स्मृति-गद्य
जीवन की आपा-धापी में क़दमताल करते हुए यकायक बीते दिनों के झरोखे खोल उनके भीतर झाँक लेने की आदत में कहीं बहुत सुकून है। ख़याल करूँ तो माज़ी की सरगोशियों में मुख़्तलिफ़ चेहरों और किरदारों का बड़ा हुजूम मौजूद है। कुछ पुराने ख़त कुछ किताबें, प्रेम की बारिश में उड़ता हुआ उदासियों का कुहरा।चारों तरफ़ पसरे भीड़ भरे बयाबान के अंतिम छोर पर कहीं एकाकीपन का जलसा तो कहीं सुनी हई धुनें, गायी हई बंदिशें।
गोद में रखा तानपूरा और पहरों-पहर रस्मे-उल्फ़त सिखा गया कोई अलापती बेगम अख़्तर की अदायगी के साथ अनगिनत सफ़रनामे जो मन के पन्नों के सिवा कहीं और दर्ज़ न हो सके।
छोटी-सी इस फ़ेहरिस्त में मुड़े-तुड़े ज़र्द हो चले काग़ज़ के टुकड़े पर बचपन छपा है जिसे खोल कर पढ़ने की आवृत्ति सबसे अधिक है। बचपन से जुड़े अनगिनत लोग, खट्टे-मीठे अनुभव, तीज-त्योहार, रिश्ते-नाते, शहर-कूचे गाहे-बगाहे जब भी किसी मोड़ पर रूबरू हुए तो अहसास हुआ कि उम्र की तीखी चढ़ाई और सम्बन्धों की बेतरतीब ढलानों के बीच आज भी कहीं एक क़स्बा है जिसकी स्मृति के बादलों से बारहा मन घिरा रहता है।
वह जगह जहाँ निरन्तर तेईस सालों तक आमदोरफ़्त बनी रही। पुरानी कोठियों व हवेलियों का शहर, हर्षवर्धन और जयचंद्र का शहर, संयोगिता का, इतिहास का, इत्र का शहर–मेरा ननिहाल—कन्नौज। कभी नानी हुआ करती थीं जहाँ, स्मृतियों में जिसकी गंध आज भी सबसे अधिक सोंधी हे।
गलियों में बसे उस शहर की याद ने जब कभी करवट ली, मन अनायास गुनने लगा वहाँ बिताई गरमी व सर्दियों की उमंग भरी छुट्टियाँ। वे दिन जब सरायमीरा रेलवे स्टेशन से इक्के पर बेठते ही हवा में घुली केवड़ा, हिना, ख़स, गुलाब की महक से सौाँसें सरशार रहती थीं। गली-मोहल्लों के बीच बने डिस्टिलेशन कारखानों के गुनगुने संदली पानी से ठिठुरती सर्दियों में लोग-बाग स्नान करते दिखते थे।
सुगंधी की छोटी-बड़ी दुकानों से समूचा शहर महकता था।
इत्र के अलावा कन्नौज से वाबस्ता कुछ और ख़ुशबुएँ हैं जो हमेशा ज़ेहन पर तारी रहीं। इनमें अंजीर के पेड़ों से घिरा जँगली सुवास वाला एक ‘शिवाला और दशहरी आम के बाग हैं। क़तरा-क़तरा घर की छतों पर बिखर जाने वाली जेठ की तपती दोपहरों से निजात पाई रंगीन काँच की बड़ी खिड़कियों से सिमट कर ऊपर उठतीं शामें है।
रस्सी की रगड़ से उपजी धुन पर कुओं के गूँजते अँधेरों से जल भर लायीं इतराती पीतल की ठण्डी कलसियाँ हैं। बहुत तीखी महक, काले मोटे सीखचों से घिरे धुआँए चौके की जिसमें नानी की सात्त्विक देह गंध भी समाहित रही।
किसी कुहरे भरे दिन जब हाथ को हाथ न सूझता नानी अपने अतीत की साँकल खोल कहीं गहरे विचरते हुए इलाहाबाद में बिताया अपना बचपन हमसे साझा किया करतीं।उन्हीं दिनों उन्होंने अपने पिता श्री हरदयालुसिंह रचित–रावण महाकाव्य का ज़िक्र कई बार हमारे सामने किया, साथ ही यह अफ़्सोस भी कि उनके पिताजी की बहुत-सी अप्रकाशित रचनाएँ महमूदाबाद वाले पैतृक निवास में दीपक से लगी आग में जलकर नष्ट हो गई थीं। उनके अनुसार हरदयालु जी की तब तक बावन किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें ब्रजभाषा के खण्ड-काव्यों के अलावा उनके द्वारा किये गए बहुतेरे अनुवाद, टीकाएँ, निबन्ध आदि सम्मिलित थे।
