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8 मार्च
महिला दिवस : प्रासंगिकता के सौ वर्ष

भारतीय धर्मग्रंथों में यह कहा तो गया कि जहां नारी की पूजा होती है , वहां देवता निवास करते हैं , पर भारतीय समाज में नारी की अकल्पनीय दुर्दशा हुई । या तो उसे देवी के आसन पर आसीन किया गया , या ' ताड़न का अधिकारी ' माना गया । उसे न तो मानवी का दर्जा दिया गया , न उसे पुरुष शासित समाज में कभी बराबरी का हक मिला । ' आंचल में दूध और आंखों में पानी ' को स्त्रियों ने भी अपने जीवन की नियति मान लिया और नियति को तो सिर्फ स्वीकार किया जा सकता है , उसके लिए आवाज़ क्या उठाना !  लेकिन वैयक्तिक स्तर पर भी और सामूहिक स्तर पर भी , हर स्थिति का एक सेचुरेन पॉयन्ट होता है । घर-परिवार हो या समाज या दे या विश्व , किसी भी क्षेत्र में जब शोषण अपने चरम पर पहुंच जाता है तो प्रतिरोध के स्वर जन्म लेते ही हैं ।  

विडंबना यह है कि जिस तरह 1 मई का दिन मजदूर दिवस - कामगारों और मजदूरों के नाम लिख दिया गया है , वैसे ही 8 मार्च का दिन यानी महिला दिवस हमें महिला संगठन की कार्यकर्ताओं से जुड़ा कोई उत्सव लगता है , जिससे एक आम भारतीय महिला कोई सरोकार महसूस नहीं करती । इस महिला दिवस को कई संस्थाएं एक रीति रिवाज़ की तरह मनाती हैं । महिला मजदूरों का षोण करने वाले औद्योगिक संस्थानों में भी इस दिन एक दिवस का जश्न मनाकर या कामगार महिलाओं को पिकनिक पर ले जाकर एक एक भेंट या मिठाई का पैकेट थमाकर औपचारिकता निभा दी जाती है । इसी तरह पूंजी बटोरने के लिहाज़ से बनाए गए कुछ एन.जी.ओ. भी फंड रेज़िग के लिए रंगारंग कार्यक्रम आयोजित करते पाए जाते है । उनका मकसद स्त्रियों के लिए जागरूकता अभियान चलाने या उनकी स्थितियों में सुधार लाने से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने कोको मजबूत करना है ।   

कोई भी आंदोलन कामगार मजदूर तबके और ज़मीनी संघर्ष से जन्म लेता है , धीरे धीरे वह अपनी जड़ें पकड़ लेता है और सभी वर्ग के लोगों तक पहुंचकर एक विशाल वटवृक्ष का रूप ले लेता है । उसके बाद ही ज़मीनी समस्याओं से रू ब रू होकर उसके सिध्दांत गढ़े जाते हैं । सतीप्रथा , दहेज हत्या , बालविवाह , स्त्रीलिंग परीक्षण से उत्पन्न समस्याएं विशुध्द भारतीय समाज की कुरीतियों से जुड़ी हैं और इनके लिए किए गए संघर्ष भी भारतीय सुधारवादी आंदोलनों में दिखाई देते हैं ।

पर पूंजीवादी व्यवस्था के अर्न्तविरोध और शोषण के विविध स्तर पश्चिमी देशों में बड़े पैमाने पर दृष्टिगत हुए , इसलिए इनसे जुड़े आंदोलनों की शुरुआत  पश्चिमी ज़मीन पर हुई और पूरे विश्व में फैली एक दृष्टि  महिला दिवस की निश्पत्ति के इतिहास पर डालें --

