इक्कीसवीं सदी
की चुनौतियाँ और 'हिन्दी`
भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपनी भावनाओं और विचारों को किसी दूसरे
के समक्ष अभिव्यक्त करते हैं और दूसरे की भावनाओं और विचारों को समझते हैं।
इससे अलग भाषा की कोई और परिभाषा हो ही नहीं सकती। भाषा का संबंध मनुष्य और
समाज से है। भाषा कोई व्यक्तिगत् या
विशेष समूहगत् सम्पत्ति नही बल्कि वह एक सामाजिक निधि है। इसलिए सामाजिक
सरोकारों से परे कोई भाषा हो ही नहीं सकती।
किसी भी देश में राष्ट्र भाषा का सम्मान उस भाषा को ही प्राप्त होता है जो
देश विशेष में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोलीजाती है। निश्चित तौर पर भारत देश
का एक बहुत बड़ा जनमानस हिन्दी भाषा से परिचित है। इसलिए यह प्रस्तावितकिया
गया कि भारत में राष्ट्रभाषा का अधिकारी होने का सम्मान
हिन्दी भाषा को प्रदान दिया जाए। जैसे ही किसी को कोई भी अधिकार प्रदान
किया जाता हैं, कर्तव्य स्वयं ही निर्दिष्ट हो जाते हैं। और कर्त्तव्य पुन:
अधिकारों का सृजन करते हैं। अत: इन दोनों का एक दूसरे से पूरक संबंध है।
अधिकार कर्त्तव्यों के बगैर अधूरे होते है और कर्त्तव्यअधिकार के बगैर। इसे
एक छोटे से उदाहरण के साथ समझना उचित होगा। जैसे ही किसी भी दम्पत्ति को
माता-पिता बनने का अधिकार प्राप्त होता है वैसे ही उस दम्पत्ति
के कर्त्तव्य भी स्वयं ही निर्दिष्ट हो जाते हैं। उस नए बच्चे के प्रति
माता तथा पिता दोनों के अपने-अपने उत्तरदायित्व होते हैं जिन्हें वे किसी
के कहने
पर नहीं, स्वयं की शर्तों पर पूरी नैतिकता के साथ वहन करते हैं। जैसे
संस्कार वे रोपते हैं, बच्चा उसकी प्रतिक्रिया वैसे ही देता है।
बिल्कुल इसी तरह यही समीकरण ज्ञान के क्षेत्रा पर भी लागू होता है। किसी भी
भाषा के राष्ट्रभाषा के रूप में चिद्दित होते ही उसके दायित्वों में वृद्धि
होजाती है। अब यह भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं रह जाती बल्कि वह समूचे
राष्ट्र काप्रतिनिधित्व विश्व के समक्ष करती है। कभी भी भाषा का
संबंध केवल साहित्य से नहीं होता। साहित्य तो भाषा का एक पक्ष मात्रा है।
साहित्य समाज के समक्ष नई-नई चुनौतियों को लेकर खड़ा होता है, समाज को
मानवता के दृष्टिकोण से चिंतन मनन करने को बाध्य करता है।
जबकि भाषा का कार्य क्षेत्रा बहुत विशाल होता है। जीवन के प्रत्येक
क्षेत्रा को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा को सदैव चुनौतियों का सामना करना
पड़ता है। जीवन को संचालित करने के लिए अनुभव और ज्ञान के संतुलन की
आवश्यकता होती है। और अनुभव तथा ज्ञान नामक ये दोनों ही पक्ष
अपने किास के लिए भाषा की अतुलनीय समृद्धि की माँग करते हैं।
हिन्दी की लोकप्रियता आज कितनी बढ़ गई है इसका आकलन इस तथ्य से ही किया जा
