आहन-ए-अज़्म और कोहरा : डायरी

एक पूरे मौसम मैं बारिश की फ़ितरत पर हैरान रही. मैंने बहुत से तराने गाए. याद नहीं पर कुछ देर बाद बूंदें वक़्त की बेहिसी से जमने लगी थीं. बर्फ़ में आख़िरी तराना खोने तक मुझे हैरानी नहीं हुई. फूलों से पहले लोहे पे बर्फ़ जमी. गुलशन-ए-ज़ीस्त से पहले आहन-ए-अज़्म पर और हर चीज़ से पहले मेरी ताबनाक हैरानियों पर, सो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई.

जिस पल मुझे नेस्तनाबूद किया गया, मैं नामौजूद थी दुनिया भर की उन तमाम औरतों की तरह जिन्हें तब नेस्तनाबूद किया गया जब वो नामौजूद थीं. किरचों के सारे घाव नामौजूदगी के तलवों पर हैं. चोटों और वजहों का क्या पता. लेकिन अब आंखें टटोलती हैं दुनिया, आसमान में खोए किसी एक सितारे की तरह नहीं, बल्कि टूटकर चमकने वाले तारे की मानिंद. अंधेरों को ये लौ चुभगी, लेकिन उन्हें चोटों और वजहों का पता होगा.

क्या सूर-ए-इसराफ़िल के हौलनाक मंज़र के साथ दुनिया ख़त्म हो जाएगी? कुछ देर तो घड़ी ठिठकेगी या फिर क़हर की आवाज़ गूंजने की मोहलत भी क़हर की ही मुट्ठी में होगी?

मुझे कोहरे ने घेर रखा है. मैं उस रास्ते को साफ़ देखना चाहती हूं जहां से कोहरा इस नख़लिस्तान में दाख़िल होता है. लेकिन जब भी कोहरा छाता है तो दरवाज़े गुम हो जाते हैं.

हवा में घोंसला बनाना परिंदा तबियत का इशारा है. हवा को ज़ंगआलूद बेड़ियां पहनाना क़ातिल की निशानी. हवा के साथ सलूक से ही किसी की रूहानी औक़ात तय होगी, और ज़ुल्म की मियाद भी.

मिट्टी की एक पर्त दूसरी पर्त की काट नहीं है क्योंकि वो ज़मीन का हिस्सा हैं और बारिश होने पर पौधों को ताक़त बख़्शती हैं. ऐसे ही मेरी ख़ुशी का ज़ाविया अफ़सुर्दगी के ज़ाविये की आड़ नहीं है. सारे ज़ाविए आख़िर वजूद का हिस्सा हैं और ज़िंदगी से मुहब्बत करते हैं.

बारूदों की क़ुव्वत नापने में भी एक छोटी सी क़यामत उतर जाती है. पोखरन में या ट्रिनीटी में. सो ख़ामोशी की क़ुव्वत नापने में भी एक वलवला आएगा. भले सारे बारूदों को तमाम मुल्कों ने और उनके हुक्मरानों ने छिपा लिया हो, किसी बदसूरत से ए’तिदाल के लिए, पर वो मौजूद हैं, ख़ामोशी की तरह या आवाज़ की तरह.

मैनें वो गलियारा नहीं देखा जहां आरी चलने की आवाज़ ऐसे गूंजती है गोया मेरी खिड़कियां तोड़ी जा रहीं हों. मैंने गुलाब की उन शाख़ों को कभी प्यार नहीं किया जिनमें किसी दिन आग लगी और मेरी सांसें रूंध गईं. बाहर कितना कोहरा है लेकिन खिड़की और धुएं का अब मुझे पूरा अंदाज़ है. दर्द के आईनें में हर उस चीज़ की अक्कासी होगी जिसने मुझपर असर डाला. 

पास की आंधी दूर के तूफ़ान की क़ैद में है, वहां का शोर यहां के शोर शिकंजे में. सारे असर ज़हरबुझे कोहरे में हैं और मेरे क़त्ल में नाकाम!

मुझे हमेशा अक़ीदत की धुन ने बचाया. उससे बुनने में धागे नहीं खपे पर वो शामियाना बनी. मैनें बस एक कलसा निकाला और वो दरिया बनी. बिन शाख़ों और पत्तियों के भी उसने हरी-नर्म छांव की. किसी भी धूप में, बस अक़ीदत ने पनाह दी.

2 Replies to “Ahan-e-azm aur kohara : Diary”

  1. मरियम से बोलो जो शहर ए मुहब्बत की सीरीज़ फिर से अपने अकाउंट पर चालू कर

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आज का विचार

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

आज का शब्द

द्विशाखित होना The river bifurcates up ahead into two narrow stream. नदी आगे चलकर दो संकीर्ण धाराओं में द्विशाखित हो जाती है।

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