8 मार्च 2008 को महिला दिवस की शुरूआत की एक षताब्दी पूरी होती है । सौ साल पहले 8 मार्च  1908 को न्यूयार्क की एक कपड़ा मिल में काम करने वाली हजारों महिला मजदूरों ने पहली बार अपने काम की परिस्थितियां बदलने के लिए एक विशाल रैली निकाली । महिला मजदूरों के 10 घन्टे काम तथा सुरक्षित कार्य स्थिति के अलावा लिंग , नस्ल , सम्पत्ति और शैक्षणिक योग्यता के आधार पर भेदभाव के बिना सभी बालिगों के लिए मताधिकार की मांग का मुद्दा उठाया गया । तब क्रांतिकारी संघर्ष का माहौल था । 1910 में एन.ए. डब्ल्यू .एस. ए. के अप्रवासी विरोधी , नस्ल विरोधी और मजदूर विरोधी रवैये से महिला मजदूरों ने अलग से ' मजदूरी कमानेवालियों का मताधिकार लीग ' बनाया ।

संयुक्त राष्ट्र अमरीका की मजदूरवर्गीय महिलाओं की जन कार्यवाही से प्रेरित हो 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगेन में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में क्लारा जैटकिन ने 8 मार्च को 'अन्तर्राष्ट्रीमहिला दिवस ' के रूप में बालिग मताधिकार की मांग की कार्यवाही के दिन के रूप में मानने का निर्णय लिया गया । यह सोचा गया कि महिलाओं के लिए मताधिकार समाजवाद के लिये किए गए संघर्ष में उनकी ताकत को जोड़ेगा। इसके बाद पूरे यूरोप व अमरीका के समाजवादी और बुर्जुवा उदारवादी महिलाएं , सार्वजनिक मतदान के लिए लामबन्द हुए और अभियान चलाया ।  

प्रजातांत्रिक राज्यों में वोट के जिस अधिकार का हम आज इतनी सहजता से इस्तेमाल कर रहे हैं , इसके लिए साम्यवादी देषों की महिलाओं ने कितना संघर्ष किया है , इससे आम महिला नागरिक परिचित नहीं है । प्रथम 8 मार्च का प्रदर्षन निष्चित रूप से महिलाओं के मताधिकार के लिए था । यह जानना दिलचस्प है कि इसके बावजूद 1971 तक स्विट्ज़रलैंड और 1976 तक पुर्तगाल में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था ।   

यह रूस का मजदूर वर्ग था जिन्होंने 1917 में अपने लोगों के लिए सार्वजनिक मताधिकार जीतकर बाकी दुनिया को र्मिन्दगी में डाल दिया । 1917 की रूसी क्रान्ति महिला मुक्ति के लिए एक मील का पत्थर था । यह पहला मौका था जब महिलाओं की आर्थिक , राजनैतिक व लैंगिक समानता को सबल ऐतिहासिक मुद्दा बनाया गया । बोलषेविक सरकार ने न केवल महिलाओं को मताधिकार दिया बल्कि तलाक और सिविल कानून पास किया जिससे शादी एक स्वैच्छिक रिश्ता बना और वैध तथा अवैध सन्तान का फर्क खत्म हुआ । 

जुझारू औद्योगिक कार्यवाही में रूसी महिला मजदूर अपनी यूरोपीय तथा अमेरिकी बहनों की बराबरी से आगे थीं । किसी औद्योगिक केन्द्र में महिला मजदूरों का हड़ताल करना तथा उनके साथी पुरूमजदूरों द्वारा उनके समर्थन में कार्य का बहिश्कार करना आम बात थी । महिलाएं कई बार ऐसी मांगों के लिए जो औरों के लिए अजीब थीं , काम रोक देती थी । जैसे गर्भावस्था के दौरान छुट्टी , गर्भवती महिला को काम से निकाल देने के खिलाफ , शादीशुदा महिलाओं को काम पर न रखने के खिलाफ , अधिकारियों द्वारा यौन षोण के खिलाफ आदि । 1913 में मास्को में एक बड़ी फैक्टी के प्रशासन का महिला मजदूरों के प्रति रवैया , जिसे वेश्यावृत्ति के अलावा और कुछ महिला मजदूरों के साथ यौन दुर्व्यवहार किया था , उसको निकालने की मांग को लेकर 5,000 कर्मचारियों ने काम रोक दिया था । 