मैं नानी की आभा से अपना अस्तित्व रोशन पाती जब वे दैत्यवंश की चर्चा करतीं, जिसके लिए उनके पिताजी को ..देव पुरस्कार’ व काशी-नागरी -प्रचारिणी का ‘रत्नाकर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था। लड़कपन में वे पिता के अभिन्न मित्र-महाकवि निराला जी से भयभीत रहा करतीं और उन के उस बालपने को बूझते हुए निराला जी उन्हें सामने बिठा कर कविताएँ सुनाया करते। महादेवी जी का भी घर आना-जाना रहा करता था, जिनके सान्निध्य के स्मरण मात्र से ही उनके चेहरे पर उजाला झलकने लगता।
ऐतिहासिक महत्त्व के अन्य शहरों में प्राचीन क़िले और महल घूमते हुए मन ने कई दफ़ा एक हूक और मलाल के साथ कन्नौज को याद किया, जिसका कारण यह था कि इतिहास की किताबों ओर कुछ पुराने स्मारक, मन्दिर व एक संग्रहालय के अतिरिक्त,–निखिल यवन क्षयकारक, कन्नौज की गरिमा के अंतिम कीर्ति स्तम्भ—शौर्यवान सम्राट् जयचन्द्र के वैभवपूर्ण साम्राज्य की अंतिम निशानी… उनके महल की मेरी खोज बस्ती के दूसरे छोर पर महज़ एक मिट्टी के टीले पर जाकर समाप्त हो जाया करती।
स्मृतिपटल पर उभरते किसी दृश्य में हम बच्चे अपनी पूरी ताक़त से उस ध्वस्त किले की छोटी-सी पहाड़ी एक ही साँस में दौड़ कर यूँ चढ़ जाया करते जैसे सच ही कोई क़िला फ़तह कर लिया हो और फिर उस ऊँचाई से दूर-दूर तक फैले खेत-खलिहान देखकर फूले न समाते साथ ही वहाँ खड़े होकर बेहद ललचाये मन से दाहिने हाथ पर बनी पत्थर की दो लाल मस्जिदनुमा इमारतों को भी निहारा करते जिनका रुख़ ना करने की सख़्त हिदायत हमेशा ही मिलती रही। उसी टीले से नीचे की तरफ़ दीख पड़ता क्षेमकली देवी का प्राचीन मन्दिर जिन्हें लोग-बाग आज भी जयचन्द्र की कुलदेवी कहते हैं। इस देवी स्थल के प्रांगण से बाबा गौरी शंकर मन्दिर की ध्वजा लहराती हुई आमन्त्रण देती दिखती…।
हर्षवर्धन काल में कन्नौज आये चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के लेखों में भी इस पुरातन मन्दिर का वर्णन मिलता है… कहते हैं गंगा कभी इस मन्दिर के पार्श्व में बहती थी… क़िस्से बताते हैं, संयोगिता जयचन्द्र की पोषित पुत्री थी जिसे पृथ्वीराज अपहरण कर दिल्ली ले गया था मगर इतिहासकार ‘पृथ्वीराज रासो’ में वर्णित इस कथा को कवि की कल्पना भर मानते रहे।
कहते हैं दिन और रात के समागम पर किये जा रहे सभी कार्यों का कुछ देर के लिए विराम देना चाहिये। घर लौटने की उस वेला सूर्य धीरे-धीरे अपने थके हुए घोड़ों की रास खींचता है, साँझ केसरिया उजाले को क्षितिज से विदा कर सियाह बाना ओढ़ने लगती हे। पंछियों के बसेरे ओर भजन की बिरिया गौएँ चरागाहों से वापस लौट अपनी देहरी पर चुप खड़ी हो जाती हैं… कई जगह लोग गोधूलि में अपने इष्ट के सम्मुख दीपक बारने का संस्कार आज भी यथावत् बनाए हुए हें।मुझे याद है ननिहाल का एक बड़ा सुन्दर नियम जब शाम के झुट-पुटे में सभी परिवार जन एक साथ मिलकर प्रार्थना गाते थे। वहाँ सुनी पथिक जी महाराज की पंक्तियाँ कभी-कभी अब भी होंठों पर अनायास थिरकने लगती हैं–
