सांस्कृतिक परिदृश्य और नये संचार माध्यम


किसी देश या जातीय-समूह की संस्कृति को समझने का अर्थ है उस देश या समूह-विशेष के समूचे जीवन-व्यवहार, उसके इतिहास, बुनियादी ढांचे और उसके समग्र स्वरूप को समझने का प्रयास। यह काम सरल नहीं है और न मानवविज्ञान, समाजशास्त्र या दर्शनशास्त्र के बने-बनाए सामान्यीकरणों से इसे पूरी तरह समझा ही जा सकता है। एक समाज-विशेष की संस्कृति की बहुत-सी समानताओं के बावजूद उसकी आन्तरिक बनावट, अन्त:प्रकृति, बाह्य स्वरूप और उसका बरताव अपने आप में अलग ही होता है, जो उसे विशिष्टता प्रदान करता है।

यों तो संस्कृति के अलग-अलग पक्षों और पहलुओं पर, उसकी शाखाओं-उपशाखाओं पर पिछले एक अरसे से बराबर अनुसंधान होता रहा है और उसके निष्कर्ष भी चर्चा का विषय बनते रहे हैं लेकिन कोई भी अध्ययन या अनुसंधान अपने आप में पूर्ण या अंतिम होने का दावा नहीं कर पाता। अधिकांश अनुसंधानकर्त्ता या तो इसकी विविधता पर मुग्ध होते रहे हैं, कुछ चकित हैं, कुछ गहरे चिन्तन में डूबे हैं और कुछ परम चिन्तित ! इस अध्ययन और अनुसंधान की विषयगत चिन्ताओं से मुक्त कुछ दुनियादार लोग ऐसे भी हैं, जोे इस सांस्कृतिक-उपक्रम का सामयिक लाभ भली-भांति पहचान चुके हैं और उसके जरिये अपना हित साधने-संवारने में पूरी तरह सतर्क और सक्रिय हैं। उन्हें कभी कोई अपराध-बोध या आत्म-चिन्ता नहीं घेरती। वैसे भी पूंजीवादी समाज में कला और संस्कृति की यह दशा होती आई है - वजह शायद यह भी रही है कि जब मनुष्य का निजी अस्तित्व और उसकी अस्मिता ही अंधेरे में डूबी दिखाई दे, तो कला-संस्कृति की चिन्ता कौन करे? लेकिन एक जागरूक समाज में यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं चल सकती। अहम सवाल इस स्थिति के सिर्फ अध्ययन-अनुसंधान का नहीं, बल्कि जान-समझ लेने के बाद उसे बदलने का है।

आज संस्कृति को ऐसे भिन्न अर्थ और रूप में समझने और समझाने की जरूरत है कि हम अपनी खामियों और खूबियों को पहचानते हुए, अपने भावी विकास के लिए सही मार्ग चुन सकें। संस्कृति अपने पुरखों के सामूहिक इतिहास, उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, उनके आचार-व्यवहार, जीवन-दर्शन, रीति-रिवाज और सामाजिक आचरण सहित अपने मौजूदा जीवनऱ्यथार्थ से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। वह उस समाज की विकास-प्रक्रिया के साथ ही विकसित हुई है और उसका स्वरूप निरन्तर बदलता रहा है।

चिन्ता की बात यह है कि एक ही अंचल में बसने वाले जातीय-समुदाय, एक ही तरह की भाषा, आचार-व्यवहार और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़े हुए लोगों के बीच आज अलगाव और विभेद की खाइयां गहरी और चौड़ी हो गई हैं - मेल-मिलाप और संघर्ष के उलझे हुए रिश्तों का संतुलन आज सिरे से बिगड़ गया लगता है और यह परिस्थिति विशेष रूप से आजादी के बाद के इन पचास-पचपन वर्षों में और भी भयावह होती गई है। भारतीय समाज की इस दशा में सुधार, आजादी के बाद के सालों में हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है। आज यह समस्या जितनी विकट और व्यापक रूप धारण कर गई है, जहां हर प्रयत्न अपर्याप्त साबित होता जा रहा है, वहां कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले जन-संचार माध्यमों के जरिए किसी बड़े परिवर्तन की आकांक्षा रखते हुए संकोच-सा होने लगता है। यह बात दूसरी है कि इस बदली हुई परिस्थिति में जन-संचार माध्यम ही सबसे अधिक मुखर हैं, क्यों कि यह बदली हुई जीवन-शैली उसी में अपना अक्स देखती है और अपने आप को उत्तरोत्तर आकर्षक और जीवन-चर्या को और अधिक आरामदायक बनाने का प्रयत्न करती है।