सकता है कि दक्षिण भारत जो कभी इसका विरोधी था वहाँ आज लगभग प्रत्येक
विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग आरंभ हो चुके हंै। इतना ही नहीं तेलगु,
तमिल, कन्नड़ व मलयाली साहित्य का बड़ी तेजी से हिन्दी
में अनुवाद हो रहा है। दक्षिण भाषी हिन्दी अध्यापकबहुत बड़ी संख्या में इन
विश्वविद्यालयों में कार्य कर रहे हैं। इतना ही नहीे अभी हाल ही में
अमेरिका जैसे देश ने भी एशियाई देशों की राष्ट्रभाषा सीखने हेतु अपने
अकादमिक जगत को निर्देशित किया है, जिसमें हिन्दी को प्रमुख स्थान दिया है।
जहाँ तक साहित्यिक पक्ष का प्रश्न है नि:संदेह हिन्दी भाषा की रचनात्मक
क्षमता अपनी पूरी उर्जा के साथ यहाँ प्रकट होती है। अधिसंख्य लोग यह
संदेहप्रकट करते हैं कि अब पाठक वर्ग बहुत कम रह गया है तो प्रश्न यह भी है
कि हिन्दी की कितनी पत्रिाकाएँ लगातार प्रकाशित हो रही हैं। एक बड़ी
संख्या में घरेलू, मनोरंजनपरक पत्रिाकाएँ हमारे समक्ष हैं और कितनी
साहित्यिक पत्रिाकाएँ। फिर भी लगातार ही कुछ नई पत्रिाकाएँ जन्म लेती जा
रही हैं।अभी वर्तमान वर्ष से ही आरंभ होने वाली पत्रिाकाएँ हैं शब्द योग,
लोकायत, शिखर, सृजन पथ, पाठ आदि। छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर जैसे छोटे शहर से
भी पत्रिाकाओं का प्रकाशन हो रहा है।
हिन्दी की पत्रिाकाएँ न केवल हिन्दी भाषी क्षेत्राों से बल्कि कुछ विदेशी
प्रयास भी इस दिशा में लगातार हो रहे हैं। दुबईमें रहने वाले कृष्ण कुमार
के प्रयास से अमेरिका और भारत दोनों के संयुक्त तत्वावधान में 'अन्यथा`
जैसी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिाका का प्रकाशन चंडीगढ़ से हो रहा है। इसके
अतिरिक्त 'स्पैन` नामक हिन्दी भाषी पत्रिाका का प्रकाशन अमेरिका कर रहा है,
जो साहित्यिक के अतिरिक्त सामाजिक पक्षों पर भी चिंतन प्रस्तुत कर
रही है। विज्ञान के क्षेत्रा में भी 'विज्ञान प्रसार` जैसी पत्रिाका का यह
प्रयास सार्थक है कि यह पत्रिाका एक साथ हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही
भाषाओं में प्रक्ाशित होती है। चाहे यह प्रयास बहुत छोटे स्तर का ही क्यों
न हो, प्रयास सराहनीय है।
इसके अतिरिक्त हिन्दी की वेब पत्रिाकाएँ भी आरंभ हो चुकी हैं। मनीषा
कुलश्रेष्छ की वेब पत्रिाका हिन्दी जगत् में अपना स्थान बना चुकी है। ज्ञात
हुआ
है कि इस दिशा में 'बीबीसी` रेडियो प्रसारण अब एक और महत्वपूर्ण कदम उठाने
हेतु प्रयासरत् है। हिन्दी जगत् के भावी परिदृश्य को सकारात्मक भाव-बोध से
भरता है।
विष्णु नागर हिन्दी पाठक वर्ग की समस्या पर विचार करते हुए लिखते हैं
-''मैं हिन्दी का एक छोटा-मोटा लेखक हूॅं और इस विकटतम स्थिति के गहरे
अहसास के बाद भी लिखता रहता हूॅं। क्यों लिखता हूॅं मैं और मेरे साथी?
