महाकवि कालिदास अपने महाकाव्य “रघुवंशम्” की शुरुआत में ही लिखते हैं -‘मंद: कवि: यश:प्रार्थी’। कालिदास खुले तौर पर स्वीकार करते हैं कि उनका साहित्य यश के लिये है। आचार्य मम्मट भी काव्य के प्रयोजन की चर्चा करते हुए ‘कालिदासादीनामिव यशः’ कह कर यही सिद्ध करना चाहते हैं कि कालिदास ने यश अर्जित करने के लिये कविता लिखी। रघुवंश के प्रतापी राजाओं में भी वे यश प्राप्त करने का ही लक्ष्य देखते हैं (यशसे विजगीषूणाम्)। यश की प्रतिष्ठा लोक में होती है। जो कविता लोकरुचि के हिसाब नहीं , वह यश नहीं दिला सकती । यह बात कालिदास बहुत अच्छी तरह जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि लोगों के बीच रहने वाले कवि को आकाश में उड़ने की अपेक्षा अपने पाँव जमीन पर ही रखना चाहिए। वे अपने को ‘अल्पविषयामति’ कहते हैं , और अपने संसाधन को इतना छोटा कि ‘तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्’ कहते हुए इतने छोटे हो जाते हैं कि लोगों के बीच जाकर खड़े हो सकें।

कालिदास ने अपनी सबसे पहली रचना लिखी ऋतुसंहारम्। किसके लिये लिखी ? क्यों लिखी ? ऋतुसंहार की विषयवस्तु वे कहाँ से लाये ? इनके उत्तर खोजने के लिये हमें दूर नहीं जाना पड़ता। ऋतुसंहार लोगों के लिये लिखा गया बहुत ही सरल-तरल काव्य है। लोकजीवन पर सर्वाधिक प्रभाव
ऋतुओं का ही होता है। ग्रीष्म , वर्षा , शरद, हेमंत, शिशिर और वसंत ही लोकजीवन को प्रभावित करने वाले तत्व हैं । आज भी जब धनाढ्य लोगों के पास सब तरह की सुख-सुविधाएँ हैं , वे लोगों के बीच आने के लिये मचलते हैं । इतना तो वे भी जानते हैं कि उनका मन लोगों के बीच पहुँच कर ही तृप्त होगा। कालिदास ऋतुसंहार की शुरुआत कितने सुंदर ढंग से करते हैं –

प्रचंड सूर्यः स्पृहणीय चंद्रमा सदावगाहक्षत वारिसंचयः।
दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागत प्रिये।।”

लो आ गये गर्मी के दिन ,दिन भर तपता सूरज , साँझ सलौनी हो जाती है , भला चंद्रमा करता मुझसे मीठी-मीठी बात, मन करता है , गहरे पानी खूब नहाऊँ मैं दिन-रात।

पूरा का पूरा ऋतुसंहार बिना कठिन शब्दावली , बिना किसी अलंकार योजना , बिना वैदग्ध्य-प्रदर्शन लोगों को वन-उपवन में ले चलता है । वहाँ केवल दो चीजें हैं – ऋतुएँ हैं और लोक जीवन है , और इनके साथ-साथ बहती हुई नदियाँ हैं , पर्वत शृंखलाएँ हैं , बादल हैं , फूल हैं , उन पर मंडराते भौंरे हैं , वनस्पतियाँ हैं। कालिदास के पूरे साहित्य में ऋतुसंहार ही है ,जो लोक जीवन के बहुत समीप है। समूचे भारतीय साहित्य में जितना अच्छा लोक जीवन का परिचय ऋतुसंहार में मिलता है, उतना और कहीं नहीं।

