आज का अध्यात्म
आज चारों तरफ धार्मिक चैनलों पर सैकड़ों साधु-संतों ज्ञानी-ध्यानीयों ज्योतिष
ियों आदि द्वारा हर समय प्रवचन सुनाये जा रहे हैं समस्याओं के निदान सुझाये जा रहे हैं जगह-२ पर धार्मिक आयोजनों का बोलबाला है फिर भी मनु य का मन है कि शां होने का नाम नहीं लेता वह और और वितृ णाओं में उलझा जा रहा है क्योंकि जो इन्हें प्रवचन सुना रहे हैं वे भी इनसे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं तो जो सुन रहे हैं वे कहांॅ से मुक्त हो सकेंगे । हम लोगों ने परमार्थ के नाम पर कई दुकाने मंदिर ,मस्जिद ,गुरूद्वारे ,गिरीजाघर और अनाथालयों आदि के रूप में चला रखी है,जिसमें प्रत्यक्ष रूप से तो कोई व्यापार नजर नहीं आता है किंतु इनकी आड़में कई धंधे चल रहे हैं जिनमें सरकारी राजस्व की चोरी मुख्य रूप से है और आस्था के नाम पर दान दिया गया धन काले धन को सफेद करने की तरकीबें टैक्स भी बचालो और नाम भी कमालो । आजकल आश्रमों में कई घरेलू उपयोग की चीजें बना-२ कर बेचने का प्रचलन भी बढ़गया है जिसमें कोई टैक्स इत्यादि नहीं देना पड़ता है लागत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लगाना पड़ता है इन लोगों को श्रमिक भी रोटी की किमत में ही मिल जाते हैं तथाकथित धर्म के नाम पर मूर्खों की भी कमी नहीं है । उन्हे पता ही नहीं कि वे जिसे धर्म मानकर अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं वह तो केवल मान्यता है एक सिद्वांत है और सिद्वांत सत्य नहीं होता सत्य तो हरपल चुनौती है हरपल नवीन है वह तो हरक्षण नये सूरज की तरह उदित होता है हमारे सारे तथाकथित धर्म केवल सड़क पर बायें चलने के नियम की तरह ही है जिसका अर्थ केवल यही है कि आप सुरक्षित चलकर पहुंचे न आप स्वयं दुर्घटनाग्रस्त हों और न किसी को दुर्घटनाग्रस्त करें । धर्म तो स्व-भाव है और जितने लोग हैं , उतने स्व-भाव तो होंगे ही अर्थात जितने लोग है उतने ही धर्म हो सकते है उससे जरा भी कम नहीं चल सकते क्योंकि हर स्व-भाव हर दुसरे का अतिक्रमण कर जायेगा और वह स्वयं जो हो सकता है वह तो नहीं हो पायेगा और ये लोग इस बात को समझ नहीं पाते और वे बेचारे जो श्रम कर रहे हैं ,उसकी किमत उन्हे तो नहीं मिलती किंतु उनके तथाकथित आकाओं को जरूर मिलती है लाखों करोड़ों रूपयों की लागत से बने आश्रमों में वे अपने लिए सारी विलासिताओं का उपभोग करते हुए इनको तथाकथित धार्मिक साधनाओं के नाम पर समय की बर्बादी करके इनकी मासूमियत एवं निर्दो ाता को किसी धर्म विशेष के कठोर अनुशासनों के द्वारा इनकी मानवीयता को न ट करके एक विशेषप्रकार के अहंकार से भर देते हैं जिसमें वे अपने आपको कुछ विशिष्ट श्रेणी का समझकर असामान्य सा व्यवहार करने लगते हें जिसे हम लोग ईश्वर के रूप में कोई ाक्ति या सिद्धि का रूप मान बैठते हैं जो एक मदारीगीरी से अधिक नहीं होता, पता नहीं यह सब सदियों से चला आ रहा है और लोग भी अजीब हैं ईन्हीं सब ढोंग और पाखंड में अपने भीतर छिपी स्वयं की सामर्थ्य से जीवन भर