बावज़ूद इसके हम हिन्दी में लिखने वाले कम तो नहीं हो रहे हैं, बल्कि बढ़
रहे हैं। कल तक गिनी चुनी महिला लेखिकाऍं थीं, आज कई हैं और उनकी अपनी अलग
पहचान है। ये लेखिकाऍं स्त्राी होने के नाते किसी तरह की
कोई रियायत नहीं चाहती और न ही उन्हें यह दी जा रही है। लेकिन लेखन को
स्त्राीत्व की नई संवेदनाओं से पूरी कर रही हैं।``
कहने मतलब यह कि जब इतने सारे स्तरों पर साहित्यिक जगत् हिन्दी की स्थापना
हेतु प्रयास कर रहा है तो फिर क्याकारण हैं कि हिन्दी को उसका
निर्धारित स्थान प्राप्त करने में इतना अधिक समय लग रहा है।
इसका उत्तर देने के पहले मैगसेसे पुरस्कार से पुरस्कृत जल संरक्षण आंदोलन
केे प्रमुख राजेन्द्र सिंह के एक अनुभव परबात करना प्रासंगिक होगा।
राजस्थान की सूखी बंजर ज़मीन पर जब राजेन्द्र जी के प्रयासों से हरियाली
छाने लगी तो उनकी तकनीकों की उपादेयता सभी को नजर अरने लगी।
जल संरक्षण के सूत्राधार श्री राजेन्द्र सिंह ने जल संरक्षण कोविकसित करने
के लिए किसी किताब का अध्ययन नहीं किया था। गॉंव के ही तथाकथित
निपट गॅंवार, फूहड़ किसान ने उन्हें जल संरक्षण की पारम्परिक तकनीक बताते
हुए उन्हें इस ओर प्रेरित किया और परिणाम यह कि आज ५-५ वर्ष
बारिश नहीेहोने के बावजूद राजस्थान जैसी मरुभूमि -जहॉं जल संरक्षण किया गया
है- की हरियाली बकरार है। परिणाम यह कि जिनेवा में उन्हें आमंत्रिात
किया गया अपने लेख को लेकर, अपनी तकनीकी को लेकर। श्री राजेन्द्र सिंह ने
कहा मैं सिद्धान्त नहीें गढ़ता, व्यवहार की बात करता हूॅं इसलिए
लिखना नहीं आता। जिनेवा ने कहा तो भाषण दे दें। राजेन्द्र सिंह ने कहा -
नहीं, भाषण देना भी नहीं आता, खड़ा हो जाता हूॅं और जो भी सूझता है, कह
जाता हूॅं। और फिर आपको परेशानी भी होगी। मुझे अंग्रेजी भी नहीं आती।
हिन्दी बोलता हूॅं। जिनेवा ने सारे हथियार डाल दिये, कहा-आप आ
जाईये बस! हम सारी व्यवस्था कर लेंगे।
मतलब यह कि हिन्दी में इस मौलिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए विश्व ने सिर
झुकाया। अकादमिक तौर पर हिन्दी के अध्येता न होते हुए भी श्री राजेन्द्र
सिंह ने हिन्दी को ज्ञान के फ़लक पर जो स्थान दिलाया वह प्रशंसनीय है,
अनुकरणीय है।
हिन्दी इस तरह यदि मौलिक ज्ञान से जुड़ती है- जो सहज है, तो वह विकास के
उदात्त स्वरूप को प्राप्त कर सकती है।
यदि परम्परा में बसे ज्ञान का पक्ष अद्यन्त उद्घाटित नहीं हुआ है तो लोक
साहित्य को परखने का नजरिया परिवर्तित कर अपनी भाषा को उदात्त और
सर्वव्यापी बनाया जा सकता है। लोक संस्कृति, लोक गीत, कथा, गाथा, पहेली को
यदि बतौरमनोरंजन और संस्कृति अध्ययन न करते हुए ज्ञान के रूप में अध्ययन
करें तो जाने कितने रोगों की दवा, सामाजिक मूल्य उद्घाटित हो जायेंगे। और
भारतीय समाज में पहले चिकित्सक को कविराज कहा ही जाता था। जो चीज़ें
संग्रहणीय हैं, उठा ली जायें बाकी छोड़ दी जायें। पर हम घाल-मेल अधिक करते
