अशोक जी की कविताओं का चाव, मेरे लिए नया नहीं बल्कि किशोरावस्था का है, अधकच्ची – अधपक्की समझ की उस खट – मीठी उम्र से ही जब हमारे अंदर प्रेम और देह को लेकर भ्रम / भय हुआ करता था और ये कविताएँ, इनके शब्द, छिपे अर्थ, आस – पास तैरते हुए अनजाने असमंजस/द्वन्द्व को एक हद तक दूर करती थीं और कभी – कभी अंतर्विरोधों को गाढ़ा भी कर जाती थीं. जब उनकी कविताओं पर लिखने का प्रस्ताव मिला तो मुझे बहुत संकोच हुआ. फिर मुझे लगा इन कविताओं पर एक पाठक की समझ से बिलकुल ‘रॉ’ ढंग से भी ज़रूर लिखा जाना चाहिए जो कि मुझसे युवतर और नवयुवा पाठकों से भी कहीं न कहीं ‘साधारणीकृत’ हो सके. उसी नॉस्टैल्जिक मोह के चलते, यहाँ मैं उनकी कविताओं की एक मुकम्मल पुस्तक (संचयन) ‘विवक्षा’ के एक अंक “प्रेम का पंचांग’ और कुछ अन्य प्रेम सम्बन्धी कविताओं पर अपना पक्ष रखूँगी. यूँ तो प्रेम, अपनी स्थाई टेक की तरह, हर मानवीय और प्राकृतिक धरातल पर अशोक जी सारी रचनाओं में आता ही है, क्योंकि उनके रचनाकार में सूक्ष्म को स्थूल और स्थूल को सूक्ष्म तथा प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष बनाकर कविता में उपस्थित करने की असीमित योग्यता है।
आमतौर पर, अशोक वाजपेयी इहलौकिक दैहिक प्रेम के कवि माने जाते हैं, मगर उनकी प्रेम कविताओं को इतने छोटे दायरे नहीं बाँधा जा सकता, माँसल दैहिकता/ऐन्द्रिकताके नाम पर इन कविताओं की आलोचना एक संकीर्ण दृष्टिकोण है. अशोक जी की प्रेमकविताओं में प्रेम के कई रंग हैं। इस प्रेम में इहलौकिक ही नहीं अलौकिक व्यापकता है. ऎसा न होता तो ‘आसन्न प्रसवा माँ’ पर एक सम्वेदनशील युवा कवि इस क़दर मर्मस्पर्शी कविताएँ कैसे लिख सकता था! उनकी कविताओं में इसी तरह प्रेम भी कई रूपों में प्रकट होता है। कभी अंतहीन प्रतीक्षा में, स्मृति या स्मृतिविमोह में, कभी प्रेम के अंतरंग पलों में, कभी उसकी ऐंद्रिकता में तो कभी उसकी मांसलता में। कभी – कभी रति के बाद उपजे अवसाद में भी.
उनके पास कविता में खूब वापरे गए शब्दों के बीच ही विकसित हुई नितांत भिन्न भाषिक विशेषता है….भाषा का प्रश्न केवल उपयोगी शब्दों को लेने या अप्रभावी शब्दों को छोड़ देने का नहीं है सवाल सदा कविता के मिजाज़ के अनुरूप सजीव, संवेदनशील भाषा के अपने प्रयोग का है, हरी घास की पत्ती, मृत्यु, ईश्वर, बच्चे, गुब्बारे न जाने कितनी बार कितने सप्तकों में वापरे गए हैं, मगर फिर भी वे हर प्रेमकविता में नए से क्यों लगते हैं, यहाँ काव्यगत कौशल और धैर्य काम आता है.
हम उठाते हैं एक शब्द
और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य – विन्यास
विचलित होता है.
वे अपने संचयन ‘विवक्षा’ की भूमिका में स्वीकारते हैं कि “ ‘शब्द ज़्यादातर दूसरों के बनाए – बरते होते हैं और अकसर उन्हीं के माध्यम से दूसरों तक, उनके नज़दीक पहुँचते हैं। शब्द ‘दूसरे’ हैं, अपने होते हुए कविता में.”’ इन्हीं शब्दों में वे प्रेम, प्रतीक्षा, कामना, केलिकथा, प्रतीक्षा कर लौट जाने की पीड़ा और एन्द्रिक प्रेम को मूर्तन-अमूर्तन की धूप – छाँह रचते हैं. एक पाठक और कविता प्रेमी कथाकार होने के नाते मुझे यह बहुत बड़ी उपलब्धि लगती है कि प्रेम, देह को इस कदर सौन्दर्य- बोध के साथ उकेरा जाना कि उसमें घास, धरा, नभ और ब्रह्माण्ड एकमेक हो जाएँ और प्रेम का देह उत्सव एक यज्ञ मंत्र की तरह ब्रह्माण्ड में गूँज उठे.
