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स्मृति लेख : स्व. मृदुला सिन्हा जी
“आँख
नम और हृदय बोझिल शब्द कहाँ से लाऊँ” डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ अधिक दिन नहीं हुए । पिछले वर्ष की ही तो बात है। मैंने आवश्यक कार्य हेतु उन्हें फ़ोन किया था। कुछ काम की बात करनी थी । बात ख़त्म होने के बाद उन्होंने कहा- “विवाह दिवस की बधाई नहीं दोगी?” मैं सफ़ाई पेश कर पाती उसके पहले ही उनकी आवाज़ आई “अरे कोई बात नहीं, मुझे पता है कि आप बधाई देने ही वाली थीं , मैंने ही पूछने में जल्दबाज़ी कर दी।” उन्होंने मुझे सहज करते हुए आगे कहा - “और कितने वर्ष हमें सालगिरह मनाते हुए देखना चाहती हैं आप ?” “भाभी जी, कम से कम १०-१५ वर्ष और।” मेरा उत्तर था । “बस इतने ही दिन ! हम तो २५ वर्ष और मान कर चल रहे हैं ।” उनकी हँसती हुई आवाज आई। मृदुला सिन्हा, नाम लेते ही आँखों के समक्ष एक सौम्य और कोमल व्यक्तित्व घूम सा जाता है । सफेद दूधिया बालों के बीच सिंदूर की पतली सी लकीर और माथे पर दमकती हुई बड़ी सी लाल बिंदी। मृदुल, कोमल, सरल और सहज व्यक्तित्व और व्यक्तित्व को परिभाषित करता हुआ नाम ‘मृदुला’। कहते हैं कि ईश्वर के घर में भी भले लोगों की अधिक आवश्यकता होती है। 18 नवंबर 2020 को बुला लिया उन्हें अपने पास । हम दोनों कई रिश्तों में बंधे थे । रिश्ते में वह मेरी जेठानी थीं, पर उम्र और व्यवहार में माँ जैसी । आदर इतना कि उनकी पुत्री की उम्र की होने के बावजूद हमेशा उन्होंने मुझे आप कहकर सम्बोधित किया। अपनी मेहनत और काबिलियत के बल पर बिहार के एक स्कूल मास्टर की बेटी से यात्रा प्रारम्भ कर साहित्य, समाज और राजनीति तक का सफ़र पूर्ण किया। हर क्षेत्र में ख्याति हासिल करते हुए सदा लोक कल्याण के कार्य में संलग्न रहीं और अंततः गोवा की गवर्नर के पद से सेवानिवृत्त हुईं। भारतीयता उनकी रग-रग में बसी थी। संस्कारों को जीना और भारतीय परंपरा को जिन्दा रखना कोई उनसे सीखे। मिथिला में रिवाज है कि पर्व-त्योहार या शादी के अवसर पर बेटियों को लाल चंगेरा (बाँस की चौड़ी वाली टोकरी) में संदेश भेजा जाता है जिसमें खाने-पीने का सामान होता है। आज के ज़माने में भी मृदुला जी अवसर खोज लेती थीं और चंगेरा को लाल कपडे से सजा कर दिल्ली में बसे रिश्तेदारों को संदेश भेजा करती थीं। दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए भी मिथिला के रीति-रिवाजों को जिंदा रख मिथिला की बेटी होने का फर्ज निभाया। मेरा सौभाग्य रहा कि उनके साथ समय व्यतीत करने का अवसर मुझे अक्सर प्राप्त होता रहा और वे मुझे अपने स्नेह से स्नेह सिक्त करती रहीं। मृदु भाषी ऐसी कि पिछले 30 वर्षों में मैंने उन्हें कभी तैश में आते नहीं देखा। शुरू से ही मैं उनकी लेखनी की क़ायल रही हूँ। उनकी कहानियों में मिट्टी की वह सोंधी खुशबू थी जिसे मैं गाँव में छोड़ हैदराबाद आ गई थी। उनकी कहानियों के माध्यम से अनजाने ही मैं उन ख़ुशबुओं की ओर खिंची चली जाती। उनके कहानी संग्रह ‘एक दीये की दिवाली’ पढ़ते वक्त मेरा