विश्व साहित्य में मेघदूतम् के टक्कर की कोई कविता नहीं है। एक अभिशप्त और लुटा-पिटा यक्ष इतनी समर्थ कविता का मुख्य पात्र हो सकता है , यह भरोसा मेघदूतम् को कई बार पढने के बाद भी नहीं होता है। पूर्वमेघ में “कश्चित्कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्त:” के जरिये यक्ष का बहुत ही कम शब्दों में परिचय देने के बाद कालिदास सीधे “आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाशालिष्टसानुं” से जो लोक-यात्रा करवाते हैं हमारी , वह कैलास पर्वत के उस पार अलकापुरी तक अनवरत चलती है। कवि कालिदास मेघदूतम् क्यों लिखते हैं ? किसके लिये लिखते हैँ ? इसका अच्छा उत्तर कालिदास ही दे रहे हैं –

इत्थं भूतं सुरचितपदं मेघदूताभिधानं
कामक्रीडाविरहित जने विप्रयुक्ते विनोदः।
मेघस्यास्मिन्नतिनिपुणता बुद्धिभाव: कवीनां
नत्वार्याश्चरणकमलं कालिदासश्चकार।।

कालिदास साफ-साफ कहते हैं कि उन्होंने मेघदूत की रचना उन लोगों का मन बहलाने के लिये की ,जो विरही हैं , जिन्होंने कामकौतुक का सुख कभी नहीं लिया । इसके बाद भी मेघदूतम् कवि की प्रौढ रचना है , तो केवल इसलिये कि इसमें भारत के समृद्ध भूगोल , समृद्ध लोक-संस्कृति और नैसर्गिक सम्पदाओं से भरे-पूरे लोकजीवन के दर्शन होते हैं। मेघदूत की मंदाक्रान्ता का सौन्दर्य ही इसमें है कि वह लोक जीवन के रस में डूबती हुई आगे बढती है। वक्रपंथा उज्जयिनी के चंडीश्वर महाकाल के विवरण तो लोकरंजन के लिये हैं ही , किन्तु ‘लोलापांगैर्यदि न रमसे लोचनैर्वञ्चितोसि’ में उज्जयिनी की पौरांगनाओं को अपनी जो छबि दिखाई देती है , उसकी लोक में अपनी ही प्रतिष्ठा है। यही बात ‘दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानां’ में है । वह लोकजीवन ही है ,जो उज्जयिनी की एक अलग पृष्ठभूमि बनाता है -‘

प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान्।
पूर्वाद्दिष्टामनुसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम्।।

महाकवि कालिदास का लिखा सबसे गौरवशाली महाकाव्य है-“रघुवंशम्”। वे न लिखते , तब भी वाल्मीकि की रामायण थी धरती पर , जो इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की गौरवगाथा कहने के लिये पर्याप्त थी। वाल्मीकि ने जिस निष्ठा से,और जिस सहृदयता से रामायण महाकाव्य का सृजन किया था,वह तो बेजोड़ है । लेकिन बहुत कुछ ऐसा था , जो कालिदास लोगों को बताना चाहते थे। राम तो चर्चा में थे , पर राजा दिलीप और सुदक्षिणा के दाम्पत्य को , नन्दिनी की सेवा को , राजा के लोकरंजक चरित्र को कालिदास के सिवा कौन पहचान पाया। नन्दिनी के पीछे -पीछे चलती हुई सुदक्षिणा वैसी ही दिखाई पड़ती है , जैसे श्रुति के पीछे स्मृति। कैसा लोकमंगलकारी अनुष्ठान ? कैसा त्याग,कैसा समर्पण? भारत के सम्राटों का कैसा लोकहित- कारी चरित्र लिख दिया महाकवि ने।

प्रजानां विनयाधानात् रक्षणाद्भरणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः।।

यह चरमोत्कर्ष है दिलीप के चरित्र का , जो उन्हें लोकमानस में प्रतिष्ठित करता है। और रघु ? राम और दशरथ के होते हुए वंश ‘रघु’ के नाम से चला , तो यह काम न तो वाल्मीकि ने किया , न कालिदास ने। ‘रघुकुल रीत सदा चली आई , प्राण जाई पर वचन न जाई’। लोगों ने पास से देखा है रघु को , अज को , दशरथ को , राम को और उस अग्निवर्ण को भी ,जो झरोखे में से अपना एक पाँव दिखा कर अपने होने की पुष्टि करता था। रघु के जीवन में ही उनकी यशोगाथाएँ गाँव की वधुएँ कथा में पिरो कर गाती थी ईख की छाया में बैठ कर या धान के खेतों में ।

इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकथोद्धातं शालिगोप्यो जगुर्यशः।।

श्री अरविन्द ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक” The Foundations of Indian Culture” में कालिदास को लेकर लम्बी चर्चा की है। वे कालिदास को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में सबसे ऊपर रखते हैं , और विश्व साहित्य में मिल्टन और वर्जिल से तो बहुत ऊपर। इसका एक ही कारण बताया श्री अरविन्द ने , कि कालिदास ही हैं , जिनकी लोकमानस में गहरी पैठ है।
वे राजप्रासादों ने निकल कर लोगों के बीच आते हैं , और लोक-अनुराग से अपनी कविता की कड़ियाँ जोड़ते हैं। वह “राजा प्रकृतिरञ्जनात्” का महाकाव्य है , और उससे भी आगे जा कर “आदानं हि विसर्गाय” का महाकाव्य है।श्री अरविन्द के अनुसार रघुवंश हमारी जाति के उच्चतम संस्कारों का स्मारक है।

“त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम्।
यशसे विजगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्।।
शेशवेऽभ्यस्त विद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।

महाकवि कालिदास की सर्वाधिक चर्चित और कृति तो’अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ ही है । इस कृति का फलक बहुत विस्तृत है । इस पर न जाने कितनी तरह से विचार हुआ, किन्तु अब भी यह कृति पुनर्व्याख्या की अपेक्षा रखती है। कालिदास शुरू से अंत तक लोकरुचि का ध्यान रखते हैं।

सुभगसलिलावगाहा: पाटलसंसर्गिसुरभिवनवाता:
प्रच्छायसुलभनिद्रा : दिवसा: परिणामरमणीया:।।

कितना भला लगता है गर्मी के दिनों में शीतल जल से नहाना ,पाटल में बसी हुई वन-उपवन की हवाएँ सुगंध से भर देती हैं तन-मन ,किसी वृक्ष की घनी छाया में अहा! कितनी मीठी नींद लग जाती ,और दिवसावसान का समय लगता कितना सुहाना।और नटी जब गाती है –

ईसीसिचुंबिआइँ भमरेहिं सुउमारकेसरसिहाइँ।
ओदंसअंति दअमाणा पमदाओ सिरीसकुसुमाइँ।।

तो रंगशाला में “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” का मंचन देखने का चाव ही इसलिये पैदा होता है , क्योंकि यह नाटक लोकरंजन की पृष्ठभूमि लेकर आता है। सूत्रधार जब कह रहा है “आ परितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्” , तो यह बात वह केवल विद्वानों के संतोष के लिये नहीं कह रहा है , लोगों के संतोष के लिये कह रहा है , क्योंकि सच्चा कवि विद्वानों में और लोक में भेद नहीं करता। उसकी दृष्टि में सभी दर्शक विद्वान् होते हैं। एक बहुत ही चर्चित उक्ति है – ‘काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला। तत्रापि चतुर्थोंकः तत्र श्लोकचतुष्टयम्।’ यह जो श्लोकचतुष्टयम् का रम्य होना है , इसका सीधा सम्बंध ही लोगों से है। तपोवन में रहने वाले महर्षि कण्व लोक-संवेदना में कितने गहरे उतर चुके हैं। ये चार श्लोक लोगों को क्यों प्रिय लगते हैं , क्यों रंजक लगते हैं , यह बताने की आवश्यकता कभी किसी को नहीं। ‘बेटी की बिदाई’ का लोक में क्या मर्म है,यह कैसा भाव-विभोर कर देने वाला प्रसंग है, इसकी कितनी गहरी पकड़ करते हैं कवि कालिदास।

🍂
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
कण्ठ: स्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहारदरण्यौकसः
पीड्यन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदु:खैर्नवै:।।