मैं अपनी अंजलि में उठाता हूँ पूरा संसार –
असंख्य देवता, वनस्पतियाँ, नक्षत्र
**********पक्षियों में बदल गए पूर्वज
अनसुनी वन्दना**********
उनकी कविताओं में ऐन्द्रिकता स्थूल नहीं, बहुत प्यारी और प्राकृतिक है जैसे कि किसी कैक्टस पर फूल खिलता हो चटख रंगीन…या फिर किसी पेड़ की नई – नई भूरी छाल…या पीली चिड़िया. वे अपनी काव्यात्मक अमूर्त ऐन्द्रिकता तो प्रकृति को भी उधार दे देते हैं –
मैं बिछाता हूँ धरती का हरा बिछौना
मैं खींचता हूँ आकाश की नीली चादर
मैं सूर्य और चन्द्रमा के दो तकिए सँभालता हूँ
मैं घास के कपड़े हटाता हूँ
मैं तुमसे केलि करता हूँ
अशोक जी की कविताओं पर आरोप लगता रहा है कि वे ऐन्द्रिकता से भरपूर हैं, जबकि यह ऐन्द्रिकता कभी संगीत की हद छूती है…. (‘उसने मुझे कहा/ मुझे आलाप की तरह आना चाहिए’), तो कभी एक अधबने चित्र की तरह बनती – बिगड़ती है ( रोज़ की पीली चिड़िया/ नीली चाहत में दूर जा चुकी है), कभी खजुराहो की घिसी मूर्तियों में छेनी बन नोक – पलक उकेरती है ( पत्थर काँपता है/ पत्थर पसीजता है/ पत्थर धार – धार बहता है/ पत्थर करता है पवित्र पत्थर को पत्थर से केलि करता है पत्थर) कभी कथा बन पुराने शहर के किसी बुर्ज़ पर चढ़ शहर का गुनगुन शोर बनती है, ‘साँझ रँग’ में डूबती है.
‘प्रेम का पंचांग’ पढ़ते हुए एक भाव मन में लगातार बना रहता है कि ये कविताएँ, आह्वान और मिलन के बीच ठिठकी प्रतीक्षा में बहुत घनीभूत लगाव, प्रतीक्षा की बेचैनी के बावज़ूद बहुत संयम बाँध कर शब्द – शब्द माँडी गई हैं किसी अल्पना की तरह अमूर्त द्वार पर, स्वागत के लिए. शायद इसी को कहते होंगे, ‘कलागत धैर्य’ खुद को अभिव्यक्त करने का. काव्यात्मक धैर्य जो इसी आह्वान और मिलन की प्रतीक्षा की अधीरता में छिपा है.
यहाँ प्रतीक्षा इतनी व्यापक है कि प्रेम और देह ही नहीं काल तक का अतिक्रमण कर जाती है और एक समयविहीन निर्वात अंतरिक्ष में ठहर जाती है.
हो सकता है वह भटक गई हो
किसी आकाश की भूलभुलैया में
अंतरिक्ष के किसी गलियारे में
उसे आने में देर हो रही है
और यह शताब्दी बीतने – बीतने को है.
यहाँ प्रेम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ प्रतीक्षारत है, बीच – बीच में निर्वात है वैराग्य का, जो ऐन्द्रिकता को स्थूल नहीं बनाता, रेखांकित करता है. इस ऐन्द्रिकता की विराटता ऎसी है कि इसी में में बच्चे, चिड़ियाँ, देवता, सड़क के मोड़, मौसम, कुत्ते, गिलहरी तक अपनी जगह बना लेते हैं, उसी कौशल के साथ जैसे बनाती है वह जगह…. प्रेम के लिए
उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई
बुहार कर अलग कर दिया तारों को
सूर्य – चंद्रमा को रख दिया एक तरफ
वनलताओं को हटाया
उसने पृथ्वी को झाड़ा पौंछा
आकाश की तहें ठीक कीं
उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई
अमूर्त में मूर्त का संगीत सदा बसता है, इन कविताओं में, जैसे एक सिक्के के दो पहलू…. ऎसी अमूर्त लय काव्यात्मक धैर्य की माँग करती है.
