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रज़ा के चित्र और उनकी भारतीयता

मनीष पुष्कले

जो भी भारत में जन्मा है, सैद्धान्तिक रूप से वह भारतीय है. किसी-के जन्म के साथ सबसे पहले उसका यह विशेषण ही जन्मता है. उसकी संज्ञा, सामाजिक उपज है.
अगर मामला राजनीतिक या धार्मिक न हो तो सामान्य तौर पर हम सभी अपने रोजमर्रा के जीवन में से, अपनी सुध में अपनी कौम या जातीयता को तो भुलाए रहते हैं लेकिन किसी-न-किसी निमित्त से हमारे मानस में राष्ट्र-चेतना या हमारे अंतर्मन में अपने देश की याद लगातार बनी ही रहती है. किसी के भी मनोजगत की अंतश्चेतना में इस नैतिक स्वत्व का होना स्वाभाविक है. हम यह मान सकते हैं कि अपने ही देश में स्वयं की राष्ट्रीयता को बताने के पीछे, उसकी अनावृत्ति के लिए किसी-न-किसी सन्दर्भ या प्रयोजन का होना आवश्यक होता है, उसे अन्यथा उजागर करने का कोई विशेष अर्थ नहीं है. आत्म-परिचय के सन्दर्भ में, उसमें निहित आध्यात्मिक मंतव्य और उसके विमर्श को हटाने से यह बात इस सामान्य से प्रश्न से सिद्ध हो जाती है कि अगर कोई हमसे पूछे कि 'तुम कौन हो?' इस प्रश्न के अपेक्षित उत्तर में, परिचय की अभिधात्मक ध्वनि में संभवतः व्यक्ति-नाम ही होगा. लेकिन इस प्रश्न का मायना तब एक विशेषता में बदल जाता है जब किसी ने उसे विदेश में पूछा हो. उस सन्दर्भ में, उसके समाधान की ध्वनि में प्रथमतः अपनी राष्ट्रीयता का स्वर ही सुनाई देगा. देशांतर में प्रश्न वही है, लेकिन उसके उत्तर की कैफ़ियत में निहित संज्ञा स्वाभाविक रूप से एक विशेषण में बदल जाती है. यहाँ, आलाक्षित जब आकर्षक हो जाता है, तो उस क्षण विशेष की प्रतिक्रिया में व्यक्ति की आइडेंटिटी में से नाम की मुख्यता को उसके स्थान की प्रमुखता विस्थापित कर देती है. परिचय की इस विडंबना में वैयक्तिकता और राष्ट्रीयता की युति, पहचान के उद्देश्य और उद्द्घटन के मध्य घटती इस सूक्ष्म उपेक्षा से तत्काल ही एक तनाव उत्पन्न करती है.

उदाहरण के लिए जैसे हमारे समय के मूर्धन्य चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के परिचय में अक्सर "भारतीय' शब्द को एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. प्रसंग चाहे देश का हो या विदेशों का, उनके संबोधन में अक्सर लिखा जाता है - "भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा". हालांकि, अपने आप में यह विशेषण तभी तक उपयुक्त है जब तक वे विदेश में हैं, अन्यथा अनजाने ही भारत में प्रयुक्त होते इस विशेषण के उपयोग का कोई ख़ास औचित्य नहीं रह जाता. लेकिन, मैं मानता हूँ कि रज़ा के सन्दर्भ में यह बात कुछ 'अलग' है. क्योंकि उनके प्रसंग विशेष में संज्ञा और विशेषण के अर्थों के मध्य कोई तनाव नहीं है, इसलिए, चाहे वह देश में हो या विदेश में, उनकी वैयक्तिकता में उनके नाम के समक्ष यह वैशेषिक प्रमुखता कोई-भी वैसी बाधा पैदा नहीं करती जिसका उल्लेख मैंने अभी-अभी ऊपर किया है. हम अभी एक निर्बाध आइडेंटिटी के विचार को रज़ा के इस उदहारण में निहित देशान्तरों के निमित्त से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, इसके लिए, मैं, उनके सन्दर्भ में 'अलग' की इस अनोखी अलोकिकता को ठीक से समझने के लिए पहले उनकी कुछ ऐसी बातों को जानना-समझना जरूरी समझता हूँ जिनसे उनकी मानसी-प्रवृत्ति, चित्त-वृत्ति और भाव-समष्टि बनती है.