अनभिज्ञ रहते हैं और फिर अगले जन्मों की यात्राओं की तैयारी में जुट जाते हैं यदि आप मेरी बात को समझ पा रहे हैं तो आज ही निश्चय करें और अपने शरीर के ही प्रति सजग होना शुरू करें क्योंकि शरीर प्रकृतिजन्य है और यह मन जो है संसार के द्वारा थोपे गये आचरणों से पैदा हुआ है इसलिए दोनों के बीच में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता है और ज्योंही हम शरीर के प्रति सजग होना शुरू करते हैं इसकी सारी व्याधियों के बारे में समझ आने लगती है जिसका शरीर स्वस्थ होगा उसी स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हो सकता है और जब शरीर एवं मन दोनों स्वस्थ होते हैं तो जो कुछ भी इन दोनों के द्वारा किया जाता है कहा जाता है वही सत्य के करीब हो सकता है सत्य को कभी भी जाना नहीं जा सकता है नहीं जाना जा सका है जिसने भी जाना वह उसे कह नहीं सकता है कहने की कोशिश भी करता है तो मात्र गूंगे बहरों की तरह इशारे के अलावा कुछ भी नहीं कर पाया चाहे वह वेदपुराण बाइबिल या कुरान जैसा भी ाास्त्र रच दे तबभी उस अनंत तत्व को कह पाने की क्षमता किसी में भी नहीं आ सकी है नहीं आ सकती है और न कभी आयेगी जैसे कि मनु य ने बहुत सारे आवि कार किए वे सारे आवि कृत वस्तुऐं या साधन मनु य को जानने का दावा कर सकते हैं क्या ? तो हम मनु य उस परम अविनाशी तत्व को जानने के दावे क्यों करते हैं ?हमें तो केवल और केवल सच्चे समर्पण की ही आवश्यकता है । जिसके लिए महाप्राण की उपासना से बढ़कर कोई उपाय नहीं है जो कि आपको पूर्ण स्वास्थ्य एवं आत्मानुभव से प्लावित करदेगा महाप्राण और कोई नहीं हमारे आसपास हरतरफ मौजूद रिक्ताकाश में स्थित सघन प्राणों का समुद्र ही है महाप्राण जिसमें हम सभी प्राणी जल में मछली की तरह रहते हैं वही तत्व कण-कण में व्याप्त है जिसे जानकर कुछ भी जानना  नहीं रहता जिसकी साधना से तन और मन दोनों स्वस्थ होकर परम आनंद का अनुभव कर सकते हैं इसके लिए कोई प्रतिबंध भी नहीं है कि कितना समय कौनसा समय या कैसा मुहूर्त इसे तो हरघड़ी हरपल सजग रह कर ही किया जा सकता है इसमें केवल सांसों के प्रति सजगता पूर्ण निरीक्षण एवं हरएक कार्य को एक उपासना समझकर आनंद के साथ करना । अभ्यास हो जाने पर २४ घंटे में जब चाहें उस स्थिति में स्थिर हुआ जा सकता है । और देखते ही देखते आप इन तथाकथित गुरूडम की भूलभुलैया में उलझने से बच जायेंगे । इस साधना में आपको केवल अपने आप पर विश्वास की आवश्यकता है आप अपने आपको कितना महत्व देते हैं इस साधना के करते समय आपको समझ मे आने लगेगी कि आप स्वयं का वास्तव में कितना सम्मान करते हैं यूं तो सभी अपने आप को महत्व देते से प्रतीत होते हैं किंतु वास्तविकता कुछ ओर ही होती है हम सदा ही दूसरों की राय पर अपने आपको खरा उतारने की होड़ में लगे रहते हैं और जीवन भर स्वयं को अनदेखा करते हैं और यह साधना आपको अपने होने की अनुभूति से परिपूर्ण कर देगी जो वास्तविकता होगी जिसे जान कर आप चमत्कृत रह जायेंगे कि वास्तव में जो कुछ हम बाहर खोज रहे हैं वह हमारे भीतर ही था बस हमें पता भर नहीं था इस साधना में आपकी सफलता की कामना के साथ आपका मित्र ।