पेत्रोग्राद की महिला कपड़ा मिल की मजदूर औरतें थीं जिन्होंने 1917 की रूसी क्रान्ति की ज्वाला भड़काई थी । इन हजारों महिला कर्मचारियों को भुखमरी और युध्द ने बेपरवाह बना दिया था । इन्होंने 8 मार्च को ' अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस ' के अवसर पर पेत्रोग्राद की सड़कों पर इन मांगों को लेकर प्रदर्शन किया , ' हमारे बच्चों के लिए रोटी दो । युध्द के मैदान से हमारे पतियों को वापस करो । युध्द का विना हो । महिलाओं को मतदान का अधिकार हों । '
अवरोध लगाकर उनके प्रद
र्शन को रोक रहे सैनिकों का उन्होंने वीरतापूर्वक सामना किया । उनकी राइफलों पर अधिकार कर लिया और नारे लगाए , ' अपनी राइफलों को फेंक दो , हमसे मिल जाओ ' । सैनिक पहले तो हिचकिचाए लेकिन अन्तत: आगे बढ़ती महिलाओं के सामने तनी बन्दूकें हटाकर उन्हें विजयी नारों के साथ आगे जाने दिया । महिलाओं द्वारा प्रज्वलित की गई 1917 की फरवरी क्रान्ति ने जारशाही का तख्ता पलट दिया । ; स्त्रोत - समाजवादी देशों की महिलाएं - कुसुम त्रिपाठी

 

कामगार महिलाओं की इस ज़मीनी लड़ाई को वैचारिक मुद्दों से जुड़ने में कई दषक लग गए । ब्रेटी फ्रइडमैन , सिमोन द बुवा , जर्मन ग्रियर की किताबों में शारीरिक श्रम में गैर बराबरी के और कम वेतन के मुद्दों के साथ साथ पितृसत्तात्मक समाज और सामाजिक परिदृष्य पर स्त्री के दोयम दर्जे क़ी अवधारणाओं पर खुलकर टिप्पणियां की गईं । इधर भारतीय परिदृश्य में बंगाल में ज्योर्तिमयी देवी , महाराष्ट्र में ताराबाई शिंदे , सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों के बराबरी के हक और शिक्षा की गुहार लगाई ।  

भारत में महिला आंदोलन की शुरूआत 1977 के लगभग आपातकालीन स्थिति की घोणा के साथ ही शुरू हुई । सत्तर के दषक में सामाजिक , आर्थिक , पारिवारिक और राजनीतिक संघर्शों से जुड़ी महिलाओं को पुरुप्रधान समाज और पितृसत्तात्मक कार्य प्रणाली से घुटन घुटन महसूस होने लगी थी । जुलूसों , सार्वजनिक सभाओं और जेलों में लाठियां खाने में सक्रिय सहभागिता के बावजूद महिलाओं के हाथों में नेतृत्व षक्ति नहीं थी और अपने अपने घरों में भी उनका दोयम दर्ज़ा सुनिश्चित था , इसलिए ग़ैर सरकारी और स्वायत्त स्त्री मुक्ति आंदोलन और स्त्री मुक्ति संगठनों के निर्माण की ज़रूरत महसूस की गई । दिल्ली , मुंबई , हैदराबाद में महिला संगठन सक्रिय हुए और सबसे पहले सौदर्य प्रतियोगिताओं , स्त्री लिंग परीक्षण और महिलाओं के गिरते स्वास्थ्य के मुद्दों को प्राथमिकता के साथ उठाया गया ।  

1977 में महाराट की एक आदिवासी लड़की मथुरा के साथ पुलिस थाने में पुलिस द्वारा बलात्कार किया गया और निचली अदालत में मथुरा को ही बदचलन बताकर दोनों पुलिस कर्मियों को छोड़ दिया गया , हाईकोर्ट ने बलात्कारियों को सख्त सज़ा दी पर सुप्रीम कोर्ट की अपील के बाद दोनों को छोड़ दिया गया , इस घटना के बाद सभी सक्रिय महिला संगठनों ने साथ मिलकर बलात्कार के खिलाफ एक अखिल भारतीय अभियान छेड़ दिया ।  

पिछले तीस सालों में इस अभियान ने बढ़ते बढ़ते एक व्यापक रूप ले लिया है । आज हर विश्वविद्यालय में एक वुमेंस स्टडीज़ कक्ष की स्थापना हो रही है । आज महिला आंदोलन और संगठनों की सक्रियता का ही परिणाम है कि किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की समस्याओं को अनदेखा करना मुश्किल हो गया है । हर राजनीतिक पार्टी में महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और महिलाओं की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य हो गई है ।  