हम सभी यह तो जानते ही हैं कि वे जन्मे, पले-बड़े और शिक्षित तो हुए भारत में, लेकिन उसके बाद अपने जीवन की लम्बी अवधि को उन्होंने फ्रांस में व्यतीत किया था. इस लेख के आगे की भूमिका के लिए यहीं पर यह भी जान लेना आवश्यक है कि धर्म के आधार पर १९४७ में भारत के विभाजन के दौरान रज़ा के परिवार के अधिकाँश लोगों और उनके अन्य सगे-संबंधियों ने पकिस्तान जाना ही उचित समझा था. विभाजन की विभीषिका से उठे विस्थापन के दर्द को रज़ा ने अपने जीवन में सबसे पहले इसी समय में महसूस किया था. आकुलताओं के इस समय में रज़ा की उम्र २५ बरस की थी. वे इस दौरान मुंबई में बस चुके थे और प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना हो चुकी थी. अराजकता के उस माहौल में, अपनी पारिवारिक उथल-पुथल और उनसे संबंधित दबावों को दरकिनार करते हुए, उन सबकी इच्छा के विपरीत जाकर रज़ा ने भारत में ही रहना चुना था. क्योंकि, अपने परिवार से भारत में वे अकेले बचे थे, इस प्रकार से उनके जीवन में तो 'बसना' और 'बचना' एक अविभाज्य क्रम हो गया था, लेकिन उनके मानस में १९४७ की इस घटना ने सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि उनके परिवार में भी विभाजन की एक रेखा खींच दी थी. उनका भविष्य अब उनके जीवन और उसके रचनात्मक प्रसंगों, दोनों ही में उनके लिए रेखा, विभाजन और परिवार की नयी परिभाषाएँ लिए खड़ा था. जिसमें अमान्य, अनुचित, असंगत और असमर्थनीय के बरक्स मान्य, उचित और अनुसमर्थनीयता के स्वतंत्र मंतव्यों को स्थापित होना तय था. उनके चित्रों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि विभाजन के अनुभव की यह रेखा एक आत्म-प्रतिष्ठ रूपक की तरह उनके चित्रों के सौंदर्य-बोध में अंत तक बनी रही.
देश के विभाजन की इस विभीषिका के चार वर्ष बाद सन १९५१ में रज़ा के सामने जब एक बार फिर देश से बाहर जाने का अवसर आया, इस बार उनका उद्देशित निर्गम उनके अनपेक्षित निर्गमन का कारण बन गया. क्योंकि इस प्रस्थान के पीछे उनका उद्देश्य उच्च-शिक्षा थी और जब उन्होंने फ्रांस की प्रख्यात कला संस्था 'एकोल द' बोर्जा' में दाखिला लिया तो उन्होंने नहीं सोचा था कि वे वहीँ बस जायेंगे. वे वहाँ गए तो थे एक विध्यार्थी की हैसियत से लेकिन ठीक ५० वर्षों के बाद २०११ में हम सभी ने देखा है कि वे भारत वापिस लौटे थे एक कला आचार्य की तरह. इस प्रकार से वे आधी सदी के लम्बे समय तक भारत से दूर तो रहे, लेकिन यहाँ से अपनी बात को आगे बढ़ाने के लिए मैं अगर उन्ही के शब्दों में कहूं तो विस्थापन के इन ५० वर्षों तक उन्होंने भारत से अपना 'आत्म-ग्राही' सम्बन्ध सतत बनाए रखा. संभवतः इसी सम्बन्ध की परस्परता के कारण इतने वर्षों तक विदेश में रहकर भी रज़ा अपनी तासीर में कभी-भी दूसरे कुंठित अप्रवासी भारतीयों जैसे भारत के प्रति उदासीन नहीं हुए. बल्कि, उन्होंने इन्हीं वर्षों में अपने चिंतनशील मानस से अपने उद्वासन की पीढ़ा और अनावासितता की रिक्तीयों में 'भारतीयता के बोध' की प्रतिस्थापना की है. इस सम्बन्ध ने ही रज़ा के मानस में अपने देश और उसकी संस्कृति के प्रति एक विशेष तरह का अनुराग पैदा किया जो विशुद्ध 'भारतीय' था. प्रश्न अब यह है कि भारत के सन्दर्भ में रज़ा का यह 'आत्म-ग्राही' सम्बन्ध आखिर क्या था ? वह सम्बन्ध, जिसकी अनुपस्थिति में अन्यथा आत्म-ग्लानि की कुंठा से ग्रसित अधिकाँश अप्रवासी भारतीयों के मानस-वैचित्रत्य को आसानी से देखा जा सकता है.