मेरे विचार एवं अनुभव
१ .मनु य जीवन ही ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनमोल
उपहार है यह मिलने के बाद भी हमारा
भिखारी पन नहीं मिटना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है ।
२ यह शरीर ईश्वर द्वारा हमें दिया गया अदृभुत वाहन है जिसके चालक के रूप में हमारी जिम्मेदारी है कि इस वाहन के चलाने एवं रख रखाव संबंधी सारी सावधानी का हमें भली प्रकार ज्ञान होना ही चाहिए ।
३ ईश्वर प्राण के रूप में ही हमारे साथ निरंजन निराकार सतत साथ रहता है ।
४ दृि टगोचर सारी वस्तुएंे ईश्वर का साकार रूप ही है क्यों कि ईश्वर के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नहीं है । यह बात अलग है कि हमें कुछ वस्तुएं अच्छी लगती है वहीं कुछ बहुत बुरी यह हमारे नैसर्गिक गुणेंा के कारण आभास होता है ।
५ ईश्वर सज्जन और दुर्जन दोनों में समान रूप से व्याप्त है दोनो के ईश्वरत्व में तनिक भी कमी नहीं होती ।
६ जीवन केवल नजरिये का खेल है इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं जैसे निराशावादी व्यक्ति हमेशा दो अंधेरी रातों के बीच एक दिन देखेगा वहीं आशावादी कहेगा कि दो उजालों से भरे दिनों के बीच एक ही अंधेरी रात है ।
७ स्वयं को जानने की तरफ उठाया गया हर कदम सत्य की तरफ ही ले कर जाता है और संसार की तरफ ले जाने वाला हर कदम सत्य से भटकाता है । सारी ज्ञान की बातें केवल कोरी बकवास ही है जब तक कि वह हमारी अनूभूति नहीं हो जाए ।
८ सारे संसार को कोई न तो बदल सका था न बदल सका है और न बदल सकेगा जिसने भी बदला है स्वयं को बदला है और तभी संसार को बदला हुआ पाया है ।
९ हमें वर्तमान जीवन में न तो धार्मिकता न आस्तिकता न नास्तिकता और न ही नैतिकता की आवश्यकता है हमें स्वास्तिकता की आवश्यकता है क्योंकि उन चारों को हम काफी विकृत करचुके है वे सारे पाखंड का रूप ले चुके हैं आज हमें अगर बचा सकता है तो वह स्वास्तिकता ही है क्योंकि यही स्व से पैदा होती है और जो स्वयं पर आस्तिक हो जाता है वह देर अबेर जान ही लेता है कि सत्य कहीं और नहीं स्व में ही स्थित था सारी भटकन व्यर्थ सिद्ध होने लगती है ।
१० आत्म साक्षात्कार होने के बाद कोई भी आत्मसाक्षात्कारी शास्त्रों की बात नहीं करता उसके द्वारा कही गई हर बात शास्त्रों से बढ़कर होती है क्योंकि शास्त्र तो अतीत हो चुके होते हैं साक्षात्कारी सदा वर्तमान होता है ।
११ भगवान और इश्वर में जमीन आसमान का अंतर है ईश्वर एक है और भगवान अनेक है भगवान का अर्थ जिसने कोई न कोई योनि धारण की हुई हो । हम सभी प्राणी मात्र भगवान ही हो सकते हैं भगवान से तनिक कम नहीं केवल ईश्वर नहीं हो सकते केवल ईश्वरत्व की झलक मिल सकती है वह भी परम शुद्धत्व की उपलब्धता के पश्चात ही सम्भव है


कमलकांत स्वास्तिक
मई
3, 2006
 

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