यह अलग बात है कि राजनीतिक पार्टी में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी , आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है । आज भी वे समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही हैं । पुरुसत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं । इसे तोडना , बदलना या संवारना एक लम्बी लड़ाई है । भारत में ही नहीं , विश्व में लैंगिक असंतुलन और कन्या भ्रूण परीक्षण से बढ़ते गर्भपातों से स्त्री पुरुअनुपात के असंतुलन ने विश्वव्यापी चिन्ता को जन्म दिया है । इसके कारण और परिणाम दोनों चिन्ताजनक हैं ।  

स्त्री से जुड़ी समस्याओं को देखना परखना एक बर्रे के छत्ते में हाथ डालना है । महानगर हो , छोटा कस्बा हो या गांव , हिन्दू हो या मुसलमान , आदिवासी , दलित हो या अभिजात्य वर्ग , निम्न वर्ग से लेकर उच्च मध्य वर्ग तक - औरतों से जुड़े अंतहीन मुद्दों पर अंतहीन समस्याओं की एक लंबी क़तार है जिसे सुलझाना और प्रासंगिक कानून का गठन करना हर हर , गांव ,कस्बे के मुट्ठी भर कार्यकर्ताओं के लिए संभव नहीं है और बहुत बड़े स्तर पर एक बैनर के तले सबको एक जुट करना इतने बड़े दे की महिला कार्यकर्ताओं के लिए सामूहिक रूप से भी संभव नहीं , जब तक कि सरकारी सत्ताधारक मशीनरी खुलकर इसे सहयोग न दे । वर्ल्ड सोल फोरम और इंडिया सोल फोरम भी इस संदर्भ में बहुत कारगर भूमिका नहीं निभा पाए । 

जन आंदोलनों में , ग्रामीण अंचलों में स्वायत्त संगठनों की महिलाएं अपनी सीमाओं के भीतर भी ठोस काम करती दिखाई देती हैं । यह सच है कि बहुत से गांवों तक यह चेतना नहीं पहुंची है , कुछ वहां के स्थानीय सम्पन्न लोगों के अवरोध के कारण , कुछ उन परम्परावादी मूल्यों से जकड़ी उन प्रभुताशाली औरतों के कारण जो अपने स्वार्थ के कारण यथास्थिति को बनाए रखना चाहती हैं । जिन गांवों में कुछ स्वायत्त और गैर सरकारी संस्थाओं ने काम करना शुरू किया है , वहां बाकायदा बच्चियों से लेकर उम्रदराज़ बुजुर्ग़ महिलाओं तक में आई हुई तब्दीली देखी जा सकती है - म.प्र के एक गांव में चालीस से पर की महिलाओं को साइकिल दी गईं ताकि उन्हें कोसों दूर चलकर पानी या ज़रूरत का अन्य सामान न लाना पड़े । उम्रदराज़ बुजुर्ग़ महिलाओं को साइकिल चलाने की शुरूआती परेशानियों के बाद गांव की औरतों का यह काफिला जब पास पड़ोस के गांवों से गुज़रता अपनी मंजिल तक पहुंचा तो बुज़ुर्ग महिलाओं और उनके नाती पोतों का उत्साह देखने लायक था । साइकिलें कम पड़ गईं और दर्शक महिलाओं का हुजूम उमड़ पड़ा ।  

इसके बावजूद गांवों में दलित औरत को निर्वस्त्र कर घुमाने का सिलसिला जारी है । किसी भी पारिवारिक रंजि का बदला आज भी उस परिवार की औरत के बलात्कार द्वारा लिया जाता है । इन घटनाओं से आक्रो और प्रतिरोध के स्वर अधिक बुलंद हो रहे हैं , इसमें संदेह नहीं ।  

