मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

प्रेरणा श्रीमाली से कथक और वर्तमान परिदृश्य, कथक व कविता पर लिया गया साक्षात्कार - मनीषा कुलश्रेष्ठ

अगला सवाल, थोड़ा विषय परिवर्तन है, आपने विदेशी नृत्य व संगीत उत्सव भी देखे और भारतीय नृत्य व संगीत उत्सव भी देखे होंगे। उनमें क्या आधारभूत फ़र्क़ है देखने में और वहाँ उनमें शामिल होने में? और वहाँ का जो मैनेजमेन्ट हैं और अपना भारतीय मैनेजमेंट है एवं हमारे यहाँ जो कला की सराहना है, हमारे जो दर्शक हैं और उनके जो दर्शक हैं। उस सारे परिप्रेक्ष्य में?

हाँ, अगर मैं इस लिहाज से कहूँ कि मुझे कहाँ मज़ा आता है, तो मैं कहूँगी, हिन्दुस्तान में ज्यादा मज़ा आता है। और जहाँ तक आयोजन की बात है, ज़ाहिर है कि बाहर के लोग बड़े ‘वेल ऑर्गेनाइज्ड़’ होते हैं। हिन्दुस्तान भी में अब बहुत स्थिति सुधर गई है कहना चाहिए अब ठीक से ‘इवेन्ट मैनेजमेंट’ हो जाता है। तो इवेन्ट मैनेजमेंट के तहत आप जाते हैं तो आयोजन बहुत अच्छी तरह से होता है, सारी चीज़ें आपको सही-सही मिलती हैं, पेमेन्ट तक। बहुत बड़ा फ़र्क़ है।
जब आप बाहर जाते हैं तो आपको अपना सब काम खुद करना होता है। आपका सामान उठाने को, आपको मदद करने के लिए कोई नहीं होता। आप हिन्दुस्तान में कहीं जाते हैं कभी नहीं सोचते कि कौन मेरा अटैची उठाएगा, कौन मेरा कॉस्टयूम ... हर आदमी आपके लिए मदद को तत्पर। वहाँ आपको हर चीज़ खुद करनी होती है। यहाँ पर आपको बहुत सारी मदद करने को लोग तैयार होते हैं। क्योंकि यहाँ पर - वहाँ आप जाते हैं तो वह बहुत ‘इन-डिफरेण्ट’ समाज है, बाहर का। उनके लिए तो आप प्रोफ़ेशनल हैं, आप काम करने आए हैं, इसलिए न आपका कोई अहसान है, न उनका कोई अहसान है। यहाँ पर हम कम से कम इससे बचे हुए हैं। हमारे यहाँ अभी तक भावनाएँ, सम्वेदन बाकी हैं। एक कलाकार के प्रति भाव और आदर है, वो आपको वहाँ नहीं दिखता है उस तरह से। अलग तरह से दिखता है कि वे आपका सम्मान करेंगे, जो अपने यहाँ मनुहार होती है कि चाय लेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे, जो यहाँ सब होता रहता है, वो वहाँ नहीं होता ।
भीमसेन जोशी जी, एक उत्सव 'सवई गन्धर्व' करवाते थे। बहुत साल पहले मैं नाची हूँ उस उत्सव में पूना में. वह इतना बड़ा फेस्टीवल होता है कि वहाँ पर बाहर बैठे हुए हैं लोग टिकिट के लिए और अन्दर भरा हुआ होता है, टिकिट नहीं मिल रहा होता है। भीमसेन जोशी जी जितने बड़े महान् गायक हैं उतने ही स्नेहिल. तब ही की बात है, झोला लटकाकर मैं और मेरे साथ एक नृत्यांगना और थी, हम लोग एक साथ नृत्य करने जा रहे थे, सोलो भी था और डयूट भी था - थोड़ी देर में भीमसेन जी आकर पूछते हैं, “आपको कुछ चाहिए तो नहीं?” हम लोग तो संकोच से बिल्कुल गड़ गए ज़मीन में, कि भीमसेन पण्डित जी जैसे व्यक्ति हमसे पूछ रहे हैं कि आपको कुछ चाहिए तो नहीं? तो यह जो मेहमाननवाज़ी की बात है, आपको वहाँ पर नहीं मिलती है।
दूसरी तरफ, अब मंच व्यवस्था है, तो मंच व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण होती है। आपको मंच साफ चाहिए, आपको लाइट यहाँ चाहिए, माइक यहाँ चाहिए, आपको स्लाइड्स वगैरह देखनी है, साउण्ड सिस्टम इस तरह का हो। वहाँ पर कम से कम लोगों में ज्यादा से ज्यादा काम की प्रवृत्ति है, यहाँ ज़्यादा से ज्यादा लोगों में कम से कम काम होता है। मैं इंग्लैण्ड में प्रोग्राम करने गई, जो रज़ा साहब की पेंटिंग और अशोक जी की पोइट्री पर होना था, हमने साथ मिलाकर किया था। डेढ़ घण्टे का मेरा प्रोग्राम था, उसमें पेंटिंग्स को आना था और स्लाइड्स भी आनी थीं और सब कुछ एक साथ था। केवल तीन लोग थे, उस पूरे मंच और थिएटर को सँभालने के लिए और एक तिल भी चीज़ें इधर से उधर नहीं हुईं, जो जैसा, जहाँ चाहिए था, हो गया। उसमें एक महिला थी और दो पुरुष थे। उसमें एक साउण्ड इंजीनियर था और एक मंच सज्जा देख रहे थे और एक मंच के पीछे की व्यवस्था देख रहे थे। बस। वह व्यक्ति, जिसे फ्रेंच के अलावा कोई और भाषा नहीं आती थी, मैं जिससे थोड़ा अंग्रेज़ी में बोल सकती थी, बाकी मुझे फ्रेंच तो नहीं आती थी, मैंने उसको लाइट्स समझायीं हैं किसी तरह, उसने समझा और मुझे परफेक्ट लाइट मिलीं। तो यह जो तकनीकी विशेषज्ञता और कर्तव्यनिष्ठा है, उसको हमें अभी पाना बाकि है यहाँ पर है – जो अब तक नहीं हो पाया है। फिर वही बात कि ..किंतु जो कलाकारों के प्रति भावनात्मक लगाव है, वो जैसा यहाँ है वह कहीं नहीं हो सकता। फिलहाल तो मुझे कहीं नहीं दिखी है।