वैसे तो १९५० के दशक की यूरोपीय चकाचौंध और उसके अत्याधुनिक प्रलोभन ककैया, दमोह और मंडला जैसे पिछड़े ग्रामीण अंचलों से नागपुर और मुंबई से समुद्र के रास्ते पेरिस पहुंचे एक भारतीय युवा को दूसरों की तरह अपने पाश में फांसने के लिए अपने-आप में काफी थे, लेकिन वैसा हुआ नहीं. उनकी भारतीय ग्रामांचल संवेदना ने सतही यूरोपीयन कोस्मोपोलिस समाज के बीच 'स्वदेश' को बचाए रखा. उन्होंने फ्रांस में ५० वर्षों तक रहते हुए समय-समय पर अपनी नागरिकता और राष्ट्रीयता के बीच पनपते तनावों के मध्य बिना किसी समझौते के गरिमा से जिया. स्वदेश से उनके इस 'आत्म-ग्राही' सम्बन्ध ने उनके मानस को विदेश के काल में ढहने से, कुंठाओं से बचाए रखा.

आगे की बात हो समझने के लिए हमें यह भी याद रखना होगा कि रज़ा १९५१ में जब फ्रांस गए तो उनके साथ अब के जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय चीनी चित्रकार 'जाव वू की' भी उसी जहाज पर सवार थे. दोनों ने ही एकोल द' बोर्जा से अपनी शिक्षा के पश्चात पेरिस में ठहर कर काम करने का रास्ता चुना और दोनों ने ही एकोल द' बोर्जा की अपनी सहपठिनीयों से विवाह किया. इस प्रकार से दोनों ही के पास विधिवत रूप से फ्रांस की नागरिकता पा सकने के अवसर खुले थे. जाव वू की ने तो फ्रांसिसी नागरिकता ग्रहण कर ली लेकिन रज़ा ने कभी नहीं. फ्रांसिसी नागरिकता को पाने के बाद जाव वू की के समक्ष वहाँ के सरकारी अनुदानों और संग्रहालयों के दरवाजे स्वाभाविक रूप से खुल गए थे, वहीँ 'प्री दे ला क्रिटिक' जैसा महत्वपूर्ण पुरूस्कार को पा लेने के बाद भी पेरिस के भव्य गलियारों में भविष्य रज़ा के सामने अलग तरह का संघर्ष लिए खड़ा था. यूरोप के इस बेहद महत्वपूर्ण पुरस्कार से मिली पहचान के बावजूद रज़ा की राहें मुश्किलों और भेदभावों से उपजीं अनेक प्रकारों की अड़चनों से भरी रहीं, जिनके पीछे का प्रमुख कारण संभावनाओं के होते हुए भी उनके द्वारा फ्रांसिसी नागरिकता को न स्वीकारना ही था. साथी मित्रों और पत्नी जनीन मोंजिला से हुए उसके पत्राचारों में उन्होंने समय-समय पर उन अड़चनों का उल्लेख खुल के किया है.