जिस देशकाल में हम जी रहे हैं, वहां चारों ओर - हमारे आस-पास और समूची दुनिया में, ऐसा बहुत-कुछ घटित हुआ है, जिसने हमारे अस्तित्व और आस्था को झकझोर कर रख दिया है। जीवन और जगत के बारे में हमारा अर्जित किया हुआ ज्ञान, सामाजिक आचरण और जीवन-मुल्य आज समय के कठघरे में नि:शब्द खड़े हैं। यह सिर्फ एक ऐतिहासिक ढांचे के टूटने का मसला नहीं है और न ही किसी की आस्थाओं के आहत होने का प्रसंग भर, बल्कि यह उससे भी कहीं अधिक गहरा ऐसा आघात है या कि अनिष्टकारी आशंकाओं से भरा हुआ ऐसा दु:स्वप्न है, जिसने देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे और हमारी लोकतांत्रिक व्यस्था के सामने कठिन चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। बेशक ऊपरी तौर पर यह एक राजनीतिक या एक समुदाय-विशेष की धार्मिक-आस्था से जुड़ा मसला दिखाई दे, लेकिन इसके बुनियादी कारणों को जानने और इसे समग्रता में समझने के लिए हमें इसे अपनी समूची सांस्कृतिक विरासत और उससे जुड़ी सांस्कृतिक प्रक्रिया के बीच रख कर देखना औैर समझना होगा। हमें अपनी प्राथमिकताएं भी नये सिरे से तय करनी होंगी। उन लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और मनसूबों को भी बेनकाब करना होगा, जो इसकी आड़ में आम लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ करने में कतई संकोच नहीं करते।

नयी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद भारतीय समाज में आज भी परम्परागत संचार माध्यमों का अपना महत्व है। दुनिया के कुछ विकसित और विकासशील समाजों में जहां परम्परागत माध्यम नये इलैक्ट्ॉनिक माध्यमों के साथ पहले जैसा स्थान बना कर नहीं चल पा रहे हैं, इनके बहुत से कला-रूप और प्रकार प्राय: लुप्त-से होते जा रहे हैं, वहीं भारत में यह स्थिति काफी भिन्न है। यहां इस तथ्य को आज भी अनदेखा नहीं किया जाता कि इस देश के हर प्रान्त में आदिवासी संस्कृतियां हैं और उनके परम्परागत रूप आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं। वे उन लोगों के बीच आज भी संवाद के सबसे प्रभावशाली माध्यम माने जाते हैं। ऐसे में उन माध्यमों को नजरअन्दाज करके किसी नयी प्रौद्योगिकी या तकनीक पर जरूरत से ज्यादा जोर देना या उसी पर निर्भर हो जाना, संभव नहीं है।

भारतीय फिल्मों के अनुभव से इस बात को बेहतर से सीखा और समझा जा सकता है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत और पारम्परिक माध्यम इस नये कला-माध्यम को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने में कितने कारगर और मददगार साबित हुए हैं। इस फिल्म मीडिया ने फिल्म की विषयवस्तु के चयन, अभिनय की कला, फिल्म-निर्माण की प्रक्रिया और उसके समग्र विन्यास में नयी से नयी तकनीक का प्रयोग करते हुए उसकी संगीत रचना और प्रभाव-संयोजन में इस पारम्परिक विरासत का भरपूर उपयोग किया गया है। भारतीय फिल्मों के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत उन्हीं पारम्परिक कर्णप्रिय लोकधुनों और यहां के शास्त्रीय संंगीत की ही देन रहे हैं। महानगरीय सभ्यता में पाश्चात्य संंगीत की आक्रामक सैंध और दबाव के बावजूद व्यापक भारतीय जन-मानस पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई देता, वह आज भी अपने परम्परागत शास्त्रीय संंगीत और लोक-संगीत के प्रति उतना ही गहरा लगाव रखता है।

सभी भारतीय भाषाओं में नाट्य-लेखन और नाट्य-प्रदर्शन की एक सुदीर्घ परम्परा विद्यमान रही है। ये नाट्य-आयोजन जनता के बीच संवाद और सम्प्रेषण का प्रभावशाली माध्यम रहे हैं। हमारे इतिहास और मानवीय अनुभव का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं के जरिये हम तक सुरक्षित पहुंचा है। जन-संचार का कोई भी नया माध्यम संवाद के क्षेत्र में इस विरासत की अनदेखी नहीं कर सकता।

