हमें झरने, नदी, पहाड़, तालाब, सागर, जंगल सब अपने लगने लगते
हैं। जो अंदर से सुंदर हो जाएगा, वही इन्सान को केवल इन्सान के रूप में
देखेगा, न कि धर्मों, जातियों, सम्प्रदायों के आधार पर। और अंदर से सुंदर
होने के लिए आपको प्रेम में होना ही पड़ेगा। जब तक आप इन्सानों को धर्मों
और जातियों के नज़रिये से देख रहे हैं, तब तक मान कर चलिए कि आप और किसी भी
अवस्था में भले हों, पर कम से प्रेम में तो नहीं ही हैं। मन में जब गाँठ
लगी हो तो प्रेम का रेशम वहाँ हो ही नहीं सकता। रहीम ने कहा है –'जहाँ गाँठ
तहं रस नहीं यही प्रीति में हानि'। गन्ने में पूरे तने में मीठा रस होता
है, लेकिन ठीक उस जगह पर नहीं होता है, जहाँ गाँठ होती है। यह जो क्रूरता
की गाँठ है, यह आपके अंदर प्रेम के रस को सुखा कर समाप्त कर देगी। प्रेम का
रस और क्रूरता की गाँठ एक साथ किसी भी सूरत में नहीं रह सकते, 'प्रेम गली
अति साँकरी, जा में दो न समाय', वाला मामला है। आप एक साथ प्रेमी और क्रूर
दोनो नहीं हो सकते, हो ही नहीं सकते। आप एक साथ प्रेमी और हिंसक दोनों हो
ही नहीं सकते।
तो फिर एक लड़का और एक लड़की जिस आकर्षण से बँधे हैं, उसे क्या प्रेम नहीं
कहेंगे ? क्यों नहीं कहेंगे, कहेंगे, लेकिन यह भी देखना पड़ेगा कि यह प्रेम
बस उसी के साथ है, या उसके अलावा भी है। यह यात्रा केवल शरीर तक की है या
इससे पार अनंत के विस्तार तक की है। शरीर बहुत जल्दी थक जाने वाला मुसाफ़िर
है, जबकि मन तो अनथक यात्री है। जब सूफ़ी संत ख़ुदा के और मीरा कृष्ण के
प्रेम में होती हैं, तो यह प्रेम की अनंत अवस्था होती है। किसी एक से
विस्तार पाते-पाते उस तक पहुँच जाना जो अनंत है, जिसको किसी ने अब तक देखा
भी नहीं है। ओशो इसी को कुछ यूँ कहते हैं "जहाँ सीमा है, वहाँ अंत है, वहाँ
मृत्यु है। जहाँ सीमा नहीं है, वह अनंत है, वहां अमृत है। क्योंकि जहाँ
सीमा नहीं, वहाँ अंत नहीं, वहाँ मृत्यु नहीं।" हम किसी एक के प्रेम में
हैं, और वहाँ से हम यदि आगे नहीं बढ़ रहे हैं, तो हम कदमताल ही करते
रहेंगे, आगे नहीं बढ़ पाएँगे। प्रेम तो विस्तार का नाम है। प्रेम क्षितिजों
के उस पार नीहारिकाओं, आकाशगंगाओं तक फैलना चाहता है। उन सारी सूनी अँधेरी
ख़लाओं की यात्रा करना चाहता है, जहाँ आज तक कोई यात्री नहीं पहुँचा है। वह
अंतरिक्ष में गूँजते नाद की तरह हमेशा गूँजता रहना चाहता है। प्रेम
निरंतरता चाहता है, जो निरंतर नहीं है, वो प्रेम नहीं है। प्रेम आता है तो
फिर फैलता ही जाता है, वह रुकता नहीं है, मीरा कहती हैं न –'अब तो बेली फैल
गई आनंद फल होई'। एक लड़का और एक लड़की प्रेम में हैं, तो लड़के को कहना ही
होगा कि "चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो" और लड़की को उत्तर देना ही होगा
"हम हैं तैयार चलो"। यह जो चाँद के पार की यात्रा है, यही तो प्रेम है।
चाँद के पार जाना अर्थात् उन दिशाओं में जाना, जहाँ पदचापों की आहटें अभी
नहीं गूँजी हैं, जहाँ अभी किसी यात्री ने आकर अपना पड़ाव नहीं बनाया है।
प्रेम एक निरंतर खोज है, खोज उस सबकी जो अज्ञात है। जो अज्ञात को खोजता है
वही प्रेम होता है। मगर अब ऐसा नहीं है, अब यदि एक लड़का और लड़की प्रेम
में होते हैं, तो उनकी दुनिया और ज़्यादा सीमित होने लगती है। बाक़ी सब कुछ
उनके लिये अनुपस्थित हो जाता है। इसका मतलब यही है कि वे प्रेम की पहली ही
अवस्था में अटके हुए हैं, उससे आगे नहीं जा रहे हैं। एक-दूसरे की उपस्थिति
से शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों का नाम प्रेम नहीं है, वह तो
नितांत भौतिक क्रिया है, वह तो कमोबेश किसी की भी उपस्थिति से हो जाएगी,
उसका किसी एक ख़ास से कुछ लेना-देना नहीं है। आपको ऐसा लग रहा है कि 'एक्स'
की उपस्थिति से यह हो रहा है लेकिन 'वाय' या 'ज़ेड' के साथ भी आपको वैसा ही
होगा। सोशल मीडिया पर लव कोट्स का आदान-प्रदान, मोबाइल पर लम्बी-लम्बी
कॉल्स का अर्थ 'प्रेम में होना' जो लोग मान कर चल रहे हैं, उनको पता ही
नहीं कि वो प्रेम को कितने संकुचित दायरे में क़ैद कर रहे हैं। यह जो कुछ
है, यह एक तात्कालिक सुख है, क्षणिक आनंद है, यह निरंतर होने वाला या रहने