हे प्रभु हमें निर अभिमानी बना दो,
दारिद्र हर लो दानी बना दो,
आनन्द मय विज्ञानी बना दो,
मैं हूँ पथिक यह आशा लगाए…
हम मुख़्तलिफ़ क़िस्से-कहानियों का सिरा थाम न जाने कितने विविध जीवन एक साथ जीने का हुनर रखते हैं। कितने सुने हुए किरदारों को हमारे मन में अजाने ही ठोर मिल जाता हे।
नानी की तरह ही माँ की स्मृतियों से भी मेरा हमेशा से बड़ा अनोखा लगाव रहा है। माँ अक्सर अपने बचपन से जुड़े क़िस्सों में कूड़ी वाले बाबा का ज़िक्र किया करती थीं और चूँकि वे एक बेहतरीन क़िस्सागो हैं तो शायद इसी वज्ह से उनके ब्योरों से छनकर मेरे जीवन-प्रवाह में बाबा का नाम अब तलक किसी करिश्मे की तरह बचा रह गया है।
ख़याल करूँ तो फ्रॉक पहनने के दिनों से या शायद जब से खेलते हुए बड़ों की बातों में झाँकना सीखा, उसी वक़्त कूड़ी वाले बाबा का ज़िक्र कन्नौज में कई दफा सुनाई दिया। माँ बताती थीं कि पंजाब के किसी शहर में वे जज हुआ करते थे और एक केस के सिलसिले में जब किसी दबाव के कारण उन्हें ग़लत निर्णय सुनाने के लिए बाध्य किया गया तो वे विरक्त भाव से घर-गृहस्थी त्याग कर कोर्ट से सीधा मरघट चले गए और आजीवन वहीं के कोरे कपड़े हाथ से सिल कर पहनते रहे… मौनी हो गए।
कहते हैं नाना जी ने एक रोज़ आम के बाग में विचरता देख श्रद्धापूर्वक वहीं उनके रहने का आसरा कर दिया, हालाँकि बाबा को ऐसी कोई दरकार न थी। शहर में भिक्षाटन करते हुए वे महज़ पाँच घरों के आगे रुका करते। हाथ में कासा और मैया रोटी दे की एक अदद पुकार। उनकी उस एक पुकार पर कश्कोल में जो कुछ भी किसी ने डाल दिया सो ग्रहण किया बाक़ी दूसरी आवाज़ कभी किसी ने उन्हें देते हुए सुना नहीं।
अत्यन्त मधुर स्वर था उनका, माँ कहती हैं वे ‘मधुकरी’ करते थे। कन्नौज से गहरा लगाव होने की वज्ह से अंतिम इच्छानुसार, कानपुर में शरीर शान्त होने के बावजूद उनकी पार्थिव देह कन्नौज गंगा तट पर लाई गयी।
कूड़ी वाले बाबा, जिनके बारे में मुझे किसी कहानी की तरह इतना ही ज्ञात है कि वे कुछ समय के लिये मेरी माँ के बचपन में किसी नूर, किसी रोशनी की तरह कभी मौजूद थे। जिन्हें देखना असम्भव रहा मगर सुन-सुन कर जैसे कोई गीत मानस पर छप जाता है वैसे ही उनकी छवि मेंरे मन पर सदा के लिए अंकित हो गयी।
लोग कहते हैं चेतनाएँ सदैव बनी रहती हैं।
गुज़रते वक़्त के साथ लम्हों पर पाँव रख कर हमारा चलना भी जारी रहता है। बीच में थक कर कभी बैठ जाना, अन्तस में बजते किसी पुरातन राग की स्वर लहरी सुनना केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूले फिर ताज़ा दम होकर उसी शहर की ओर पलटना जहाँ फूल ही फूल थे। किसी ज़माने में जिस नगर ने कुसुमपुर और पुष्पावती के नाम से भी जग-प्रसिद्धि पाई।