गाँव और वे सारे रिश्ते मेरे समक्ष होते। शायद यही कारण था कि एमफिल के उपरांत जब पीएचडी करने की बारी आई, तो मृदुला सिन्हा के अलावा मुझे अन्य कोई नाम नहीं सूझा। “मृदुला सिन्हा का स्त्री विमर्श” विषय पर मैंने शोध प्रारम्भ किया। इस बात का पता चलते ही उन्होंने तुरंत मुझे फोन किया और कहा कि गोवा विश्वविद्यालय में उन पर द्वि-दिवसीय सेमिनार का आयोजन हो रहा है। मैं भी वहाँ आ जाऊँ ताकि मुझे मेरे पीएचडी विषय से संबंधित सामग्री मिल जाय। सदा सकारात्मक सोच रखने वाली मृदुला सिन्हा जी स्त्री को विशेष मानती थीं। पुरुष के साथ स्त्री की तुलना करना उन्हें क़तई पसंद नहीं था। पुरुष के साथ प्रतिस्पर्धा में पड़कर वह स्त्री सुलभ गुणों को खोने की हिमायती कभी नहीं रहीं। स्त्री को विमर्श की वस्तु न मानने वाली साहित्यकार के साहित्य में स्त्री विमर्श खोजना मेरे लिए एक चुनौती का कार्य था। परन्तु मुझे यह चुनौती सहर्ष स्वीकार्य हुई और मैंने यथाशक्ति इस विषय से न्याय करने की कोशिश की है । ३ दिन गोवा राजभवन में रहकर पता चला कि इतने बड़े पद पर रहने के बावजूद कोई इतना सरल और सरल भी हो सकता है । आप वहाँ भी न सिर्फ़ राज्यपाल थीं, बल्कि एक कुशल गृहिणी की तरह रोज़ सुबह ७ बजे ख़ानसामा को सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक के मेन्यू बताना अपना कर्तव्य मानती थीं । सभी अतिथियों का ख्याल रखना और उनके साथ इतनी आत्मीयता से पेश आना कि उन्हें एहसास ही न हो कि वे राजभवन के मेहमान हैं। इस तरह के अनुभव से मैं अब तक अनभिज्ञ थी। मेरे लिए यह अचंभित करने वाली बात थी, क्योंकि मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है जिनके पति उच्च सरकारी पद पर आसीन होते हैं और पत्नी स्वयं को महारानी से कम नहीं आंकती! प्रकृति से प्रेम करना मनुष्य की संवेदना को दर्शाता है । प्रकृति प्रेमी कई लोग होते हैं परंतु रोज़ अनगिनत पेड़-पौधों को निहारना और उसमें आए बदलाव को चिह्नित करना सबके बस की बात नहीं । मैंने देखा है, उन्हें रोज़ सुबह राजभवन के कम्पाउंड में प्रातः भ्रमण के दौरान पेड़ों को निहारते और उनमें आए बदलाव को चिह्नित करते। राजभवन में उनके निर्देश पर लगाए गए सब्जियों के बाग में गोभी , बड़े बड़े बैंगन , भिंडी आदि कई प्रकार की हरी सब्ज़ियों की ओर बंद मुट्ठी के माध्यम से इशारा करके दिखाना आज भी आँखों से ओझल कहाँ हो पाया है! आप पेड़ पर लगे फल-फूल को उंगली इसलिए नहीं दिखाती थीं क्योंकि लोक मान्यता के अनुसार पेड़ों और फलों की ओर उंगली से इशारा करने पर फल या फूल सूख जाते हैं। आप अन्धविश्वासी बिल्कुल नहीं थीं, परंतु प्रकृति प्रेम के प्रति विवश अवश्य थीं। मैं उनके इस प्रेम के प्रति नतमस्तक हूँ । प्रकृति प्रेम और लोक सेवा भाव ही था, जो आपने फूलों की जगह फल की टोकरी भेंट स्वरूप लेना स्वीकार किया। उनके द्वारा भेजे गए गोवा राजभवन के आम का स्वाद आज भी जिह्वा पर ताजी है। सुबह चार बजे से उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती । ७ बजे तक लिखने का