६० के दशक तक पैरिस ही कलाओं की विश्व-राजधानी थी. जिसके गलियारों में टहलते दुनिया भर के महत्वपूर्ण लेखक, चित्रकार, फिल्मकार, संगीतज्ञ, विचारक, विज्ञापन और फैशन परस्त उपस्थितियों ने विश्व-फलक पर पैरिस को आधुनिक नव-चेतना का एक ऐसा केंद्र बना दिया था जिसमें नवाचार अपने पारंपरिक मूल्यों से खुले-आम विमर्श और विवाद कर सकता था. लूव्र और नोत्र'दाम के समक्ष पोम्पेदु सेंटर जैसी संस्था का स्थान पैरिस में ही संभव हुआ था. पैरिस की समावेशी आबो'हवा के रुख के साथ खड़ा होना तो संभव था लेकिन उसके खिलाफ खड़े हो सकना आसान नहीं था. इस सच्चाई को समझते हुए भी फ्रांसिसी नागरिकता को स्वीकार न करके रज़ा एक तरह से इस हवा के रुख से तठस्थ बने रहे. एक यूरोपियन मानस, खिलाफत, समर्थन या उदासीनता के अर्थों को तो भली-भाँती समझता है लेकिन तठस्थतता के भारतीय मंतव्य को ठीक से समझ पा सकने का विवेक उसके पास नहीं है. रज़ा की तठस्थतता में विदित फ्रांसिसी नागरिकता की अस्वीकार्यता ने उनकी स्थिति और उपस्थिति के इर्द-गिर्द एक प्रकार के सूक्ष्म तिरस्कार का माहौल भी खड़ा कर दिया. देश से रज़ा का 'आत्म-ग्राही' सम्बन्ध इस तिरस्कार के प्रतिरोध में भारतीय मनीषा के बल और उसके बोध से मिली प्रेरणाओं से इन्हीं क्षणों में निष्पत्त होता है. लेकिन प्रश्न यह है कि इस 'आत्म-ग्राह्यता' को अपने अस्तित्व में आने के लिए किसी-भी निमित्त से क्या विस्थापन की यंत्रणा या व्यवस्थापन से मंत्रणा की आवश्यकता होती ही है जैसे रज़ा के सन्दर्भ में यह निम्मित विदेश-शिक्षा थी ? महान समाज-शास्त्री ज़िग्मुंड बौमा ने आज के आधुनिक विश्व में राष्ट्रीयता और नागरिकता की तकरारों और उनके सहारे वैश्विक स्तर पर चलने वाले सूक्ष्म राजनीतिक खेलों के मनोविज्ञान पर विस्तार से काम किया है. उन्होंने आधुनिक समय में ( किन्हीं-भी कारणों से ) होने वाले विस्थापनों को 'डायस्फोरिक माइग्रेशन' कहा है. यह वह स्थिति है जिसकी आबो'हवा में विस्थापितों/आप्रवासियों के इर्द-गिर्द जानबूझ कर गढ़ी गयी एक कृत्रिम अनिश्चित-ता के माहौल का होना आवश्यक होता है. अनिश्चित-ता के उस माहौल में, एक विस्थापित व्यक्ति को नयी समाज के विभिन्न धरातलों पर लगातार अपनी पहचान को सिद्ध करने के संकट से जूझना होता है. इस संघर्ष में उसकी पहचान से सम्बंधित प्रमाणों की अनुपस्थितियों से लगातार, अलग-अलग समय पर, अलग-अलग व्यक्तियों या व्यवस्थाओं के समक्ष उनकी पहचान के कृत्रिम प्रमाणों को गढ़ा जाता है. इस प्रक्रिया की गफलत में वे अनेक राष्ट्रीयताओं और नागरिकताओं के धारक तो हो जाते हैं, लेकिन उनमें उनकी मूल पहचान चुक जाती है. आज के समय की वैश्विक राजनीति में इस चुके हुए समाज और उसके प्रोपोगंडे की बड़ी भूमिका होती है, जिसमे समावेशीकरण की सरकारी आधुनिक नीतियों और पारंपरिक सामाजिक परिधियों के बरक्स तनाव उत्पन्न होता है. इस तनाव में दोनों समाजों का सांस्कृतिक पार्श्व सबसे पहले धधकता है. इस माइग्रेशन की बात मैं यहाँ सिर्फ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि प्रस्थान और विस्थापन में जो विलोमार्थी सम्बन्ध है वह रज़ा की अप्रवासियता में बहुत स्फूर्त हुआ. फलस्वरूप, आत्म-सत्यापन के अघोषित, अकस्मात् मौकों में दुविधाओं से बचने के लिए स्वयं मैंने रज़ा को अनेकों अवसरों पर अपने फ्रांसिसी पहचान पत्र 'कर्ते सेजूर' को सतर्कता से सहेजते हुए देखा है. यह पहचान-पत्र उनके चेहरे, हस्ताक्षर, फ़्रांस में उनके पते और उनकी प्रवास-अवधि का सरकारी दस्तावेज था जिसके साथ उन्हें अपना भारतीय पासपोर्ट हमेशा साथ रखना होता था. अप्रवासी नागरिक होने के दस्तावेजी प्रमाणों और प्रामाणिक नैतिकता के संघर्षों से लैस अविचलित रज़ा अपने सौन्दर्यबोध की खोज और आत्म-ग्राह्यता के उस विस्तार में डूबे रहे जिसमे उनकी कल्पना भारतीय स्मृतियों से छनकर भारतीयता के आधुनिक बिम्ब को नया अवकाश दे सकने में संघर्षरत थीं. ज़िग्मुंड बौमा की थ्योरी में रज़ा का उदहारण उसमें नए मनोवैज्ञानिक पक्षों को बढ़त दे सकता है.

दरअसल रज़ा 'भारतीयता' को उसके 'रूप' से समझना चाहते थे. वे देशांतर में प्राचीन भारतीय विमर्श का आधुनिक रूपक खोज रहे थे. क्योंकि उनके विचारों में भारतीयता का सन्दर्भ सिर्फ नागरिकता के दायरे तक सीमित नहीं था इसलिए उन्होंने कभी-भी उसे उसकी भौगौलिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक चेतनाओं से अलगा कर नहीं देखा. वे अप्रवासियता में उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के उन सभी स्तंभों को स्पर्श करना चाहते थे जिन पर वह टिकी होती है. उनके लिए भारतीयता एक ऐसी विरल दर्शन थी जिसके रस में पगा मानस अपनी नैतिक समझ से विश्व-नागरिक बनता है. हम यह न भूलें कि रज़ा हमारी उस पीढ़ी से हैं जिसने अपनी राजनैतिक स्वतंत्रता के पहले और बाद का भारत देखा था. जैसा कि मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया ही है कि वे इस पीढ़ी के उन मूर्धन्यों में से भी थे जिन्होंने स्वाधीनता के साथ देश और दर्शन के मध्य घटे विभाजन के दर्द को भी गहरे से महसूस किया था. मेरी नज़र में, रज़ा की चित्र-चेतना के केंद्र में उनके जीवन के अंत तक यह दर्द गहरे से बना रहा, इसलिए उनके चित्रों की आभा को सिर्फ प्रयुक्त सामग्री की चमक समझना गलत होगा. उनकी दृष्टी 'भारतीयता' के आधुनिक रूपकों को नित खोजती हुई दृष्टी है, इसलिए उनके चित्रों की आभा पूरे विश्व का ध्यान लगातार अपनी ओर खींचती है. सामान्य तौर पर तो उनके परिचय में उन्हें 'महत्वपूर्ण भारतीय चित्रकार' कहा जाता है, लेकिन सही मायनों में वे 'भारतीयता' के चित्रकार थे. शायद यही वह कारण है कि आधी सदी तक फ्रांस में रहने के बाद भी उन्होंने ना तो फ्रांसिसी नागरिकता ली और ना ही यह स्थान परिवर्तन भारतीय दर्शन पर एकाग्र उनकी चेतना को ही खंडित कर सका. गांधी की ही तरह 'भारतीयता' के औचित्य ने रज़ा को भी विश्व नागरिक बनाया है. यहाँ यह भी याद कर लेना आवश्यक है कि गाँधी के सन्दर्भ में दक्षिण-अफ्रीका की भूमिका महत्वपूर्ण है तो ठीक उसी प्रकार से रज़ा के सन्दर्भ में यूरोप अपना महत्व रखता है.