पचास साल पहले का भारतीय समाज मूल रूप में एक संयुक्त परिवार का रूप रहा है और संयुक्त परिवार में औरत का दर्जा लगभग वही रहा है जो सामन्ती परिवार में मालिक के नीचे काम करने वाले गुलाम या जमींदार के नीचे काम करने वाले किसान का होता है । इन सम्बन्धों को अर्थसत्ता ही निर्धारित करती है । पुराने संयुक्त परिवारों में सतह पर दिखते आपसी सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों के बीच आम तौर पर घर का मालिक निरंकुश शासक होता था जिसके हाथ में सभी सदस्यों की नकेल है और इस संयुक्त परिवार की औरत नीची आंखें किये एक अधिकारहीन औरत का प्रतिरूप रही है । 

नारीवादी आंदोलनों का यह भी एक अहम मुद्दा था कि घर गृहस्थी के कामों के लिए वेतन तय किया जाना चाहिए जिसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था कभी तैयार नहीं होती । पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करनेवालों ने भी इस घरेलू श्रम को अहमियत नहीं दी । घरेलू औरतें अपने घर में ही उत्पादन क्षमता रखने वाली संतानों को जन्म देती हैं । वे बच्चों को पैदा करती हैं , उन्हें बड़ा कर इस लायक बनाती हैं कि वे घर का भरण पोण कर सकें यानी वह उत्पादन के लिए अगली पीढ़ी को तैयार करती हैं । इस तरह वह अपने घर के श्रम द्वारा बाहर अर्जित किए श्रम से सीधे जुड़ जाती है । फिर उसके अधिकार सीमित कैसे हो जाते हैं , यह तथ्य हर औरत को समझ लेना चाहिए । यह घरेलू औरतों के लिए जीवन के घटना चक्र का एक स्थायी रूप भी है । आज बेक प्रवे के समय भरे जाने वाले आवेदन पत्रों में मां के व्यवसाय के सामने वाली खाली जगह पर 'हाउसवाइफ़' की जगह 'होममेकर' लिखवाया जाता है पर इस बदले हुए विशेषण से महिलाओं के दोयम दर्ज़े में कोई विशेष अंतर नहीं आया । आज भी पत्नी से सस्ती कोई नौकरानी नहीं होती जो पढ़ी लिखी भी है , बच्चे पैदाकर और अच्छे संस्कारों के साथ उनकी परवरि कर पुरु का वं भी चलाती है , घर और बाहर के काम का भी बखूबी निर्वाह करती है , फिर भी उसे हमेशा यही ताना दिया जाता है कि वह सारा दिन घर में बैठे ठाले करती क्या है । भारतीय समाज में घरेलू काम ऐसा नाशुक्रा काम है जिसके लिए पति कभी अपनी पत्नी का अहसानमंद नहीं होता । भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बाहर के कार्यक्षेत्र को हमेशा अपेक्षित सम्मान दिया जाता है और घर में रसोई की छोटी स्पेस को कोई अहमियत नहीं दी जाती । 

आज स्थितियां बदली हैं । औरत ने रसोई के दायरे को बखूबी संभालते हुए भी बाहरी कार्यक्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया है । आर्थिक आत्मनिर्भरता उसके लिए इज्ज़त कमाने की पहली र्त है । लेकिन आर्थिक आज़ादी ने औरत को दोहरी तिहरी जिम्मेदारी में जकड़ दिया है और पुरु औरत की आर्थिक आज़ादी से चुनौती पाकर , अपनी असुरक्षा को ढांपने के लिए न सिर्फ गैर जिम्मेदार हो जाता है बल्कि उसके भीतर पत्नी के लिए क का फन फुंफकारता हुआ उसे हिंसक भी बना देता है। प्रताड़ना का स्तर यहां भी है ।  

