मण्डल-आरक्षण के सोलह साल


मण्डल कमीशन की सिफारिशों के आरक्षण को लागू हुए इस महीने सोलह साल पूरे हो रहे हैं। इन सोलह सालों में भारतीय समाज के जातिगत ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। कहना ना होगा कि इन परिवर्तनों के मूल में कहीं न कहीं मण्डल फार्मूले का भी हाथ रहा है। हमारा सामाजिक ताना-बाना कुछ और जटिल तथा संश्लि ट हुआ है। जातिवादी भेदभाव और गहरे हुए हैं। हमारी सामाजिक पहचान को जाति-व्यवस्था ने दलित,पिछड़े,अगड़े,सवर्ण और अल्पसंख्यक जैसे दायरों में और अधिक मजबूती से जकड़ दिया है। क्या यह सब मण्डल आयोग के चलते हुआ है? या हमारे भारतीय समाज में पहले से ही इस विभाजन की गंुजाइश बची हुई थी? सोलह सालों के इस काल-खण्ड में क्या वह सामाजिक व्यवस्था आकार ले सकी है, जिसका सपना देखा गया था? या वही पुरातन ब्राह्मणवादी-सामन्तवादी व्यवस्था गहरी हुई है, जिसके खात्मे के लिए सोलह साल पहले कथित रूप से मण्डल आयोग का बोतल में बन्द जिन्न बाहर निकाला गया था?

यह अवसर इन जैसी तमाम बातों पर सोचने विचारने का है कि इन सोलह सालों में हमने आरक्षण से क्या खोया, क्या पाया? मण्डल की काट के लिए कमण्डल का जो खेल खेला गया था वह आज पता नहीं किस बियाबान में खो गया है और कमण्डल की राजनीति चारों खाने चित दिखाई पड़ रही है। मण्डल ने जो जातिवादी पहचान भारतीय समाज को दी थी, उसे साम्प्रदायिक राजनीति ने भले ही कुछ समय के लिए धूमिल कर दिया हो, किन्तु यह मण्डल की ताकत ही थी, जिसने समूचे हिन्दू समाज को अन्तत: जाति के आधार पर ही वास्तविक पहचान के लिए न केवल बाध्य किया, बल्कि जातिवादी अस्मिता विमर्श को नये आयाम भी दिए। आज यही अस्मिता विमर्श क्या दलित, क्या पिछड़े और क्या अगड़े, सभी का प्रिय विमर्श बन गया है। इस विमर्श के अन्तिम परिणाम चाहे जो हों, इसने भारतीय हिन्दू समाज के बारे में उस पुरानी अवधारणा को और पु ट ही किया है जिसके अनुसार वह वर्णाश्रम और जातिवाद पर टिका हुआ है। यानी भारतीय हिन्दू समाज अपनी पुरातन कट्टर ब्राह्मणवादी और सामन्तवादी छवि को इस इक्कीसवीं सदी में भी छोड़ने को तैयार नहीं है।


मण्डल के बाद भारतीय समाज में जो सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह है दलितों और पिछड़ों में अपने अधिकारों और न्याय के लिए निरन्तर संघ र्ा की चेतना का अभूतपूर्व अभ्युदय। इस चेतना ने दलित-पिछड़ों को सामाजिक और राजनैतिक तौर पर भी एक नई ाक्ति के रूप में स्थापित किया है। इससे भारतीय समाज का सांस्कृतिक और राजनैतिक परिदृश्य ही बदल गया है। सामाजिक रूप से अभी तक जो जाति समुदाय बहुत ताकतवर और प्रभावशाली माने जाते थे, अब उनका स्थान दलित पिछड़ी जातियों ने ले लिया है। सामाजिक ाक्ति केन्द्रों का यह विस्थापन भारतीय समाज की नई संरचना को प्रतिबिम्बित करता है, जिसमें पुराने जर्जर हो चुके ाक्ति केन्द्र हाशिये पर चले गये हैं।

दलित-पिछड़ों को इस प्रकार ाक्ति-सम्पन्न होता देखना अगड़ों को नहीं सुहाया, इसलिए उन्होंने भी आरक्षण की बैसाखी के सहारे दलित-पिछड़ों को हाँकने की नई रणनीति पर काम करना ाुरू कर दिया और आज हालत यह है कि सारे सवर्ण आरक्षण माँगने के लिए आन्दोलित हो रहे हैं। आरक्षण आखिरकार एक उपकरण ही तो है सामाजिक न्याय का और इस उपकरण से सामाजिक न्याय उन्हीं को मिलना चाहिए जो इसके हकदार हैं। अगड़ों के साथ कोई अन्याय थोड़े हुआ है जिसकी बिना पर कोई भी समुदाय आरक्षण का अधिकार जताता है। वैसे भी आठ फीसदी लोगों को अस्सी फीसदी लोगों के हिस्से में कैसे भागीदार बनाया जा सकता है? जबकि आज भी देश के मौजूदा उपलब्ध संसाधनों और सम्पत्ति के तीन चौथाई हिस्से पर इन आठ फीसद लोगों का ही कब्जा है। क्या देश हित में वे यह कब्जा छोड़ने को तैयार होंगे?

मण्डल आरक्षण के पिछले सोलह सालों में दलित-पिछड़े जिस प्रकार भारतीय समाज की मुख्यधारा में ही नहीं बल्कि अग्रिम पंक्ति में आये हैं वह हमारे विकासशील लोकतंत्र और सांस्कृतिक बहुलता वाले देश के लिए एक सकारात्मक परिवर्तन का संकेत है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो आने वाले समय में दलित-पिछड़े भारतीय समाज में और अधिक निर्णायक भूमिका में नजर आयेंगे।

प्रेमचन्द गाँधी
अगस्त 15, 2006
 

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