हमारे यहां लोक-वार्ता की भी एक सुदीर्घ वाचिक-परम्परा विद्यमान रही है। भारतीय कथा-साहित्य की विपुल लोक-सम्पदा इसी परम्परा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होती रही। न केवल कथाएं, बल्कि दर्शन, प्राकृतिक विज्ञान, समाज-विज्ञान और कला-संस्कृति की गतिविधियों और उपलब्धियों का संचित और अर्जित अनुभव इसी वाचिक-परम्परा के माध्यम से संरक्षित और विकसित हो पाया है।

कागज और लेखनी का प्रयोग भी यों तो विश्व में शताब्दियों पुराना माना जाता है और अलग अलग देशों में उसके भिन्न रूप भी प्रचलित रहे हैं, आज वे रूप विलुप्त भी हो गये हैं, लेकिन भारत जैसे देश में यह परम्परागत माध्यम आज भी उतना ही लोकप्रिय माना जाता है। यहां तक कि कागज और लेखन-सामग्री की नयी तकनीकों के बावजूद हाथ के बने कागज और अन्य सामग्री का प्रचलन देश के किसी भी हिस्से में बन्द नहीं हुआ है। दरअसल निरक्षरता औैर गरीबी ने भारतीय जनता के तीन-चौथाई हिस्से को बरसों तक इस माध्यम से दूर रखा इसके बावजूद संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक शास्त्रीय ग्रंथ और सांस्कृतिक धरोहर इसी माध्यम से सुरक्षित रहकर आधुनिक युग तक पहुंची है। यद्यपि प्राचीन और मध्यकालीन संत कवियों के अनेक महाकाव्य और लोक-गाथाएं तो उस वाचिक परम्परा के माध्यम से ही लोक में प्रचलित और सुरक्षित रही हैं। यही कारण है कि कबीर, सूर, नरसी, नामदेव, तुलसी, मीरा, दादू, रैदास आदि संत कवियों की असंख्य रचनाएं अलग अलग हलकों में अलग अलग तरीकों से गाई-दोहराई जाती हैं और ये सभी रूप लोक में मान्य हैं। युरोप में औद्योगिक क्रान्ति के प्रसार और एशियाई देशों में उत्तर मध्यकाल के दौरान छापेखाने की तकनीक के उद्भव के साथ ही जिस प्रभावशाली मुद्रण माध्यम का विकास हुआ, उसने संवाद और संप्रेषण के क्षेत्र में एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक आते ज्ञान के हर क्षेत्र में मुद्रण-माध्यम ने अन्य सारे मााधयमों के प्रभाव और क्षमता को अपने में समेट लिया।

देश के पहले स्वाधीनता संग्राम, सन् १८५७ की राज्य-क्रान्ति के बाद तो समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और मुद्रित सामग्री के माध्यम से समूचे भारतीय जन-मानस में स्वाधीनता, स्वाभिमान और राष्ट्ीय भावना का प्रसार करने लिए जिस प्रकार पारम्परिक माध्यमों और नये जन-संचार माध्यमों, विशेषत: प्रिण्ट मीडिया का खुलकर उपयोग हुआ, उसने पहली बार समूचे देश को एक सूत्र में पिरो दिया। समूचे देश में समाज-सुधार और पुनर्जागरण की एक लहर-सी फूट पड़ी। देश की जनता को भी पहली बार इन माध्यमों की शक्ति और इनके व्यापक प्रभाव का अहसास हुआ। राज्य-सत्ताएं यों तो हर युग में अपने समय के संचार माध्यमों और उनके जरिए अभिव्यक्त होने वाली जन-भावनाओं पर कड़ी नजर रखती रही है, लेकिन राज्य-सत्ता के इस व्यवहार पर अपना प्रतिरोध दर्ज कराने का मनोबल और संगठित प्रयास इन नये माध्यमों की शक्ति जान लेने के बाद ही संभव हो पाया। इससे न केवल जनता को अपनी सामुदायिक शक्ति का बोध हुआ, उसे इन माध्यमों की सीमाओं और उनके सामने उपस्थित चुनौतियों से भी रूबरू होने का अवसर मिला। पहली बार इन माध्यमों को और उन्नत तकनीक से लैस करने और नये जन-संचार माध्यम विकसित करने की आवश्यकता को बल मिला। इसी प्रक्रिया के तहत कालान्तर में दूर-संचार, सिनेमा, रेडियो और टेलीविजन जैसे सशक्त माध्यम अस्तित्व में आए और उन्हें व्यापक जन-समर्थन भी मिला।