अगला सवाल मेरा यह है, नृत्य से पूर्व की तैयारी, जो होती है आपकी - मानसिक, दैहिक, आत्मिक जो विषय से जुड़ा होता है। मैं इसको शास्त्रीयता और साहित्य इस सबसे परे, बिल्कुल एक व्यक्ति की तरह कि आप प्रस्तुति देने जा रही हैं पहले आप शान्त बैठना चाहती हैं, विषय से जुड़कर। उसके बारे में बात कर रही हूँ।

मैं कोई भी प्रस्तुति देने अगर जाती हूँ, जब भी मंच पर जाती हूँ, तो मंच पर जाने के पहले कम से कम पन्द्रह या बीस मिनट मुझे कोई अपने आसपास नहीं चाहिए। ये मेरे साथ जाने वाले मेरे शिष्य भी समझ गये हैं अब और वे हटा भी देते हैं सबको। मतलब जब मैं घुँघरू बाँधना शुरू कर देती हूँ, उसके बाद मुझे वहाँ कोई नहीं चाहिए। मैं बात भी नहीं करती हूँ उसके बाद। चाहे मैं कोई भी ऐसी चुनौतीपूर्ण चीज़ नहीं करने जा रही हूँ। क्योंकि नृत्य की मंच पर जाने से पहले एक उत्तेजना तो बनी रहती है, और सौभाग्य से है अब तक।

