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मीडिया के मर्म को बचाने की चुनौती आजकल मीडिया में डी0पी0एस0 छात्रा अरुशि मर्डर केस की टी0आर0पी0 आईपीएल खेलों से ऊपर जा रही है। अरुशि की हत्या एक पहेली है लेकिन पिछले एक सप्ताह में जिस प्रकार मीडिया और खासतौर पर टी वी चैनल्स ने इस हत्याकाण्ड को हवा दी है उसको देखकर तो लगता है कि अरुशि का कत्ल हर उस पल किया जा रहा है जिस जिस पल उसकी हत्या की तहकीकात हमारे खबरिया चैनल्स कर रहे हैं । लगता है कि मीडिया पुलिस, जज और गवाह सबकी भूमिका अकेले ही अदा कर रहा है। टी0वी0 चैनल्स ने जिस प्रकार से पिछले दिनों एक अबोध बालिका की निजी जिन्दगी को बाजार का माल बनाकर पेष किया है उसने मीडिया के लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की भूमिका पर प्रष्न चिन्ह लगा दिया है। लगातार तर्क दिया जाता रहा है कि खबरिया चैनलस वह दिखाते हैं जाें जनता देखना चाहती हैं । लेकिन क्या इस देष की सवा अरब आबादी में से किसी एक व्यक्ति ने भी इन खबरिया चैनल्स को कहा कि हमें इस हत्याकाण्ड की तहकीकात करके और प्रेम कहानी बताओ ? फिर वह कौन सा पैमाना है जो इन खबरचियों को जज और पुलिस दोनों की भूमिका अदा करने की छूट देता है। एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर मैंने ब्लॉग लिखकर मीडिया की इस करतूत की निन्दा की, परिणामस्वरुप 95 : लोगों ने मीडिया के खिलाफ अपनी प्रतिक्रिया लिखी और कहा कि यह सब चरित्रहनन करके टी आर पी बढाने का फार्मूला है।यह थी जनता की आवाज कि वो क्या देखना चाहती है। केवल एक सज्जन ने कहा कि यह करने के लिये मैं कैमरा लेकर इस क्षेत्र में उतरुॅ। मैंने उन्हें बताया कि मैं पिछले बीस वर्शों से मीडिया से किसी न किसी रुप मे जुडा रहा हूॅ और क्राइम रिपोर्टिंग भी की है। याद है कि कुछ समय पूर्व '' हंस '' ने टीवी पत्रकारिता पर एक विषेशांक निकाला था और अजीत अंजुम उसके अतिथि संपादक थे । जहॉ अंजुम जी अपने लेख में इलैकट्रानिक मीडिया के इन कारनामों के समर्थक बने हुये थे तो उसी अंक में कम से कम आाधा दर्जन लेख और कहानियॉ ही अंजुम जी के तर्कों की खिलाफत कर रहे थे, ताज्जुब यह था कि इनके लेखक भी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया से जुडे बडे नाम थे। कहा जा सकता है कि टीवी चैनल्स ने लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभायी है और कुछ एक मामलों में यह सच भी साबित हुआ लेकिन इस भूमिका के पीछे भी मीडिया की प्रहरी की भूमिका कम और व्यावसायिक स्वार्थ ज्यादा था। अभी तक आम आदमी राजनेताओं को लाषों की राजनीति करने के लिये दोश दिया करता था लेकिन अरुशि हत्याकाण्ड में मीडिया ने जो खेल खेला है उसे आप क्या कहेंगे? एक अबोध बालिका की निजी जिन्दगी को गुलछर्रे उडा कर जिस प्रकार से रिले किया गया उसकी इजाजत कम से कम कोई सभ्य समाज तो नहीे दे सकता। हमारे यहॉ परम्परा रही है कि मृतक के बाद उसकी बुराइयों की चर्चा नहीं करते हैं लेकिन कोई चैनल तो अरुशि की डायरी के अंश पढकर बता रहा था तो कोई प्रेम कहानी बता रहा था। एक चैनल की टिप्पणी थी कि सारा देष इस काण्ड की सचचाई जानना चाहता है। पता नहीं कि उस चैनल का देष कौन सा है ? सिर्फ अरुषि की हत्या पर मीडिया को इतनी चिन्ता क्यों हे? क्या आापने उ0प्र0 में बदायूॅ, एटा, या मैनपुरी का नाम सुना है? इन जिलों में षायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब दो चार हत्याएॅ न होती हों लेकिन यह हत्याएॅ मीडिया की सुर्खियॉ नहीं बनती हैं चूकि मरने वाले अरुशि जैसे साधनसम्पन्न घरानों के नहीं होते हैं दूसरे इन टी0वी0 चैनल्स का देष दिल्ली और एनसीआर के आगे समाप्त हो जाता है। यहॉ हमारा मकसद यह बिल्कुल नहीं है कि मीडिया को ऐसे अपराधों की जानकारी जनता को नहीं देनी चाहिये। बल्कि प्रतिवाद यह है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब यह कतई नहीं है कि इसके बहाने मीडिया को आम आदमी की निजी जिन्दगी में तॉकझॉक करने की आजादी मिल गई है। हमारा कहना सिर्फ यह है कि कृपया अपने व्यावसायिक स्वार्थ के लिये किसी मासूम के चरित्र से मत खेलिये। मान लीजिये कि यह हत्या किसी प्रेम प्रसंग में ही हुई ( हालॉकि अभी तक जॉच एजेंसी किसी नतीजे पर नहीं पहुची है) तो क्या यह प्रेम प्रसंग सुनने के लिये जनता बेताब थी? या यह अकेला प्रेम प्रसंग था? आखिर इसमें ऐसा नया क्या था?