भारतीय सिनेमा ने अपने सफर के जहां सौ साल पूरे कर लिए हैं, एक विश्वसनीय लोक-प्रसारण माध्यम के रूप में आकाशवाणी ने अपने गौरवशाली सत्तर वर्ष और दूरदर्शन ने ४५ वर्ष की अवस्था पार कर अब व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा वाले सैकड़ों चैनलों के बीच अपनी अलग पहचान बना ली है। गुजरे सालों में जन-संचार के इन नये माध्यमों ने क्या-कुछ अर्जित और उपलब्ध किया, उसके विस्तृत ब्यौरे में न जाकर इतना ही रेखांकित करना पर्याप्त होगा कि आज जीवन का कोई भी क्षेत्र इन माध्यमों की पहुंच और उनके प्रभाव से अछूता नहीं है। उपग्रह-प्रणाली के विकास और दूरसंचार के क्षेत्र में आई नयी क्रान्ति ने आज सारी दुनिया की हलचल को समेट कर एक करिश्माई बक्से में उपलब्ध कर दिखाया है। सूचना, शिक्षण, संरक्षण औैर मनोरंजन का ऐसा विश्व-व्यापी आयोजन इसी माध्यम के कारण संभव हो पाया है। निश्चय ही यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बहुआयामी विकास का ही परिणाम है, लेकिन इस विकास के साथ मानवीय सभ्यता और संस्कृति के सामने कुछ गंभीर चुनौतियां भी उठ खड़ी हुई हैं, जिनका यदि समय रहते उपचार न खोजा गया, तो इसके परिणाम और भी गंभीर हो सकते हैं।

यह बात हम सभी जानते हैं कि आधुनिक समाज के निर्माण में जन संचार के इन विकसित माध्यमों की निर्णायक भूमिका रही है। आज यही माध्यम हमारी दिनचर्या को एक हद तक संचालित और नियंत्रित करते हैं। सामाजिक रूपान्तरण में भी इन माध्यमों की अहम भूमिका है। यह भी कहा जाने लगा है कि 'सूचना ही शक्ति है`, अर्थात् जो व्यक्ति, संस्था या समाज सर्वाधिक जानकारियां रखता है, उसी के हाथ में सारी शक्तियां केन्द्रित रहती हैं। यहां हम 'सूचना` को एक व्यापक अर्थ में ले रहे हैं, जिसके अनेक पहलू हैं।

हमारे देश और दुनिया में आज जिस तरह के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हालात हैं, हमारे अपने सामाजिक ढांचे में जिस तरह की सामाजिक विषमताएं और बुराइयां मौजूद हैं, जिस तरह की आर्थिक शक्तियां हमारे चारों ओर दबाव बनाए हुए हैं, अगर इन सब बातों की सही और सटीक जानकारी समय रहते जनता को उपलब्ध नहीं करवाई जा सकी तो एक लोकतांत्रिक देश में उसके नागरिक राष्ट्ीय मसलों पर आखिर क्या राय बना पाएंंगे? आधुनिक समाज में सूचनाओं के आदान-प्रदान का स्तर और प्रक्रिया जितनी प्रभावशाली होगी, उसके विकास की गति भी उतनी ही बेहतर होगी और जितना अधिक विकास होगा, वहां का सूचना-तंत्र भी उतना ही उन्नत होगा।

जन-संचार माध्यमों की इस सकारात्मक भूमिका के बावजूद यह एक तथ्य है कि यदि संचार माध्यम सही हाथों में नहीं हैं और वे आम जनता व्यापक हितों से नियंत्रित नहीं होते हैं तो उनकी विनाशकारी क्षमता भी कम नहीं है। साम्प्रदायिकता के सवाल को ही लें, जन-संचार माध्यम दोनों ही तरह की भूमिका अदा कर सकते हैं। अयोध्या विवाद के दौरान कुछ समाचार-पत्रोंे ने जिस तरह उत्तेजना पैदा करने वाली भूमिका निभाई, उसकी दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिक्रिया हम कुछ ही अरसे बाद गुजरात की घटनाओं में देख चुके हैं। खुद गुजरात की घटनाओं की रिपार्टिंग करने में वहां के कुछ अखबारों का जो रवैया रहा, वह तो और भी ज्यादा घातक और दुर्भाग्यपूर्ण रहा है, जिसकी मुख्य वजह थी, उसके पीछे की साम्प्रदायिक सोच। दूसरी तरफ व्यावसायिक सोच वाले अखबार और टी.वी. चैनल्स ऐसे अवसरों पर अपने को सबसे अधिक तेज और फुर्तीला साबित करने के लिए हर मसले को आधी-अधूरी जानकारियों के साथ जिस तरह सनसनीखेज बनाने की हड़बड़ी करते हैं, या कि अपने ही नैटवर्क द्वारा चलाए गये स्टिंग-ऑपरेशन्स पर आत्म-मुग्ध ढंग से सिस्टम में आई खराबियों और कमजोरियों पर चटखारे ले-लेकर बयानबाजी करते हैं, वे इस बात की कतई परवाह नहीं करते कि उनकी इस कार्रवाई से कितना भ्रम और कुहासा फैला है। औैर तो और वे कभी पलट कर ऐसे मसलों का क्या हश्र हुआ, यह जानने का प्रयास तक नहीं करते। सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने की दृष्टि से ऐसी कार्यवाहियां निश्चय ही महत्वपूर्ण हो सकती हैं, बशर्ते कि वे पूरी सोच-बूझ, ईमानदारी और बिना किसी राग-द्वेष या बाहरी दबाव के की जाएं और ऐसे मसलों का उसकी अन्तिम परिणति तक, पूरा फौलो-अप भी किया जाए, जो अमूमन नहीं हो पाता।