वो होनी भी चाहिए।

इसका मतलब सीखने और सीखते जाने सम्भावना है, क्योंकि वो खत्म नहीं होनी चाहिए। तो वो बनी हुई है अभी तक और जिस दिन मैं नृत्य करती हूँ, मतलब प्रस्तुति जिस दिन देनी होती है, मैं उस दिन अपना रियाज़ नहीं करती। कभी नहीं करती। मैं उस दिन रिहर्सल करना भी पसन्द नहीं करती। मैं कभी भी - बहुत ही कम ऐसा हुआ है, जब मेरी मजबूरी हो गयी है, कि संगतकार उसी दिन ही पहुँच रहे हैं या कुछ वजह से रिहर्सल नहीं हो पायी है, तो मैं प्रोग्राम वाले दिन रिहर्सल करती हूँ - वरना मैं नहीं करना चाहती। यूँ मैं दिन में रेस्ट करूँ या न करूँ, पर प्रोग्राम वाले दिन मुझे प्रोग्राम से पहले एक घण्टा बिल्कुल शांति चाहिए - किरण भी नहीं चाहिए आसपास. वो सब आपका अपना अन्दरूनी स्वभाव होता है कि उसमें आप क्या तैयारी करते हैं, मानस में, वो इतना तो है, बाकी ऐसा कोई हौव्वा नहीं है। दूसरा, मुझे प्रोग्राम के लिए अलग से रियाज़ के तौर पर नाचना कभी पसन्द नहीं है कि अभी मेरा प्रोग्राम है इसलिए मुझे तीन घण्टा रियाज़ करना चाहिए। रियाज़ मेरा वो ही चलता है - अगर मैं कुछ कम्पोज़ कर रही हूँ, तो समय जाता है उसमें, पर रियाज़ मेरा जो नियमित है वही होता है। चीज़ें बदल जाती हैं , अब उस में समय बहुत ज्यादा नहीं देना पड़ता है, अतिरिक्त ध्यान नहीं देना पड़ता है। सालों से नहीं देना पड़ता है, क्योंकि रियाज़ करना एक लत बन गया है - कि वह एक नशा है कि अगर आप नहीं करते हैं तो कुछ अधूरा लगता है, चिड़चिड़ापन हो जाता है।

इसी सवाल पर मैं आ रही थी कि आम इंसान की तरह मूड और इमोशन के भी अधीन होना ही होता है, तो आप उसे कैसे डील करते हैं?

बहुत अच्छी बात यह है कि, मैंने सबको पहले कहा कि नृत्य मेरा ऐसा एक आउटलेट है, कि मैं बहुत दु:खी हूँ तो भी मैं नृत्य करती हूँ और मैं बहुत सुखी हूँ तो भी मैं नृत्य करती हूँ - और हताशा, विषाद सभी को होते हैं, मूड सभी के खराब और अच्छे होते रहते हैं। नृत्य ने बहुत सारी चीज़ें संतुलित् रखीं हैं - और इसलिए वो बहुत सारी मुश्किलें और चुनौतियाँ मैं झेल जाती हूँ।

तो आपके लिए नृत्य सबसे बड़ा भावनात्मक सम्बल है।

हाँ, क्योंकि मैंने ज़ाहिर तौर पर करके देखा है कि मैं कितने बड़े-बड़े विषादों से ऐसे ही निकल आई। उसका एक नुकसान होता है ? क्या कि आपका परिवार और आपके दोस्त समझते हैं कि ये तो निकल आएगी, कोई बात नहीं है। इसको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

अगला मेरा सवाल था- यात्राएँ, रियाज़, प्रस्तुतियाँ - आप नृत्य स्कूल भी चलाती हैं, सबका समन्वय कैसे करती हैं?

नृत्य स्कूल तो अभी मुझे नहीं कहना चाहिए कि मैं चलाती हूँ क्योंकि मुश्किल से चार-पाँच स्टूडेण्ट्स आते हैं। स्कूल बनाऊँगी धीरे-धीरे, मैंने अभी शुरू किया है सिखाना - जयपुर में और इच्छा है इंस्टीटयूशन बनाने की। यात्राएँ बहुत ज्यादा करती हूँ। इन सबके बीच में समन्वय कैसे, मैं खुद ही हैरान हूँ। जयपुर जाने के बाद यात्राएँ ज्यादा हो गई हैं, क्योंकि एक यात्रा दिल्ली की तो जुड़ ही गई है। इसलिए कुछ ज्यादा हो गई हैं यात्राएँ पर मुझे आदत है, क्योंकि यात्राएँ मैं बचपन से करती आई हूँ, मुझे उसका तनाव अब नहीं होता है,पर मुझे बहुत सामान लादकर जाना अच्छा नहीं लगता। समन्वय हो जाता है, जब कोई चारा नहीं तो.