यहॉ जो ज्चलंत प्रष्न है और
बहस का मुददा है कि मीडिया के लिये आचार संहिता कौन तय करेगा?
निष्चित रुप से अगर मीडिया अपनी स्वतंत्रता की दुहाई इस
आधार पर देता है कि वो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है तो यह कोड ऑफ कण्डक्ट उसे
स्वये तय करना पडेगा और अगर यह कहा जाता है कि पत्रकारिता अब मिषन नहीं कमीषन
हो गई है तो सरकार और समाज को आगे बढकर कोड ऑफ कण्डक्ट तय करना होगा। यह बहस इसलिये और महत्वपूर्ण है कि अब इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने के कारण पत्रकारिता का स्वरुप बदल रहा है। आज टीवी चैनल्स में सम्पादक नाम का जीव महत्वहीन हो गया है वह देसी भाशा में कहे तो लाला का नौकर होकर रह गया है और सभ्य भाशा में कहे तो सम्पादक जी मैनेजर हो गये हैं। बात चुभ सकती है लेकिन कटु सत्य यही है। यही वो प्रमुख कारण है कि पत्रकारिता अपना मर्म खो रही है।चूंकि खबरों के ऊपर सम्पादक नहीं प्रोडयूसर का नियंत्रण है। आज आप एक भी ऐसा खबरिया चैनल का सम्पादक नहीं बता सकते जिसे पत्रकारिता के मर्म का एहसास हो । उन्हें तकनीक का अच्छा ज्ञान हो सकता है कैमरे का अच्छा ज्ञान हो सकता है, कौन सी खबर का क्या व्यावसायिक महत्व है यह ज्ञान हो सकता है। लेकिन अगर आप यह आषा करे कि आज के खबरिया चैनल्स के सम्पादक उस स्तर के सम्पादक हो जायेंगे जो स्तर अज्ञेय,कमलेष्वर, रघुवीर सहाय, प्रभाश जोषी, राजेन्द्र माथुर, धर्मवीर भारती का था तो आप सत्य से ऑख चुरा रहे हैं। याद है कमलेष्वर ने एक अखबार की नौकरी सिर्फ इसलिये छोड दी थी चूॅकि उसने उनकी सहमति के बिना अबदुल्ला बुखारी का फोटो प्रकाषित कर दिया था। क्या खबरिया चैनल्स के किसी भी सम्पादक से यह आषा की जा सकती है कि वो इस सैध्दान्तिक मुददे पर नौकरी छोड देगा? आज भी तमाम सम्पादक चैनल्स की नौकरी छोडते हैं लेकिन सिर्फ पैकेज के लिये। मेरा मानना है कि इसके लिये मीडिया के जिम्मेदार बडे ओहदेदारों को पहल करनी चाहिये और पत्रकारिता का विष्वास,चरित्र और मर्म बहाल करने के लिये व्यावसायिक हितों से ऊपर उठकर सोचना चाहिये वरना मीडिया की रेपुटेषन का ग्राफ राजनेताओं के ग्राफ से भी नीचा जाने में चन्द दिन ही बचे हैं। --
अमलेन्दु उपाध्याय |
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