क्या सचमुच जागरुक हैं हम ? कितने जागरुक हैं हम ? ये सवाल बड़े अटपटे से लगते हैं न। हम कहीं उतने ही जागरुक तो नहीं जितना वे चाहते हैं ? अब ये चाहने वाले कौन हैं कि हम जागरुक हों ? प्रश्न पर प्रष्न निकलते जा रहे हैं लेकिन कोई जवाब नहीं मिल रहा। कहीं जागरुकता के नाम पर हमें बेवकूफ तो नहीं बनाया जा रहा ? लो फिर एक सवाल वह भी समझ से परे क्योंकि जागरुकता और बेवकूफ में तालमेल ही नहीं बैठता। क्योंकि कोई जागरुक होकर बेवकूफ कैसे हो सकता है।
यही तो सोचना है। बहुत से बड़े लोग चाहते हैं कि हम जागरुक बनें। परन्तु ये समझ में नहीं आता कि उन बड़े लोगों को हमारी जागरुकता से क्या फायदा पहुँचेगा। लेकिन ये सच है कि बड़े लोग हमें जागरुक बनाना चाहते हैं लेकिन उतना ही जागरुक जितना वे चाहते हैं उससे ज्यादा नहीं।
सबसे पहले स्वास्थ्य जागरुकता अभियान। वे कहते हैं कि पीने का पानी शुध्द होना चाहिए। उन्होंने कहा और हम जागरुक हो गए और हम बोतल बंद पानी खरीदने के लिए मानसिक रुप से तैयार हो गए। जागरुक बनाने वालों ने विदेषी कंपनियों को इशारा कर दिया कि हमने तुम्हारा पानी का बाजार तैयार कर दिया है अब आओ और हमारी सरजमीं का पानी हमारी ही जनता को बेचो और हमारा जागरुक बनाने का मेहनताना हमें देते रहना। बस फिर क्या था हमारे जागरुक होते ही हमारा ही पानी हमें बोतल में बंद करके, लेबल पर कितनी एनर्जी है पानी कितना शुध्द है लिखकर हमें बेचा जाने लगा। वे जानते हैं कि खरीदने वाला तो पानी की शुध्दता की जाँच करने से रहा। वह पानी पीकर प्यास बुझाएगा या उसकी गुणवत्ता की जाँच करवाएगा।
अब हम जागरुक हो गए हैं और 20 लीटर पानी 90 रुपए तक में खरीद रहे हैं अर्थात रु. 4.25 प्रति लीटर। इनकी ही आढ़ में हमारी जागरुकता का फायदा हमारे यहां के लोग भी उठाने लगे उन्होंने भी कुछ कम कीमत पर पानी बेचने का धंधा कर लिया।
आज कल बाजार में हर खाने पीने के पैकेटों पर उनमें क्या क्या मिला है तथा ऊर्जा, वसा, प्रोटीन आदि का विवरण इतने छोटे और अंग्रेजी में छपा होता है कि कुछ लोग तो पढ़ भी नहीं पाऐंगे, जो पढ़ सकते हैं उनके पास पढ़ने का समय नहीं है अगर किसी ने पढ़ भी लिया तो वह बेचारा कैसे जाँचेगा कि जो पैकेट पर लिखा है वह वास्तव में सही है भी या नहीं। लेकिन इन सब की आढ़ में उस उत्पाद को वास्तविक कीमत से काफी अधिक कीमत पर बेचा जाता है।
बीते दिनों बोतल बंद पानी तथा कोल्ड ड्रिंक में भी अशुध्दियों के समाचार अखबार में प्रकाशित होते रहें है। लेकिन वे अशुध्दियाँ तो वे होती हैं जो ऑंख से देखी जा सकती हैं जो नहीं देखी जा सकती उनका क्या। क्या ये जरुरी नहीं हैं कि हम इस बाजारवाद के पेंचों को समझे। कोई शुध्दता के नाम पर, कोई धर्म के नाम पर, कोई भावनात्मक रुप से हमें लूटता है। किसी कंपनी के विज्ञापन में एक लाईन है कि यदि आप उसका उत्पाद खरीदते हो तो आप अप्रत्यक्ष रुप से एक बच्चे को शिक्षित करने में योगदान करते हो। सोचिये कितने लोगों ने उसका उत्पाद खरीदने से पहले यह जाकर देखा होगा कि वह कंपनी कहाँ व कितने बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन कर रही है या फिर उसने फ्री में शिक्षा देने का प्रबंध कर रखा है।