कार्य उसके बाद देश और समाज की ज़िम्मेदारियों को पूर्ण करना उनका रोज का कार्य होता था । मैंने पूछ लिया एक दिन - “आप कैसे लिख लेती हैं इतना , मैं ऐसा चाह कर भी क्यों नहीं कर पाती हूँ?” मैंने अपनी विवशता व्यक्त की । इस पर बड़ी ही सरलता से उन्होंने कहा था - “अभी आप हरवाह हैं। गृहस्थी के खेत को सींचने और बोने में लगी हैं। जब यह बीज फल देने लगेगा, तो आप भी बेफ़िक्र होकर मेरी ही तरह लिख लेंगी।” कितना संतोष मिला था सुनकर। मैं भी जीवन के प्रति आशान्वित हो गई। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि जब भी मन में कोई विचार कौंधे, उसे उसी वक्त पन्ने पर उतार लेना चाहिए, क्योंकि बाद में स्मृति धूमिल पड़ जाती है। रिश्तों को जीना कोई उनसे सीखे। मैं भी सीखने की कोशिश ही कर रही थी अभी। उनसे बात करके आत्मसंतुष्टि तो मिलती ही थी, साथ ही सारे बुरे विचार ख़त्म हो जाते थे । पति-पत्नी के बीच इतना प्यार कि अपने ही अनुभव से कई किताबें लिख डालीं। पति-पत्नी के सम्बन्धों पर आधारित “दाम्पत्य की धूप-छाँह” उनके स्व-अनुभव पर आधारित है, जो भारतीय नव दंपतियों के लिए प्रेरणास्रोत है। मेरे पूछने कि हम पति-पत्नी आप लोगों की तरह क्यों नहीं रह पाते हैं और न चाहते हुए भी छोटी-छोटी बातों पर मनमुटाव क्यों होता रहता है, का उत्तर उन्होंने बड़ी सरलता से दिया था- “अभी आप लोगों का एक ही कॉमन इंटरेस्ट है और वह है बच्चे। इस उम्र में पति-पत्नी के बीच अधिकतर लड़ाइयाँ बच्चों के लिए ही होती हैं। दोनों ही प्राणी बच्चों की भलाई अपने अपने तरीके से करना चाहते हैं। और यही ‘अपना तरीका’ मनमुटाव का कारण बनता है।” कितनी सच्चाई थी उन बातों में और कितना व्यावहारिक भी। पति-पत्नी के बीच के मतभेद में अपना स्वार्थ कहाँ होता है? अधिकतर दूसरों के लिए ही तो मतभेद होते हैं। वे अपने पति डॉ रामकृपाल सिन्हा को अक्सर मज़ाक में ‘सास का बेटा’ कहकर सम्बोधित करतीं जो मुझे बहुत भाता था। भाई साहब (डॉ रामकृपाल सिन्हा) को जब भी कुछ कहना होता, तो भाभी जी (मृदुला सिन्हा) को कहने के लिए कहते। कहानी सुनाते हुए वह प्यार से कहतीं- “देखो न एक ही बात को बार बार कहलवाते हैं । क्या करूँ, जब अपने बेटे की बात मानती हूँ तो सास के बेटे का मन भी तो रखना ही पड़ेगा न।” और मुस्कान की फुहार चेहरे पर फैल जाती। गोवा राजभवन में साथ बिताया हरेक क्षण मेरी स्मृतियों में बसा हुआ है। मिथिला के तरीके से कटहल के बड़े (कटलेट) वाली सब्जी और सत्तू की रोटी बनाने की फरमाइश मुझसे करना और कहना कि इन लोगों (राजभवन के रसोइये) के हाथ से वह वाला स्वाद नहीं आता और रसोइये को बुलाकर प्यार भरी हिदायत देना कि “आप मेरी देवरानी से सीख लीजिए, नहीं तो आपकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।” उनकी आत्मीयता को दर्शाता है। कटु शब्द निकालना और किसी की बुराई करना जैसे उन्हें आता ही न था। उन्होंने कहा था मुझे कि- “तारीफ़ के शब्द व्यक्ति तक पहुँचने की कोई गारंटी नहीं है, परन्तु यदि आपने किसी की शिकायत की, तो वे लफ्ज़ घुमाफिराकर कभी न कभी उस व्यक्ति तक अवश्य पहुँच जाएँगे । साथ ही यह भी संभव है कि आपके द्वारा कही हुई बातों के अलावा अन्य कई ग़लत बातें भी जुड़ जाएँ।” मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे ऐसे व्यक्तित्व का सान्निध्य मिला। गवर्नर बनने के उपरांत वे अपने पतिदेव के ननिहाल यानी सास के मायके जानीपुर गईं। सौभाग्य से मेरा ससुराल भी उसी परिवार में है। मेरे ससुर जी राजदेव मिश्रा उनके पति डॉ. रामकृपाल सिन्हा के रिश्ते में मामा लगते थे। इसी रिश्ते से मेरे पतिदेव उनके देवर और मैं देवरानी हुई। मेरी सासु माँ डॉ. अहिल्या मिश्र को वे 'मामी जी' कहकर सम्बोधित करती थीं । उम्र एवं पद दोनों में स्वयं उनसे बड़ी होने के बावजूद सार्वजनिक स्थान हो या मंच कभी भी उन्हें मामी जी कहकर चरण स्पर्श करने से नहीं चूकीं। उनके बड़प्पन का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं। जानीपुर पहुंचते ही सब लोग उनके औपचारिक स्वागत और आवभगत में लग गए। स्वाभाविक है एक राज्यपाल की ख़ातिरदारी में वे कोई कसर नहीं रखना चाह रहे थे। परन्तु मृदुला सिन्हा जी ने जाते ही कह दिया- “देखिए आगत-स्वागत की ज़रूरत नहीं है। पहले खाना खिलाइए, जोर से भूख लगी है।” उनकी इस सरलता पर सब नतमस्तक हो गए। उनका सरल व्यवहार सिर्फ़ घर तक ही सीमित नहीं था। मंच पर भी वे वैसी ही थीं। सीतामढ़ी में मंच पर भाषण के दौरान जब उन्हें पता चला कि मेरी बड़ी बहन वहाँ आईं हुई हैं तो उन्होंने झट से उन्हें स्टेज पर बुला लिया और इतने प्यार से मिलीं कि मेरी बहन भावविभोर हो गईं। प्रथम महिला गोवा बनने से पूर्व भी वे चाहे पार्टी के कार्य से हैदराबाद आएँ या संस्थागत कार्य से , अक्सरहाँ वे हमारे पूरे परिवार के साथ एक रात या कुछ समय अवश्य गुज़ारतीं । इस प्रकार वे रिश्तों को जीती और स्नेह बाँटती रहीं । कितनी बातें कितनी यादें , क्या कहूँ क्या छोड़ूँ! शायद पृष्ठ कम पड़ जाएँ। ऐसा व्यक्तित्व जिन्होंने रिश्ते और मानवता को सबसे ऊपरी पायदान पर रखा। आजकल वे मुझे डॉ. के साथ सम्बोधित करने लगीं थीं। मेरे मना करने पर कहतीं- “क्यों नहीं , आप इतनी मेहनत करके डॉ. बनी हैं, तो मैं बुला भी नहीं सकती क्या?” और मैं चुप हो जाती । मिथिला की बेटी मिथिला के रीति-रिवाज को सदा प्राथमिकता देती रहीं। लोक संगीत, लोक पर्व में उनकी जान बसती थी। उनके मुख से वगैर लोक गीत की पंक्ति सुने उनका वक्तव्य मुझे अधूरा लगता । कादम्बिनी क्लब के रजत जयंती समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर वह आमंत्रित थीं। कार्यक्रम से पहले उन्होंने मुझे चुटकी लेते हुए कहा था- “अब मैं स्टेज से गीत नहीं गाऊंगी , गवर्नर बन गई हूँ न , शोभा नहीं देता।” परंतु कार्यक्रम में जैसे ही भाषण ख़त्म हुआ कि उनकी सुरीली आवाज़ गूंजने लगी- ”अपना किशोरी जी के टहल बजेबै हे मिथिले में रहबै, हमरा ने चाही चारों धाम हे मिथिले में रहबै ......।” साथ ही यह कहने से भी नहीं चूकीं कि “यह गीत मैं मेरी देवरानी के लिए गा रही हूँ।” मेरे पुत्र आर्यव मिश्रा के