मैं कथक की पोशाकों पर बात करना चाह रही थी कि इसमें अब धीरे-धीरे एक बदलाव आ रहा है। जैसे लहंगा-चोली तो होता ही था जयपुर घराने का. कारचोबी वाले, भारी कामदार पेशवाज़ जो पहने जाते थे, चूड़ीदार के साथ. अब वे विलुप्त हो रहे हैं. जो गोटा – जरी, ब्रोकेड के गहरे – शोख रंगों के लिबास होते थे, अब उसकी जगह हल्के कपड़ों और हल्के रंगों ने ले लिये हैं, कुछ फ्यूजन चीज़ों ने। लोग क्लोक (लबादा) पहनकर भी नृत्य करने लगे हैं कथक में तो साधारण सूती कुर्ते – अंगरखे पहनने लगे हैं. तो ये पोशाकों में जो उत्तरोतर बदलाव है, उस पर आपकी टिप्प्णी?

बड़ा अच्छा सवाल है। ज़रूरी सवाल है। मैं इसको लेकर बहुत चिन्तित भी हूँ और मुझे लगता है कि इस ओर बहुत ज्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। क्योंकि कथक, मेरे ख्याल से, अकेला ऐसा शास्त्रीय नृत्य है जिसमें कुछ भी पहनकर कोई भी मंच पर आ जाता है। अभी आपने देखा होगा, कॉमनवेल्थ गेम्स की 'ओपनिंग सेरेमनी' में?

जी, बिल्कुल देखा।

कथक के लिबास के बिना आप कथक को पहचान नहीं सकते। जब आपके पास, सिर्फ़ एक-डेढ़ मिनट ही है और आपको कथक दिखाना है, तब सबसे बड़ी पहचान तो आपकी पोशाक ही है। सारे फोर्म्स आपको नज़र आए, पर कथक नज़र ही नहीं आया कि वो कथक हो रहा है। क्योंकि एक-सवा मिनट में कितना दिखेगा? पोशाक तो कम से कम हो कि एक प्रभाव डाले, आपकी पहचान बने।
कथक में दो पोशाकें रही हैं - लहंगा और दुपट्टा, ब्लाउज और अंगरखा और पजामा। यहाँ मैं लोगों को थोड़ा सही सूचित करना चाहती हूँ कि यह केवल जयपुर और लखनऊ की बात नहीं है, अगर आप राजपूत पेंटिंग्स देखेंगी, तो उसमें सबने लम्बे अंगरखे ही पहन रखे हैं। मिनिएचर अगर आप देखेंगी राजपूती, तो उनके अंगरखे हैं ऐसे ही, नीचे प्रिंटेड पायजामे हैं। ट्रांसपेरेन्ट अंगरखे। खुले हुए हैं घुटनों तक तो राजस्थान की शैली है वो, बल्कि बनी-ठनी जो है, उसको अगर आप कल्पना करेंगी तो पेशवाज ही होगा उसका लिबास, वो लहंगा हो ही नहीं सकता।
इसलिए इस कॉस्टयूम में दुपट्टा आप कैसे ढंग से पहन रहे हैं, वही बतायेगा कि आप मुस्लिम छवि देना चाह रही हैं या कि नटनागरी छवि क्योंकि कथक अकेला नृत्य है, जिसमें हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति की छाप साफ़ दिखाई देती है कि दोनों इसमें हैं, कहना चाहिए कि कथक नृत्य का सबसे बड़ा सेकुलर फोर्म है, जिसमें दोनों संस्कृतियाँ साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं, नृत्य - तत्व से भी और पहनावे से भी, उसके तकनीकी शब्दों से भी। आमद, उठान, ठुमरी, ग़ज़ल, तराना, ये सारे आपके उर्दू अल्फाज़ हैं, तो फिर आपकी ठुमरियाँ ब्रज की चली आ रही हैं, जो सारी कृष्ण-राधा से सम्बन्धित हैं। गाना गा रहे हैं, तो ग़ज़ल गा रहे हैं। तो एक तरह का बिल्कुल सेकुलर निभाव.