पानी के मन में
उसके तन के अनेक संस्मरण हैं
ऎसी ही एक कविता है, ‘चटक विलसित’
तृप्ति के उदगम पर –
गौरेय्या फुदकती है
दो – तीन बार
अँधेरे पुष्प के उजले
प्रस्फुटन के बाद
ऎसी नाज़ुक, संकोची, शीलयुक्त ऐन्द्रिकता के होने पर किसे संकोच हो सकता है? विरोध तो दूर…इसे नकारने का मन ही नहीं करता. मानव की सारी रचनात्मकता, ऐन्द्रिकता और काम भावना से उत्पन्न होती है। सारी कलाएँ एक प्रकार से इसी भावना से उपजे सुख और दुख, राग और विराग की अभिव्यक्तियाँ है। वह भी सायास, फिर ऐन्द्रिकता को हम क्यों केवल प्रजनन के लिए प्रदत्त इन्द्रियों तक सीमित कर दें? ऐन्द्रिकता तो महीन सम्वेदनों से सम्बद्ध होती है, अशोक वाजपेयी की कविता में ऐन्द्रिकता परिभाषा की पटरी से जानबूझ कर उतरती है, और जंगलों में विचरती है. यह ऐन्द्रिकता अगर पेड़ होने में भी निहित है तो संभोगरत प्रेमी युगल के लिए द्वार के बाहर प्रतीक्षा करते, किसी के आ जाने का संकेत देते काले – कलूटे, निरीह मानव जैसे ईश्वर के भीतर भी उपस्थित है.
जल्दी से उसे अंतिम चुम्बन देकर
जब धीरे से मैं बाहर आया
तो धुँधलके में
मैंने देखा – मैंने पहली बार उसे देखा : उसका काला – दुबला – सा शरीर हाँफ रहा था
एक् पिचके चेहरे में आँखे नीचे झुकी थीं
उसके हाथ में शायद करताल थी
डंडे – गंडासे और झंडे लिए खड़ी एक भीड़ के पीछे
खड़ा था वह
और उसके पीछे
दूर कहीं
भोर का संकीर्तन था .
अशोक वाजपेयी की इन कविताओं में शब्दों तक के पास संवेदी अंग हैं, महीन स्पर्शक तंतुओं जैसे अर्थ जिनके चलते वे कूद कर आत्महत्या करते आदमी को बीच ही में थाम लेना चाहते हैं मगर विड्म्बना यह कि थाम नहीं पाते…इस सब के बीच एक संसार है और व्यवहार लोक का व्यापार है. वे कहते भी हैं – मेरी बुनियादी मानवीयता सबसे अधिक कविता ही समेट पाती है. उसमें ही मैं सबसे अधिक मनुष्य और सबसे अधिक सच हूँ.( 15 सितम्बर 2008 रविवार. कॉम में प्रकाशित अशोक वाजयेयी से गीताश्री की बातचीत )
प्रेम में जीवन की लालसा और मृत्यु का आकर्षण, प्रेम कविता में नया नहीं मगर घोर अंतरंग क्षणों में भी मृत्यु का आकर्षण कामना के बाद के उस चरम में छिपे वैराग्य का आभास दिलाता है. यह प्रेम में कामना का अतिक्रमण है, भावुकता का यह काव्यात्मक संयम प्रेमकविता को सघन बनाता है. प्रेम कविता की यह संयमित,
सघन भंगिमा,मौन होकर भी मुखर लगती है.
एक मरणांतक शोर होगा चारों तरफ
और मेरा हृदय
गले हुए आलोक – स्फुरित लोहे की तरह
असंख्य मार्गों से तेरी ओर बहता रहेगा
जिसे मनचाहे सुखों में तू ढालती रह सकेगी
*************
काले भारी भय की तरह स्तब्ध होगी पृथ्वी
मृत्यु की तरह नि:स्पन्द छाया होगा आकाश
मेरे असंख्य अंश तेरी प्रतीक्षा करेंगे
यंत्रद्वारों के पास –
प्रेम की अनश्वरता के रेखांकन , ऐन्द्रिकता और माँसल मुखरता के कारण अशोक वाजपेयी की प्रेमकविताएँ शुरुआत ही से अलग से पहचानी जाती रहीं हैं. इसकी वजह यही है कि उनमें नितांत हमारी अपनी ही भाषा से, नई संश्लिष्ट भाषा ने उनकी कविता में जन्म लिया था और उसके नए और उत्तेजक उपयोग, और उसके माध्यम से एक ऐसा आकस्मिक संसार प्रकट हुआ था, कि जिसमें स्त्री – पुरुष सम्बन्ध बहुगामी होते हुए भी सघन थे, बहुआयामी, बहुस्तरीय थे, कुछ – कुछ बदले हुए और कुछ अप्रत्याशित से —
वे सब खोखली हँसी हँसे
जब मैंने अपने प्रेम की बात की
और हमेशा अतिथियों में व्यस्त रहने वाली
एक कवियत्री चौंक गई जब मैंने पूछा :
एक स्त्री और एक पुरुष के बीच
और क्या हो सकता है चाह के सिवा!