‘फूलमती देवी का प्राचीन मन्दिर प्राणों में संजोये कन्नौज का पुष्पों से बहुत पुराना व घनिष्ठ सम्बन्ध है। मुझे याद है मोगरा, चमेली, गुलाब, जूही, मेंहदी आदि पुष्पों की खेती करने वाले काश्तकार, जिनके कथनानुसार कन्नौज में उगने वाले गुलाब दो किस्म के होते हैं, पहला डेगेसीना, जिससे इत्र और रूह बनायी जाती है और दूसरा, चीनियां, जिससे गुलाब जल और गुलक़ंद बनता है। मुझे उन गर्मियों का ख़याल आता है जब रात घिरते ही मोगरे के फूलों से भरी कपड़े की गठरियाँ लिए वे लोग शहर में ख़ुशबू का छिड़काव करते निकलते थे। बाग़ से उतारे गए मोगरे इत्र बनाने वाली कोठी के दालान में ढेर के ढेर मोती के दानों सरीखे चमक उठते। देगों में भरे जाने से पहले वे मुट्ठियों और फ्रॉक की झोलियों में गुप-चुप सहेज लिये जाते। चबूतरे पर बैठकर उनसे रंगोलियाँ बनाई जाती, छोटे-छोटे हाथों से माले गूँथें जाते और इतने से भी गर मन न भरता तो नींद के सिरहाने संभाल कर रख लिए जाते। वो महक ननिहाल का अहम हिस्सा थी, बरसहा-बरस मेरी गर्मी की छुट्टियाँ उससे लबरेज़ रहीं।
मौलश्री के जँगल में जामुनी रंग की अकेली तितली अलमस्त अपने एकान्त में उड़ती-फिरती है। मैं मन ही मन अपने खेलने की पसंदीदा जगह पग फेरती हूँ, वह जगह जो एक बड़े संदल डिस्टिलेशन कारखाने का प्रांगण हे जिसके काठ के विशाल प्रवेशद्वार में एक छोटी-सी खिड़की बनी है। अपनी बनक की वज्ह से जिसे आर-पार जाने वाले हर छोटे-बड़े व्यक्ति से सर झुकाने की गुज़ारिश करनी पड़ती है। यहाँ सर झुकाना अजाने ही शीश नवाना भी माना जा सकता है उनके आगे जिनकी आरामगाह इस मुख्यद्वार के ठीक सामने है। जिसमें सोये हैं शहर के पंचपीर।
मैंने इस स्थान-विशेष पर उनके विराजने की कभी एक छोटी-सी कथा सुनी थी। कहते हैं सन् उन्नीस सौ तीन के पहले जब यह जगह एक बड़े सूत कारखाने के लिये ख़रीदी गयी उस वक़्त यहाँ मिट्टी का एक टीला हुआ करता था जिस पर लोग बताते हैं कोई पुरानी क़ब्रगाह थी। इस ज़मीन की साफ़-सफ़ाई करवाने के दौरान व अन्तिम पाँच क़ब्रों को हटाने से पहले मेरे पुरखों को यह स्वप्न हुआ कि ये पंचपीर हैं, तुम्हारी जगह के रखवाले। इनके रहने से बरक़त आयेगी, इन्हें यों ही सोने दो। लोगों ने पूरे विश्वास और श्रद्धा के साथ वे मज़ारें पक्की करवा दीं। तदुपरांत वहाँ सूत रँगाई की एक बड़ी मिल की शुरुआत हुई।
नानाजी ने अपने कारोबार को मेहनत व लगन से विस्तृत रूप देकर कन्नौज डाइंग एंड वीविंग मिल के नाम से सफलतापूर्वक स्थापित किया। उल्लेखनीय है कि उस कारखाने में निर्मित सूत और कपड़ा श्रीलंका-बर्मा (म्यामांर) आदि देशों में निर्यात होता था, मगर नानाजी के आकस्मिक निधन के बाद वो कारखाना धीरे-धीरे बन्द हो गया।लोग उसे याद करते हुए कहते हैं कि यदि वह आज कायम रहता तो उसका रुतबा देखने लायक़ होता। लगभग पन्द्रह वर्षों बाद मामा जी श्री कृष्णचंद्र गुप्ता जी ने उसी जगह से पुनःसंदल डिस्टिलेशन का नया कारोबार प्रारम्भ किया। पंचपीर बाबा आज भी वहाँ आराम फ़रमा हैं। उनकी देहरी हिन्दू-मुसलमान भाईचारे की सुन्दर मिसाल है। वहाँ सभी धर्म- अनुयायियों की बराबर से शिरकत देखी जाती है।