हमें जागरुक बनाने के पीछे वास्तव में वे हमारे शुभचिन्तक होने के बजाय अपना बाजार तैयार करते हैं। तथा जो चीज हमें आसानी से उपलब्ध हो जाती है वह इन लोगों के विशाल आउटलेट पर सज जाती है तथा बड़ी चालाकी से बाजार में उसकी कमी दिखा दी जाती है। और हमारी जागरुकता को ये लोग अपने व्यापार का आधार बना लेते हैं। आज अगर शहरों में पानी की कमी होती है तो यह केवल इस लिए कि पानी जमीन से निकल कर बोतलों में बंद हो गया है। यही सोचने की बात है कि अगर पानी आसानी से उपलब्ध होगा तो इनकी बोतलें कौन खरीदेगा।
सोचिए क्या वास्तव में हम जागरुक हैं या फिर इन लोगों व्यापार का आधार। यदि हम सचमुच जागरुक हैं तो पानी की बर्बादी रोकिए।
हम विकास के नाम पर बड़ी तेजी से विनाष की तरफ बढ़ते जा रहे है। शायद दो-तीन साल पहले मैंने हरियाणा के एक राजनेता की हिदायत अखबार में पढ़ी थी उन्होंने किसानो का कहा था कि किसान गेंहूँ और चावल की खेती करना बंद करके ऐसी फसलों की खेती करें जिनमें पानी की कम जरुरत हो। बिजली का तो रोना रोया ही जाता रहता है। लेकिन यह सब किसानों के लिए था बिजली पानी की कमी किसानों के लिए थी आज उसी हरियाणा में बड़े-बड़े मॉल्स किसानों से कई गुना ज्यादा बिजली खर्च तथा पानी की बर्बादी कर रहे है। एक समाचार पत्र में छपा था कि मॉल्स प्रतिदिन एक लाख से पाँच लाख लीटर तक पानी बर्बाद करते है। आखिर इन पर कोई रोक क्यों नहीं है। सब्जी भाजी बेचने के लिए एयरकंडीषंड आउटलेट होना कितना सार्थक है। इन सब सवालों का कोई जवाब शायद ही हमारे राजनेताओं के पास हो। इसका कारण ये है कि मॉल लॉबी इन लोगों की जेबें भरते हैं जबकि किसान को तो कभी इस हालत में भी नहीं हो दिया कि वह अपना व अपने बच्चों का पेट भर सके तो वह इनकी जेबे कैसे भरेगा।
कहाँ होती है पानी की बर्बादी ?
आज शहरों में अमेरीकन टॉयलेट का चलन शुरू हो गया है एक बार में वहाँ दस लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। पानी आपूर्ति करने वाले षाम को बचे पानी को फेंक देते है (उन्हें तो इस पानी को फैंकने के लिए कहा जाता है क्योंकि पानी की कमी होगी तभी तो उनका व्यापार चलेगा) बहुत से लोग सुबह मोटर चलाकर भूल जाते हैं तथा टंकी भरने के बाद पानी बर्बाद होता रहता है। मैंने कई बार देखा गाड़ियों वाले मोटर चलाकर अपनी गाड़ी को धोते हैं तथा कम से कम एक हजार लीटर पानी बर्बाद करते है। जरा सोचिये इतने पानी से कितनों प्यासों की प्यास बुझेगी।