हमारी पीढ़ी की औरतें आज की युवा पीढ़ी की लड़कियों के लिए अक्सर चिंतित होती हैं कि वहां विवाह संबंधों में तलाक की संख्या बहुत बढ़ गई है । क्या इस तरह विवाह संस्था के ही अस्तित्व को खतरा नहीं है ? दरअसल हमारी पीढ़ी बहुत डरी हुई है क्योंकि उनकी स्पश्ट धारणा है कि तलाक के बाद एक लड़की को नीची निगाह से देखा जाता है । उसके लिए पुरुप्रधान समाज में अकेले रहना बहुत आसान नहीं होता । अकेली लड़की को किराये पर घर नहीं मिलता । अकेली औरत को हर पुरु गलत नज़र से देखता है जैसे उपलब्ध होने का बिल्ला उसकी पोशाक पर टंगा है । औरतें सोचती हैं कि भूखे भेड़ियों की जमात में अकेले अपने को ससम्मान बचा कर रखना मुश्किल होगा इसलिए बेहतर है कि हम एक ही पुरु की ज्यादतियां सह लें पर विवाह की शुचिता में बने रहें । हम यह सोच ही नहीं पाते कि बराबरी और सौहार्दपूर्ण वातावरण में भी विवाह संबंध या प्रेम संबंध पनप सकता है जहां पुरु और स्त्री - दोनों एक दूसरे को सम्मान दें । प्रेम , समझदारी और सम्मान के साथ एक तनावरहित स्वस्थ संबंध जीवन को कितना तरल , कोमल और सुखद बना सकता है , यह हमारी कल्पना से बाहर हो गया है । हम ऐसे संबंध को भी प्यार का नाम दे देते हैं जहां एक पक्ष ताउम्र शासन करता है और दूसरा पक्ष नियंत्रण में रहता है । नियंत्रण और शासन तले दबे पक्ष का डर के साये तले रहना स्वाभाविक है ।  

ऐसे में अगर युवा पीढ़ी की लड़कियां अपना पूरा जीवन इस शासन और नियंत्रण के तले बिताने को अस्वीकार कर जीने का एक स्वतंत्र रास्ता तलाती हैं तो तलाक की ओर उनके बढ़ते कदमों से खौफ़ खाने की ज़रूरत नहीं है । बराबरी और सम्मान की आकांक्षा की ओर बढ़ती इस ललक को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है ।   

एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत हैं - वैज्ञानिक कीड़े मकौड़ों और पशु पक्षियों पर कुछ प्रयोग करते हैं । एक वैज्ञानिक ने दो मेढक लिए । एक मेढक को उसने काफी गरम पानी में छोड़ा , पानी के उस गरम तापमान को झेल पाने में असमर्थ वह फौरन कूद कर बाहर आ गया । अब उसने दूसरे मेढक को ठंडे पानी में डाला , मेढक उसमें आराम से तैरता कूदता रहा , उसने बाहर छलांग नहीं लगाई । वैज्ञानिक ने धीरे धीरे पानी का तापमान बढ़ाया और उसे धीरे धीरे बढ़ाते हुए बहुत गरम कर दिया । मेढक उस गरम होते तापमान का धीरे धीरे अभ्यस्त हो चुका था और जब उसका रीर तापमान नहीं झेल पाया तो वह लगातार बढ़ते तापमान को झेल पाने में असमर्थ मर गया । 

औरतों के साथ यही हुआ है । सदियों से उनका अनुकूलन (कंडिनिंग)किया गया है । वह हर तरह के तापमान की इस कदर अभ्यस्त हो जाती हैं कि एक नये घर के नये माहौल में नये लोगों के बीच घीरे धीरे बढ़ते तापमान के साथ तालमेल बिठाना सीख जाती हैं और यह तालमेल अन्तत: उनकी मर्यादित शोभायात्रा में उनकी मांग में सिंदूर के रूप में उनकी सजी हुई अर्थी में दीखता है ।  

लेकिन आज समय ने करवट बदली है । सभी औरतें मरतीं नहीं । वे देर से ही सही पर बढ़ते हुए तापमान को पहचानना सीख गई हैं । खतरे की आहट को सुन रही हैं ।  अपने ज़िन्दा होने के मूल्य को समझ पा रही हैं । मानसिक यातना और बारीक हिंसा को पहचान कर उन पर  सवाल खडे करती हैं और बाहर निकल आने का हौसला भी दिखाती हैं । अपनी खोयी हुई अस्मिता और मानवीय पहचान को दुबारा संवारती है । इस तरह वे अपना जीवन संवारने वाली औरतों के कारवां में शामिल हो जाती हैं । और यह कारवां दिन पर दिन बढ़ता जाएगा , इसमें संदेह नहीं ।

सुधा अरोड़ा 
फरवरी 25,2008

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