आजादी के बाद हमारे देश आर्थिक विकास में भी संचार-माध्यमों की भूमिका काफी विवादास्पद रही है। इन माध्यमों के जरिये जिस तरह का उपभोक्तावाद फैलाया गया है और जिस तरह के जीवन-मूल्य समाज पर थोपे जा रहे हैं, उनका आम जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं रहा है। व्यवस्था के इसी रवैये के कारण उसके परम्परागत मानवीय मूल्यों के सामने गंभीर खतरे उत्पन्न हो गये हैं। तमाम तरह की गैर-जरूरी चीजों के लुभावने विज्ञापन उन्हें इस या उस चीज को खरीदने लिए उत्प्रेरित करते हैं, चाहे लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं कुछ भी क्यों न हों। गरीबी, बेरोजगारी, जीवन की बुनियादी सुविधाओं के अभाव और सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों पर जैसे किसी की कोई जवाबदेही ही नहीं रह गई हैै। जन-संचार माध्यमों के पास भी इन्हें लेकर कोई संतुलित या संजीदा सोच विकसित नहीं हो पाई है।

सूचना और शिक्षा के साथ स्वस्थ मनोरंजन जन-संचार माध्यमों का एक प्रमुख दायित्व माना जाता है और प्राथमिकता में इसे हमेशा तीसरे क्रम पर रखा गया था, लेकिन पिछले कुछ सालों में यह स्थिति भी उलट गई है। खास तौर से मुक्त बाजार व्यवस्था और जन-संचार के क्षेत्र में बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के दखल के कारण सारा परिदृश्य ही बदल गया है। अब इलैक्ट्ॉनिक मीडिया के विभिन्न व्यापारिक चैनलों के बीच आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे लोक-प्रसारण के माध्यमोें को भी अपने अस्तित्व और दर्शकों पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अपनी प्राथमिकताओं के क्रम पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। व्यापारिक चैनलों ने स्वस्थ मनोरंजन की अनदेखी करते हुए, जिस तरह के उत्तेजक संगीत, नारी देह के अमर्यादित प्रदर्शन, हिंसा-बहुल धारावाहिकों और उद्देश्यहीन कार्यक्रमोें का सिलसिला बढ़ाया है, उस पर यदि समय रहते न सोचा गया तो इन चैनलों की चपेट में आए मध्य-वर्गीय परिवारों के टूटने और संस्कृति के क्षेत्र में फैलने वाले प्रदूषण से समाज को शायद ही कोई बचा पाए।

इन हालात में भारतीय प्रसारण माध्यम के प्रमुख केन्द्र आकाशवाणी दिल्ली के प्रसारण भवन के प्रवेश-द्वार पर अंकित राष्ट्पिता महात्मा गांधी के ये शब्द हमें आज भी उतने ही प्रासंगिक और प्रेरणादायी लगते हैं जो हमेशा खुलेपन और व्यापक मानवीय सरोकारों के हिमायती रहे। वे कहते थे - ''मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों ओर दीवारें खड़ी कर दी जाएं और खिड़कियां बन्द कर दी जाएं। मैं चाहता हूं, दुनिया के तमाम देशों की संस्कृतियों की हवाएं पूरी उन्मुक्तता से मेरी खिड़की से बहें। मेरे घर में कोई कैदखाने का धर्म नहीं चलता, लेकिन कोई हमें अपने धरातल से उखाड़ फेंके, इसे मैं स्वीकार करता हूं।``

नन्द भारद्वाज
 अक्टूबर 1, 2006

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