गंगा-जमुनी संस्कृति।


हाँ, पूरी गंगा – जमुनी संस्कृति सामने दिखाई देती है। तो कॉस्टयूम पर –बात करें तो इन दो कॉस्टयूम से अतिरिक्त हमें अनुमति ही नहीं देनी चाहिए कथक में। बहुत साल पहले की बात है। मैंने जयपुर में एक प्रस्तुति देखी। एक नृत्यांगना लम्बा गाउन, पूरी बाँह का पहनकर - उसने यहाँ बेल्ट लगा लिया, दुपट्टा पहनकर बेल्ट लगा लिया और वह कथक नृत्य कर रही थीं। क्योंकि वो ऎसा लग रहा था कि उसने लहंगा और दुपट्टा पहन रखा है।
ये इतनी छूट भी नहीं होनी चाहिए - स्वतंत्रता होनी चाहिए, पर स्वतंत्रता की भी अपनी सीमाएँ होती हैं। तो यह थोड़ा-सा सोचना चाहिए। इसलिए कथक में सबसे ज्यादा, ख़ासतौर से जितने बड़े नृत्य विद्यालय हैं, जितनी संस्थाएँ हैं, उनको तो यह बात हर हालत में ध्यान रखनी चाहिए। मेरे ख्याल से जो वरिष्ठनृत्य - कलाकार हैं - हम लोगों में इतनी भी हिम्मत आ जानी चाहिए कि हम कह सकें, विरोध कर सकें कि ये मत पहनिये।

यहाँ तक कि आप देखिए, मैक्सिकन कलाकार हैं, फ्लेमिंको करते हैं, वहाँ कोई भी अपना कॉस्टयूम नहीं छोड़ता, कॉस्ट्यूम एक अपने आपमें सिगनैचर है?

बिलकुल सिगनैचर है। जैसे भरतनाट्टयम में अगर आप चन्द्रलेखा जी की बात करें, तो उन्होंने कितने प्रयोग किये, पर कॉस्टयूम उन्होंने वही पहना – जो कि उनका मूल भरतनाटयम का लिबास है। वो जो साड़ी पहनते हैं, हाफ़ साड़ी जो रियाज़ के समय पहनते हैं। उनके सारे प्रयोगों में सबकी पोशाक यही रही है। पोशाक के स्तर पर आप क्यों समझौता करते हैं। यह गलत है,बिल्कुल गलत है। प्रयोग आप कर सकते हैं, किसी चीज़ को समाप्त तो आप नहीं कर सकते, नया शामिल कर सकते हैं। जैसे जयपुर में कथक में क्या हो रहा है? जैसे आपने कहा, हल्के कलर और हर तरह के कपड़े, डिज़ाइन वाले लहंगे।

लबादे पहनकर नर्तक कथक कर रहे हैं, उन लबादों से ही नृत्य की प्रस्तुति और उसका एक प्रभाव नृत्य में डाल रहे हों तो...