मुझे वह जगह इसलिए अधिक प्रिय है क्योंकि वहाँ गिलहरियाँ चुक-मुक बेठी पकी निंबोली खाती थीं।
बाजरे के लड्डू , आम के हल्दी-मिर्च सने अचार की सूखी फाँके, गुड़ पगे बेसनी सेव, पीली राई के साथ सरसों तेल में डूबा हुआ किल्हा, भुने हुए फूले-हल्के चने, आटे-गोंद की कतली कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ थे जिनमें नानी के नेह का स्वाद रचा-बसा था। गर्मियों में आम की मुख़्तलिफ़ क़िस्मों के साथ बाग़ से टोकरी भर-भर फ़ालसे, करौंदे, जामुन और आडू भी आया करते। मुझे याद है जिस कोठरी में कच्चे आम के टोकरे पाल लगा कर रखे जाते उसके आस-पास की सारी जगह खट्टी-मीठी ख़ुशबू से सराबोर रहती। नानी कहतीं, ‘बच्चों खाना मत खाओ, आम खाओ। खाना तो साल भर खाते हो।’
सोचती हूँ ऊपर दर्ज सामग्री में बहुत-सी शायद अन्यत्र कहीं उपलब्ध भी होती हो मगर जो एक स्वाद सिर्फ़ और सिर्फ़ कन्नौज में ही नसीब होता है वह है कन्नौज का कलावती गट्टा। चीनी फेंट उसमें कंद मिलाकर ऊपर किशमिश, पिस्ते, हरी गरी की कतरन चिपकाने के बाद वजन में अत्यन्त हल्के और मुँह में रखते ही घुल जाने वाले सुस्वादु गट्टों का निर्माण कन्नौज में लगभग डेढ़ सौ वर्षों से होता आया है। इसके अतिरिक्त लौकी के हरे, मीठे लच्छे जिन्हें कपूरकंद के नाम से जाना जाता है वह भी कन्नौज की दुर्लभ मिठाइयों में शुमार की जाती है। शुभ कार्यों में वितरित किया जाने वाला आधा किलो का एक मोतीचूर लड्डू बनाने वाले कन्नौज के कारीगरों की देश-विदेश में सदा से धूम रही। मीठी सुपारी के टुकड़ों का कुटुर-कुटुर चुभलाना मुझे आज भी याद है।
तमाम दुनिया के व्यंजनों में ख़ुशबू के तौर पर इस्तेमाल होने वाले गुलाब व केवड़ा जल के साथ ही गुलाब की पत्तियों में शक्कर मिला कर तैयार किया गया अवलेह जो गुलक़ंद के नाम से पान के बीड़ों में वर्षों से लगा-लिपटा प्रसिद्धि अर्जित करता रहा,कन्नौज का वह रेशमी स्वाद है जिसे एक बार चख लेने के बाद आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
खुशबू , इतिहास, दरगाहों, मन्दिरों, पीर-फ़क़ीरों वाले कन्नौज में मैंने त्रिमोहन और पद्मश्री–गुलाब बाई की नौटंकी के बाबत भी ख़ूब चर्चा सुनी। संगीत प्रधान लोकनाट्य नौटंकी को बुजुर्गवार वहाँ बहुत शिद्दत से याद किया करते थे। गुलाब बाई के प्रसिद्ध लोकगीत–नदी नारे न जाओ श्याम पंइया पड़ूँ और त्रिमोहन के जादूई नगाड़े की प्रशंसा सबकी ज़बान पर रची-बसी थी। कहते हैं गुलाब बाई नौटंकी में क़दम रखने वाली पहली महिला कलाकार थीं उनसे पहले इस विधा में पुरुष ही स्त्री की भूमिका निभाते आये