रज़ा ने मूलतः जिन घटकों के सहारे अपनी चित्र-भाषा गढ़ी थी वे अपने आप में वैश्विक थे. जिस प्रकार से गाँधी के सन्दर्भ में सत्य, अहिंसा, करुणा और त्याग उनके विमर्श में मनुष्यता के आधारभूत वैश्विक घटक थे उसी प्रकार से रज़ा के सन्दर्भ में आखिर एक रेखा, त्रिकोण, वर्ग या एक वृत्त को किसी एक स्थान, देश या सभ्यता का कैसे माना जा सकता है ? उसी प्रकार से कोई रंग भी किसी देश विशेष का नहीं होता. लेकिन इन सभी वैश्विक, मौलिक घटकों के सहारे अपने चित्रों से रज़ा एक ऐसा रूप-विमर्श गढ़ने में सफल हुए जिसमें से भारतीयता की महक आती है. इसी प्रकार से रज़ा की चित्र-वर्णिकाओं को देखकर हमारा भारतीय बोध तो समृद्ध होता है लेकिन मैं यहाँ पर आपको सचेत करना चाहता हूँ कि हम उनके चित्रों को किसी भी प्रकार के दृश्यचित्रण की श्रेणी में रखने की यूरोपियन गलती न करें. उनके चित्र दरअसल किसी भू-भाग या स्थान विशेष का अंकन नहीं हैं. हालांकि वे जब-तब अपने चित्रों का शीर्षक किसी स्थान के नाम पर रख दिया करते थे जिनमे विशेषकर भारत, सौराष्ट्र, राजस्थान, मंडला, जैसलमेर जैसे शीर्षक प्रसिद्ध हैं. इन शीर्षकों से किसी-भी शिथिल दर्शक को यह भ्रान्ति हो सकती है कि वह चित्र को देखने के मूल उद्देश्य से भटककर उसमे शीर्षक को खोजने का विफल प्रयत्न शुरू कर दे. उनके ये सभी चित्र उस स्थानक-स्मृति के प्रमाण हैं जिनमे स्थान नहीं, बल्कि उसके लोक में बसी उर्जा और उनकी उस स्थानीय स्थिरता का बोध है जो भारतीय है.


रज़ा के चित्र-लोक की इस महक में से जिस प्रकार की नागरिकता प्रकट होती है वह हमारी आज की आधुनिक 'सिटिजनशिप' की वैश्विक समझ से अलग भी है और उस पर संचित एक प्रश्न भी. संभवतः इस संचयन में ही रज़ा की रचनाशीलता का वह आलोक है जो पूरी दुनिया को हथप्रभ करता है. उनके चित्र भारतीयता को समझने के उपक्रम में मील के उन पत्थरों के समान हैं जो एक नागरिक को उसके मार्ग में औचित्य और गंतव्य की सही दिशा का संज्ञान कराते हैं. वह संज्ञान, जिसके समक्ष गंतव्य के रूप में अगर संज्ञा भारत है तो औचित्य के रूप में ज्ञान भारतीय है. इस विशेषण में अतिरिक्त वैशिष्ठ्य को स्थापित कर सकने के संघर्ष का नाम ही रज़ा के चित्र हैं.

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