उपनयन संस्कार के वक्त ग्रामीण महिलाओं के झुण्ड में बैठकर जनेऊ, सोहर, बधाई जैसे कई संस्कार गीत गाकर उपनयन संस्कार को संगीतमय बना दिया। उस वक्त आप महिला मोर्चा के अध्यक्ष के पद पर सुशोभित थीं। वहाँ उपस्थित सारे अतिथि यह जानकर अचंभित थे कि बचपन से हॉस्टल में रहनेवाली और आज इतने बड़े पद पर होने के बावजूद इतनी सरल और व्यावहारिक कैसे हो पाईं । लोकाचार का ज्ञान कहाँ से आया! वह अकसर मुस्कुराते हुए कहा करतीं कि पोता अमेरिका में है, तो क्या हुआ जनेऊ तो करना ही है । यदि जनेऊ नहीं होगा, तो मेरा गीत गाने का शौक कैसे पूरा होगा।” उन्होंने दोनों पौत्रों का दिल्ली में पूर्ण पारम्परिक तरीके से जनेऊ किया जिसमें हमारा परिवार भी शामिल हुआ था। क्या याद करूँ, क्या भूलूँ । बहुत कम साहित्यकार होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक सी होती है। मृदुला सिन्हा जो कहती थीं, वही लिखती थीं और उनके मंच से भाषण और प्रत्यक्ष वार्तालाप में कोई अंतर नहीं था। ऐसा अकसर कम ही देखा जाता है। उनके साथ ऐसा इसलिए था क्योंकि वे ऊपर से नीचे और अंदर से बाहर तक एक समान थीं । पूर्णतः असली , कहीं कोई बनावट नहीं । उनके पुत्र नवीन जी के माध्यम से जैसे ही पता चला कि वे अस्पताल में हैं और सुधार की सम्भावना कम है, मेरे स्मृति-पटल पर उनकी कही हुई ढेर सारी बातें और उनके संग बिताए हुए कई-कई अनमोल क्षण ऊभ-चूभ करने लगे। मेरे लिए स्वयं की भावाभिव्यक्ति को रोकना कठिन था। अतः मैंने लेखनी का सहारा लिया । परंतु क्या लिखूँ क्या कहूँ ? उनकी शादी की पिछली सालगिरह (२०२०) पर अपना घूँघट वाला फ़ोटो भेजकर मुझसे पूछना कि “दुल्हन को देखीं आप ? ७६ वर्ष की आयु वाली दुल्हन ने आपकी दी हुई साड़ी ही पहनी है और उसने मुँह दिखाई भी ली है...” या राजभवन में अपने कमरे की सैर कराते हुए कहना कि यह अपना घर थोड़े ही है, देश की अमानत है। फिर इतना क्या इतराना?” या यह कहना कि “पौराणिक पात्र जैसे सीता, सावित्री, मंदोदरी, अहल्या और तारा पर उपन्यास लिखने के दौरान ये पात्र मेरे सपने में आकर मुझे अपनी कहानी बताकर मुझे लेखन में सहयोग देते हैं...", या किताब लिखने के बाद मुझे भेजकर पूछना कि “किताब पढ़ी या नहीं .. कैसी लगी ..?”, या फिर मुझे मेरे कार्यों के लिए हमेशा प्रोत्साहित करना और कहना कि “आप फ़िक्र न करें आपकी उम्र में मैं भी ऐसी ही थी।” अविस्मरणीय यादें , शब्दों में समेटना कहाँ आसान है। हृदय को संवेदनाओं के बादल ने घेर रखा है। विश्वास करने का मन नहीं हो रहा कि सबकी सेवा में संलग्न रहने वाली ने अपनी सेवा का अवसर तक किसी को नहीं दिया और इस दुनिया से सदा के लिए विदा ले लीं। बस मानस-पटल पर अपनी मधुर स्मृतियों को अवश्य छोड़ गईं। आप सदा ही मेरी प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगी । आपकी बातों को आत्मसात् कर उसे अपने व्यवहारिक जीवन में उतार सकूँ यहीं श्रद्धांजलि मैं उन्हें अर्पित करना चाहती हूँ ।
डॉ. आशा मिश्रा
‘मुक्ता’ |
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