हैं।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी भारत के दक्षिणी भाग से संवाददाता के रूप में
सूचना प्रदान करने वाले दक्षिण भारतीय हिन्दी बोलते ही दिखाई देते हैं।
हिन्दी
भाषा ने व्यावसायिकता के आधार पर जो सम्मानित दशा प्राप्त की है, उसे अभी
और आगे जाने की आवश्यकता है।
ज्ञान को भाषा से जोड़ना जहॉं भाषाहीनता से बचने का महत्वपूर्ण हल है वहीं
ज्ञान से जुड़ते ही हमारा परिचय नयी शब्दावली से होता है। अंग्रेजी भाषा
आधुनिक ज्ञान की प्रबल संवाहक है इसलिए ज्ञानात्मक क्षेत्रा में उसका
विस्तार है।
बावजूद इसके अंग्रेजी भाषा लगभग २५० नये शब्द प्रतिवर्ष अपने शब्दकोष में
जोड़ती है। समय के विकास के साथ- साथ भाषा के अपने प्रतिमान और
पारिभाषिक शब्दावलियाँ पुरानी और बोथरी होती चली जाती है। नये शब्दों का
जुड़ाव यानी नये ज्ञान से परिचय यानी संवेदना में विस्तार। प्रत्येक समय की
अपनी मॉंग होती है। इस मॉंग के अनुसार भाषा का चोलाहोता है। आज का समय
कपहपजंसकपअपकमका है। सूचना तकनीकि के मकड़जाल में अपने अस्तित्वकी रक्षा
अपने ज्ञान के माध्यम से हो सकती है। सूचना तकनीकि को अपनी शब्दावलियॉं
लेने को बाध्य करने वाली भाषा भाषाहीनता की स्थिति मे नहीं हो
सकती।
ज्ञान मनुष्य के समक्ष नयी चुनौतियाँ पैदा करता हैं। नयी चुनौतियॉं-नयी
परेशानियाँ, नयी परेशानियाँ -नया भाव-संसार, नया भाव-संसार-नयी संंंवेदना।
अब इस
संवेदना के विस्तार के लिए नया भाषा संसार भी चाहिये अर्थात् नयी
शब्दावलियॉं भी। नयी शब्दावली भाषा के स्वरूप को परिवर्तित करती है।
प्राकृत से आजकी हिन्दी तक का विकास इसके सामाजिक सरोकारों को दर्शाता है
किन्तु स्वतंत्राता के पश्चात् जब से हिन्दी को संरक्षित किया गया है, इस
अर्द्धशती में हिन्दीसे नया ज्ञान दूर हुआ है।
राष्ट्रभाषा महासंघ के मुंबई में सन् १९९९ को राष्ट्रीय सम्मेलन में यह
प्रस्ताव पारित किया गया था कि हिन्दी न केवल संस्कृत से बल्कि लोक भाषाओं
से भी प्रमुखत: अपनी शब्दावली समृद्ध करेगी।
हमें हिन्दी भाषा को केवल साहित्य के साथ नहीं बल्कि ज्ञान के साथ
अनिवार्यत: जोड़ना होगा तभी हिन्दी को अपेक्षित सम्मानित स्थान प्रदान किया
जासकेगा। चिकित्सा का क्षेत्रा हो या अभियांत्रिाकी का, निजी व्यवसाय का
क्षेत्रा हो या सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी संस्थानों का, कला का क्षेत्रा हो
या विज्ञानका हमें सारे क्षेत्राों की माँग के अनुसार हिन्दी भाषा को
समृद्ध करने का अवसर नहीं चुकना चाहिए। हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को हम यह
संकल्प लेते हैं किहम भारत सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक समस्त क्षेत्राों
के अनुसार हिन्दी भाषा को समृद्ध करने का प्रयास करें।
यह हमारी सच्ची राष्ट्रभक्ति होगी।
डॉ. हेमलता महिश्वर
अक्टूबर 1, 2006
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