आज चली जायेगी शकुन्तला ,
यह सोच-सोच कर जी बैठा जा रहा है।
इन आँसुओं को कब तक रोक कर रखूँ ?
गला रुंध आया , मुँह से बोल फूटते नहीं ,
बहते हुए आँसू और चिन्ता के मारे
आँखें धुंधली पड़ गईं ,
मैं तो ठहरा वनवासी ,
गहरे दुःख में डूब रहा हूँ जब मैं ही ,
तब उन बेचारे घर वालों का क्या होता होगा
जो पहले पहल बिदा करते होंगे अपनी बेटी को।

🍂
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवं।
आद्ये व: कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्।।

अरे तपोवन के तरुओं !
तुम्हें पिलाये बिना जो कभी पानी नहीं पीती थी ,
सजने-सँवरने को लालायित रहते हुए भी
स्नेहवश तुम्हारे पल्लवों को हाथ नहीं लगाती थी ,
तुममें जब-जब फूल खिल उठते
तब-तब वह उत्सव मनाती , नाचती-कूदती ,
वही शकुन्तला जा रही अपने पिया के घर ,
तुम सब इसे प्रेम से बिदा करो।

🍂
अस्मान्साधु विचित्य संयमधनानुच्चै: कुलं चात्मन-
स्त्वय्यस्या: कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम्।
सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया
भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभि:।।

राजन् ! कहाँ तो हम सीधे-सादे
संयम को ही अपना धन समझने वाले लोग ,
और कहाँ आप ऊँचे कुल के राजाधिराज ।
अपनी इच्छा से आपने
इस कन्या से विवाह कर तो लिया है,
अब इतना ही कीजिये
कि अपनी अन्य रानियों के समान ही
इसे आदर अवश्य दीजियेगा।
इससे बढकर कुछ और मिले
तो यह मेरी बेटी का भाग्य।
उसके लिये हम बेटी वाले
भला कह भी क्या सकते हैं।

🍂
शुश्रूषस्व गुरून्कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने
पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधयः।।

बेटी ! पति के घर में
सब बड़े-बूढों की सेवा करना ,
सौतें होंगी , उनकी प्रिय सखी बनकर रहना,
पति कभी अनादर कर दे
तो क्रोधावेश में विपरीत मत चले जाना,
परिजनों के साथ प्यार से रहना ,
अपने भाग्य पर इठलाना मत।
जो युवतियाँ घर में इस तरह रहती हैं
वे ही सच्ची गृहणियाँ हैं ,
विपरीत चलने वाली स्त्रियाँ तो
कुल का नाश ही करती हैं।

उधर कुमारसम्भवम् की शुरुआत ‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ से होती है , लेकिन शिव का वरण करने के लिये पार्वती की अखंड तपस्या आज भी लोक में दाम्पत्य के सौभाग्य का सर्वोच्च आदर्श बनी हुई है।शिव-पार्वती के विवाह में जो लोकाचार कालिदास ने रस ले- लेकर दिखाये हैं,वह लौकिक आनंद की पराकाष्ठा है।कुमार कार्तिकेय के जन्म की कथा में जो लोक-तत्व हैं , वे कालिदास की मौलिक अभिव्यञ्जना के साथ आते हैं। कुमारसम्भव के पाँचवे सर्ग में पार्वती और ब्रह्मचारी का संवाद अत्यंत लोकरंजक है।

कालिदास के सभी भरतवाक्यों में लोकजीवन के समृद्ध होने की प्रार्थना की गूँज सुनाई देती है। “प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिव: सरस्वती श्रुतिमहती
महीयताम्” और “सर्वस्ततरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु। सर्वः कामान- वाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु” या फिर ” संगतं श्रीसरस्वत्योर्भूतयेऽस्तु सदा सताम्।” सर्वत्र लोक कल्याण का ही भाव मुखर है।

दो सहस्राब्दियाँ बीत जाने के बाद भी कालिदास का यश फैलता रहा है, तो उसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि उन्होंने लोगों के लिये लिये लिखा, लोगों के हृदय में उतर कर लिखा था।

मुरलीधर चाँदनीवाला

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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