थे। ‘कन्नौज-रत्न’ मामाजी श्री कृष्णचंद्र गुप्ता, जो स्वयं इस वक़्त संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत विचित्र वीणा बादक हैं, उन दिनों का एक वाक़िआ बताते हैं जब वे बाबा ‘हाजी पीर’ की दरगाह पर किसी उर्स के दौरान प्रसिद्ध क़व्वाल शंकर-शंभू का गायन सुनने उपस्थित हुए। तमाम रात तन्मयता से सुनने के बाद बड़े इसरार से वे दोनों भाइयों को अपनी कोठी पर ले आये। जहाँ अपने गायन से दोनों बन्धुओं ने वो समां बांधा कि नीचे गली में भीड़ उमड़ पड़ी और लोग-बाग घंटों तक मंत्र-मुग्ध जहाँ-तहाँ खड़े हुए उन्हें सुनते रहे। इसी बीच किसी ने बताया कि गुलाब बाई भी उर्स में आयी हें, इतना सुनना भर था कि दोनों भाई तुरन्त उनसे मुलाक़ात करने जा पहुँचे। उस समय तक शंकर-शंभू क़व्वाली के क्षेत्र में ख़ासी ख्याति अर्जित कर स्थापित हो चुके थे।
गुलाब बाई से उनके मिलने पर कुछ लोगों ने एतिराज़ जताया, जिसे वे यह कहते हुए ख़ारिज कर गये कि कलाकार सिर्फ़ कलाकार होता है और गुलाब बाई क़तई उनसे बाहर नहीं। माँ बताती हैं कि उस रोज़ के बाद जब कभी भी उन लोगों का कन्नौज के आस-पास से गुज़रना होता, वे घर ज़रूर आते। नानी के लाख मना करने के बावजूद आशीर्वाद के लिए उनके चरण छूते और उन्हें माँ कहकर ही पुकारते।
नानियों की गठरी में सदा ही एक-से बढ़कर एक करिश्माई कहानियाँ मौजूद रहती हैं…
उन दिनों कन्नौज में जब शाम से ले कर देर रात तक बिजली गुल रहती और लगभग समूचा क़स्बा ही अँधेरे में गोते खा रहा होता, हम बच्चे दिन भर के खेल-कूद और धमाचौकड़ी के बाद भी किसी नए कौतुक के लिए सदा लालायित घूमते रहते।हमारी सारी मंशाएँ मगर उस अँधेरे की वज्ह से मुँह के बल गिर पड़तीं क्योंकि उस पहर दौड़ लगाने के लिए न तो छतें ख़ाली होतीं ना ही हमें बैठ कर टीवी देखने का ही सुभीता होता। ऐसे उबाऊ और मायूस माहौल में तब नानी रोशनी की किरण सरीखी हमें बीन-बटोर कर एक जगह इकट्ठा करतीं और महाभारत, रामायण, नरसी भक्त की कथाओं से हमारी मुरझाई दुनिया जगमगा देतीं।
पौराणिक गाथाओं के अलावा खेल ही खेल में इर्द-गिर्द हो रही विभिन्न गतिविधियों से भी वे हमारा परिचय करवाना कभी न भूलतीं। मसलन यह कि प्रथम विश्व युद्ध से पहले चंदन की लकड़ी बैलगाड़ियों द्वारा कलकत्ता से कन्नौज लाई जाती थी, या फिर कन्नौज के निवासी दूर-दराज़ इलाक़ों में केसे वर्ष भर इत्र उत्पादन के लिये अलग-अलग महीनों में अपने उपकरण साथ लेकर विचरण करते थे। उनका तफ़्सील से बताया गया ही मुझे आज तक याद रह गया कि मार्च में कन्नौजी लोग गुलाब जल, गुलक़ंद, गुलाब रूह बनाने के लिये अलीगढ़ की तरफ कूच करते तो अप्रैल में वापस आकर बेला व मेंहदी के फूलों को गलाने के काम को अंजाम दिया करते। जून के आस-पास कुछ महिने केवड़ा के फूलों के लिए उनका उड़ीसा जाना होता और दीवाली बाद वे ख़स के लिए राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों का रुख़ करने लगते।