मैं घबराया
कि शायद
मैं अजीबोगरीब भाषा का इस्तेमाल कर रहा हूँ
मौसम, कुत्तों या ग़ुलाब की नई किस्मों के बारे में
मुझे ज़्यादा मालूम नहीं था.
प्रेम की प्लेटोनिकता पर से मुखौटा उतारती हुई ये कविताएँ, जब आज के समय के ‘स्यूडो’ प्रेम की जड़ों को हिला देती हैं, तो तब तो ( 1960 में) लगभग भूचाल आए होंगे. अपनी माँसलता में अतिविनम्रता के साथ और शिल्प के नए संधान के साथ न जाने कितने पुराने खाँचों को तोड़ा होगा, इस कविता ने,
कहाँ होती है दुनिया उस समय
जो बाद में मोड़ पर मिलती है – परेशान
पर हमें अपमानित करने को तैयार
अपनी – अपनी पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की
बदहवास हितैषी दुनिया
कहाँ होती है उस समय
– जब हम सुन्दर होते हैं एक उत्तेजक दोपहर में
अपने शरीर के विह्वल गुम्फन में!!
हालांकि अशोक वाजपेयी की कविता में प्रचलित रूढियाँ या कुछ परम्परागत चमत्कार यहाँ – वहाँ दिख जाते हैं, या यूँ कहूँ कि उन संस्कृतनिष्ठ रूढ़ियों के प्रति कवि का मोह नितांत भारतीय मोह है…जो सहज स्वाभाविक है. एक दो जगह मुझे यह प्रतीत हुआ कि कवि के लिखे जाने के बाद वे चमत्कारिक शब्द, इतने दोहराए गए कि वे पठन के सान्द्र रस को तरल कर जाते हैं, उनमें से एक शब्द – चमत्कार है दिगम्बरा… शायद अशोक जी ने इसे मौलिक तौर पर कविताओं में इस्तेमाल किया हो मगर बाद में अन्यों द्वारा इसकी पुनरावृत्ति ने इस शब्द की सघनता को कम कर दिया है.
अशोक जी की प्रेमकविताओं के अन्दर प्रतीक्षा के पलों में उभरे रहस्यमय बिम्ब करवट लेते हैं, सपनों, दिवास्वप्नों, भ्रमों, कोलाजों, प्रकाशपुँजों, धुंधलकों के माध्यम से इनमें इतनी अर्थबहुलता आ जाती है कि इन गलियारों में घूमता पाठक चमत्कृत होता ही होता है. वे जानते हैं कि कौनसा संस्कृतनिष्ठ शब्द किस तरह से रखा जाए कि, आधुनिक कविता के गलियारे में वह किसी एंटीक सा खूबसूरत ‘इफेक्ट’ पैदा करे. उनकी प्रेम कविता की अमूर्तता में मूर्त संसार के कई वलय हैं, जो परस्पर समानांतर, सहजीवन जीते हैं, और उनकी कविता को नितांत भिन्न किस्म की सांसारिकता से जोड़ते हैं. जो कि कवि के उस प्रथम प्रस्थान बिन्दु से ही पारम्परिक रूप से आधुनिक हैं, व्यक्त – अव्यक्त ऐन्द्रिकता के बावज़ूद आक्रामक नहीं, अश्लील नहीं, नैसर्गिक हैं. कविता जगत को मौलिक सौन्दर्य – सृष्टि देते उनके भीतर का संवेदनशील और कुशल कवि आरंभ ही से ऐन्द्रिकता को रूपायित करते हुए अपनी सोच में सर्वथा स्पष्ट है, ऐन्द्रिकता और वस्तुपरकता को नितांत नये आयामों में उद्घाटित करते हुए.
इन प्रेम कविताओं में बहुत – सी ऎसी हैं जो मेरे जन्म से भी सात आठ बरस पहले लिखी गई हैं, और कुछ बस आज से आठेक बरस पहले मगर इनका अत्यंत सामयिक तौर पर विद्रोही और कलात्मक और अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण होना न केवल इन कविताओं की स्वीकार्यता / समसामयिकता को विस्तार देता है बल्कि आज भी वर्तमान प्रेम कविताओं की आलोचना को नए पाठ और नए उद्धरण, नई चुनौती देता प्रतीत होता है. उनकी कविताओं में हर दशक के साथ प्रेमानुभूति सतत गहरी हुई है. यह प्रेमानुभूति शब्द के साथ होकर भी गहरे में शब्देतर रहती हुई, उत्तरोत्तर मानव के अस्तित्व के प्रश्न और सरोकार पर, जीवन और जगत के कारोबार पर, ज्ञान, कला, और दर्शन पर आ ठिठकी है ।
28 नवंबर 2014