वाला नहीं है। जो निरंतर नहीं है वो प्रेम नहीं है। प्रेम आता है तो फिर
फैलता ही जाता है, वह रुकता नहीं है, मीरा कहती हैं न –'अब तो बेली फैल गई
आनंद फल होई'।
तो फिर प्रेम आख़िर है क्या ? अगर प्रेम को किसी एक परिभाषा में बाँधना ही
पड़ जाए, तो किस प्रकार बाँधा जाएगा? असल में तो प्रेम किसी एक परिभाषा में
बाँधा जा ही नहीं सकता। वह इतना अपार और अनंत है कि वह किसी एक परिभाषा के
दायरे में क़ैद हो ही नहीं सकता है। इसे हम 'गूँगे का गुड़' कह सकते हैं,
जो खा रहा है उसी को इसका स्वाद पता है, लेकिन पूछो, तो कुछ नहीं बता सकता
कि कैसा स्वाद है इसका। लेकिन बस यह समझना होगा कि जब तक आपको किसी पेड़
पर, किसी पौधे पर लगा फूल सुंदर लग रहा है, आप बैठ कर उसे निहार रहे हैं,
अपने अंदर आनंद को अनुभूत कर रहे हैं, तब तक आप प्रेम में हैं। वह जो अंदर
का आनंद है, वह आपके चेहरे पर भी दिखाई देगा, एक पारलौकिक आभा के रूप में।
लेकिन जैसे ही आपके अंदर उस फूल को तोड़ने का विचार आता है, उसे सार्वजनिक
से निजी करने का ख़्याल आता है, वैसे ही आपके चेहरे की आभा समाप्त होने
लगती है और क्रूरता चेहरे पर दिखाई देने लगती है। आप चाहते हैं कि इस फूल
को तोड़ कर अपने घर के गुलदान में सजाया जाए, कोट पर लगाया जाए, ज़ुल्फ़ों
में सजाया जाए। आप व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ रहे हैं। आप दो तरफ़ा
नुकसान कर रहे हैं, फूल तो मरेगा ही, साथ में आपके अंदर का प्रेम, आपके
अंदर का आनंद भी मर जाएगा। फिर जैसे ही आप उस फूल को तोड़ते हैं, वैसे ही
आप क्रूर हो जाते हैं और क्रूर व्यक्ति कभी प्रेम में नहीं हो सकता। जो
प्रेम में होगा, वह फूल तोड़ना तो दूर, फूल को हाथ लगाने के बारे में भी
नहीं सोचेगा। शाहिद कबीर ने इसी को लेकर कहा है –'रंग आँखों के लिये, बू है
दिमाग़ों के लिये, फूल को हाथ लगाने की ज़रूरत क्या है'। यही प्रेम है जो
कहता है कि फूल को हाथ लगाने की ज़रूरत क्या है। प्रेम यथास्थिति का आनंद
लेने की अवस्था है। जो कुछ जैसा है, जहाँ है, वहीं पर उसका आनंद लिया जाए।
प्रेम आनंद को निजी नहीं करना चाहता, वह चाहता है कि आनंद सार्वजनिक हो,
सार्वजनिक रहे। जब आनंद निजी से सबका होने लगे, तो समझना चाहिए कि हम प्रेम
में हैं।
प्रेम में होने का आनंद वही जानता है जो प्रेम में होता है। यहाँ "होता है"
का अर्थ पुल्लिंग नहीं है, यह प्रेमी के लिए है, प्रेमी जो स्त्री भी हो
सकता है और पुरुष भी। जो प्रेम में होता है, वो बरसात होते ही सब कुछ छोड़
कर भींगने निकल पड़ता है। देर रात तक जागता है, किताबें पढ़ता है और लगातार
सुनता रहता है, बेगम अख़्तर को, फ़रीदा ख़ानम को, जगजीत सिंह को, लता
मंगेशकर को। सुनता है और रोता है। रोता है आनंद के कारण। गुलज़ार को सुनता
है, गुलज़ार, जो कभी उसे समझ में आते हैं, कभी नहीं आते। जब समझ में आते
हैं तो रोता है, नहीं आते तो और ज़्यादा रोता है। ग़ालिब को पढ़ता है, जो
उतने ही समझ आते हैं जितना आटे में नमक, लेकिन ग़ालिब के शेर उसे याद हो
जाते हैं। उसे नहीं पता कि "आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है
तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक" का ठीक ठाक अर्थ क्या है, लेकिन वो इसे दिन भर
गुनगुनाता रहता है। छत पर खड़े होकर दूर डूबते हुए सूरज को टकटकी बाँधे
देखता रहता है। फिर रात को छत पर लेट कर चाँद को देखता है। सबसे लाल तारे
मार्स को देखता है और उसके आकर्षण को अपने अंदर महसूस करता है। सबसे चमकीले
तारे शुक्र को अपनी उँगलियों से सहलाता है, और उँगली के सिरे पर अंगारे की
जलन महसूस करता है। किसी तेज़ गति से जाते पुच्छल तारे पर सवार होकर मार्स
पर चला जाता है, वहाँ अपने अंश तलाश करता है। यह सब उसके लिए आनंद का कारण
होते हैं। वह बार-बार अपने आप से पूछता है कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ, और
बार-बार उसके अंदर से एक ही उत्तर आता है- अभी तुम प्रेम में हो, अभी तुम
प्रेम में हो, अभी तुम प्रेम में हो...।
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