मैं याद करती हूँ हमारे खेलने के स्थानों में इत्र बनाने वाली कोठी के दालान भी हुआ करते थे, जहाँ दौड़-भाग करते हुए लाशऊरी तौर पर हम देखते रहते केसे छोटी- छोटी भट्ठियों में लकड़ी की आँच पर देग में फूल व पानी साथ मिला कर उबाले जाते और सरपोश के इस्तेमाल से देग को बन्द कर दिया जाता। इसी प्रक्रिया में अंदर बन रही भाप चोंगे से ठंडे पानी के भभके में जाती और थोड़ा ठंडा होने पर वहाँ पानी पर से हाथों द्वारा तेल का आसव अलग कर लिया जाता, जिसे लोग आसवन विधि कहते।मुझे ज़ाती तौर पर इत्र गिल तैयार करने वाले मिट्टी के भीगे उपलों की गंध बहुत प्रिय थी।
माँ कहती हैं उनके बचपन में घर के इर्द-गिर्द गलियों में काँच के शीशे वाले लैंप पोस्ट हुआ करते थे जिसमें कोठी के नौकर शाम होते ही दीया रख जाया करते। बिजली उस वक़्त शहर में आई नहीं थी मगर वीविंग मिल से खींचे गए दो तारों की वज्ह से उनकी कोठी में बल्ब रोशन रहा करते। वीविंग मिल में (जिसका ज़िक्र मैं पहले कर चुकी हूँ) मशीन चलाने के लिए बॉयलर द्वारा बिजली उत्पादन किया जाता था। उन पुराने लैंप-पोस्ट में से एक बचे हुए की याद मुझे आज भी है। गली के मोड़ पर जो अपने समय की गवाही में अरसे तक अकेला खड़ा रहा।
हमसे छूट गए घर बड़े सोंधे थे।
ककइया ईंट की हवेली में लकड़ी के विशाल-नक़्क़ाशीदार दरवाज़े के पीछे कई ड्योढ़ियाँ पार करने के बाद, मिट्टी लिपा बरोठा हुआ करता था जिससे घर के अलग-अलग हिस्से में प्रवेश के लिये संकरे गलियारे फूटते थे। इस तीन आँगन और नौ रसोईघर वाले ज़नानखाने में पुरुषों की आमद सिर्फ़ भोजन और शयन के लिये होती बाक़ी उनका दिन भर का उठना-बैठना व किसी भी बाहरी व्यक्ति के आने पर मेल-मुलाक़ात और बात-व्यवहार इत्र वाली कोठी में ही सम्पन्न होता।
इस हवेली के निचले तल पर एक मुख्य रसोईघर था जिसमें दोनों वक़्त ब्राह्मणियों द्वारा सबके लिए क़िस्म-क़िस्म की दाल और रोटियाँ तैयार की जातीं जबकि दूसरे आठ चौकों में ख़ुद परिवार की महिलाएँ सब्ज़ी, नाश्ता और मिठाई-खटाई की व्यवस्था में संलग्न रहतीं। यहाँ पहले और दूसरे तल्ले पर सभी के आराम करने और सोने वाले कमरे बने थे।सबसे ऊपर की छतों पर एक-दो बरसातियाँ थीं और वहीं कहीं घर की बुजुर्ग स्त्रियों की डांट-डपट का पसारा भी। ये तल्ख़ मिज़ाज महिलाएँ अधिकतर ससुराल से कष्ट पाकर मायके लौट आई वे विधवाएँ थीं, अपने ख़ालीपन को भरने के लिए जिन्हें दूसरों के जीवन में कलह करने से क़तई गुरेज़ न था।
इनमें कुछ एक घर की दादियाँ, बेटियाँ और बुआएँ तो कुछ दूर-दराज़ रिश्तेदारी में तन्हा रह गयीं वे स्त्रियाँ थीं जिन्हें मजबूरन आश्रय के लिए इस परिवार का रुख़ करना पड़ा। घर के चप्पे-चप्पे पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाए सफ़ेद-सूती धोती धारण किए ये बाक़ायदा हर कोने-अन्तरे की ख़बर लिए रहतीं। माँ बताती कि ऐसी ही एक दूर की रिश्तेदार को वे लोग जिजिया कह कर पुकारती थीं। जिजिया घर के हर अच्छे-बुरे में दख़लंदाज़ी करने की आदत से लाचार…. एक बार उन्होंने नानी का नज़र वाला चश्मा ये कह कर ज़बरन उतरवा दिया कि पाख़ाने में कौन तुम्हारा फ़ैशन देखेगा, और एक दफ़ा माँ को सिंगार किया देख कर ख़ूब डाँटा कि रात में आईना देखती है, ‘इतना सज-धज कर का तू पतुरिया बनिहे।’ जिजिया की मृत्यु पर उनके कमरे से सूखी लकड़ियों का बड़ा ज़ख़ीरा निकला, जिसे उन्होंने रसोईघर से धीरे-धीरे कर के एक लम्बे अरसे में जुटाया था। उस काठ को इकट्ठा करने के पीछे उनकी क्या मंशा थी कोई नहीं जानता था, लेकिन इस तरह के वाक़िओं ओर हज़ार तमाशों के बाद भी घर में उनका लिहाज़ और एहतराम सदा सुरक्षित रहा। एक बात ताज्जुब की यह थी कि मुख़्तलिफ़ मिज़ाज वाले किरदार एक ही छत के नीचे वर्षों जीवन के सुख-दुःख साझा करते हुए ऐसी आत्मीयता से रहते रहे कि हवेली का कोना-कोना हमेशा गुलज़ार रहा।बच्चों ओर बहुओं की खिल खिलाहट हर मौसम दरो-दीवार पर रोशनी की इबारत उकेरती रही।
हवेली की अलग-अलग रसोइयों में नित्य ही पाँच सौ लोगों के भोजन का प्रबन्ध किया जाता। अतिथियों की गिनती अलग से होती। घर इतना जीवंत और भरा-पूरा कि बाहरी व्यक्ति को साधारण दिनों में भी त्योहार का अंदेशा होने लगता। लेकिन जेसा कोई कह गया है सब दिन रहत न एक समान, तो समय की करवट के साथ धीरे-धीरे हवेली भी एक दिन अपनी पनाह से लोगों की रुख़सती देखने के लिए बाध्य हो गयी। कमरों पर जड़े हुए ताले और चूल्हों की ठंडी होती आग।
सन्नाटा ऐसा विकट कि खिड़कियों के आधे खुले कपाट हवा के झोंकों से दो- चार होते और खीझ कर चौखट पर सर पटक देते। सीढ़ियों पर धूल की मनमानी देख चिड़ियाँ तक एक रोज़ रोशनदान से विदा हो गयीं।
फिर अंततः बहुत वर्षों की उदासी और उपेक्षा के बाद एक बीहड़ बरसात ने उस डेढ़ सौ वर्ष पुरानी हवेली की नींव निगलने में कामयाबी हासिल कर ली। तीनों आँगन के वे कुएँ अपने एकान्त से घबरा कर उस दिन आपस में एक हो गए। लोग कहते हैं मलबे में तबदील हो चुका वह आलीशान आशियाना आज भी क़स्बे की सुबह-शाम एकटक देखते हुए रोज़ थोड़ा-थोड़ा धूल हो रहा है।
जीवन में कॉपी-किताबों वाले स्कूल सदा नहीं रहते इसलिए एक दिन छुट्टियों को भी छुट्टी मिल जाती है। बचपन पूर्णतया शेष होने की बजाय मन के सबसे कोमल कोने में बचा हुआ अक्सर हाथ पकड़ कर पुराने ठीहों तक उड़ा ले जाता है।
कभी जब बेख़बरी में कहीं अटकी हुई सुधियों की नाज़ुक डोर आहिस्ता अपनी ओर खींचती है, मन दूर से उचक कर ख़ुशबुओं की उस बारादरी में झाँकने लगता है जहाँ आज भी आषाढ़ का प्रथम मेह बरसने से धरती की सोंधी सुगन्ध जैसा मिट्टी का इत्र बनता है।मीठी कन्नौजी बोली चाशनी सरीखी कानों में रह-रह कर घुलती है। जिसे प्राचीन साहित्य में–कुशस्थली, गाधिपुरी, इंद्रपुर और कर्णकुब्ज भी कहा गया।
जहाँ कभी नानी रहती थी।
What a lovely piece, truly insightful, seems the author has poured her heart into it