नहीं, बहुत हल्कापन लगता है मुझे जब कलाकार नेट के लहंगे पहन लेते हैं, नेट के अंगरखे पहन लेते हैं। वे बहुत ओछे, अकलात्मक लगते हैं। वो चन्देरी दुपट्टा है और उसकी जो शोभा हैं, वो इन सब में कहाँ? बनारसी दुपट्टा है, सिल्क के लहंगे - सिल्क की पोशाल कितनी खूबसूरत दिखाई देती है। मैं आपको बताऊँ कि कभी भी विषयवस्तु जो है, वो तय नहीं करती कि ये जो हो रहा है वह सुन्दर और संजीदा है या नहीं है। जब मैंने पहली बार, यहाँ दिल्ली में आई.आई.सी. के 30 वें साल पर प्रस्तुति दी. सबसे पहले मैंने अमीर खुसरो किया था। 'अमीर खुसरो, दाग़ और ग़ालिब' इस क्रम में मैंने किया था और पहली बार मैंने, अपनी ज़िन्दगी में, मैं ग़ज़ल नाची थी।
मैं बहुत डर रही थी अन्दर से कि ग़ज़ल कैसे नाचूँगी,क्योंकि कुछ तो आपको अपनी सच्चाई पता होती है। मुझे लगता था कि मैं लायक नहीं हूँ उस तरह की रूमानियत भरी भावानुभूति को दिखाने में। ऐसा मुझे लगता था, तो मैंने सोचा जो हो, मैं अपनी तरह से करूँगी। ठीक है। मैंने किया। और मैंने कहीं डायरी नोट में किया है इस कमेन्ट को कि एक महिला बिल्कुल अनजान, मैं जानती नहीं थी, मेरे पास आकर कहती हैं - बेटा! कभी कथक नृत्य मत छोड़ना, तुम नृत्य करती रहोगी तो नृत्य में से जितना हल्कापन है, वह निकल जाएगा।

जी बिल्कुल, बहुत ही बड़ी बात कह दी उन्होंने ।

हाँ. उसके बाद मुझे एक प्रस्तुति देनी थी बेगम अख्तर जी की याद में। रीटा जी ने मुझे कहा, मैंने कहा- आप मुझे क्यों बुला रही हैं, मैं आमतौर पर ग़ज़ल नाचती नहीं हूँ। उन्होंने कहा- मुझे पता है, पर तुमने नाची है ग़ज़ल। मैंने नाम लिया दो-तीन और लोगों का जो कर सकते हैं। तो उन्होंने कहा- वो हमें नहीं चाहिए। तुम जो नाचोगी ग़ज़ल, वो हमको चाहिए। हमें वो गरिमापूर्ण नृत्य चाहिए। वह शोभा, गरिमा आपकी न तो पहनावे से आती है , न विषयवस्तु से, आपके अपनी उपस्तिथि से आती है,आपके अपने सोच से आती है। आपका जो सोच है, वो क्या कर रहा है - हम पहनावे को भी हल्का कर रहा है, दूसरी तरफ हमारी सोच तो विकसित हुई नहीं है।
वह तो हल्की हो रही है? वो तो हल्की है ही, क्योंकि उसमें तो कहीं से भी गहराई नहीं है। अब मैं अच्छी तरह जानती हूँ कथक जगत का अंदरुनी मिजाज़, कि गुरुजन भी और कथक के नृत्यकार भी, जो युवा पीढ़ी जो आ रही है, उनको हुनर आ रहा है, मगर कलात्मकता और मौलिकता गायब है सिरे से, बिल्कुल, क्योंकि कला पर, साहित्य पर, नृत्य के इतिहास और अन्य चीज़ों को आपने पढ़ा – लिखा कुछ है ही नहीं, और आप को कला की भी समझ है नहीं । आज जब बात करते हैं किसी भी बुद्धिजीवी के स्तर की तो जो आज सारे गुरुजन जितनें हैं, इस वक्त - युवा हैं, मगर पढ़े-लिखे नहीं हैं। कोई बात नहीं चलो आप अपनी विधा में माहिर हैं, पर ज़रूरी है न शिक्षित होना। शिक्षा, खाली किताबी - शिक्षा की ज़रूरत नहीं है। आपके संस्कार होना चाहिए। क्योंकि आप नृत्य खाली सिखा रहे हैं? संस्कार नहीं दे रहे हैं , कला का मर्म नहीं सिखा रहे तो आप अधूरे गुरु हैं। कहीं से भी आप नहीं जुड़ रहे हैं, न शिष्य को जोड़ रहे हैं, न साहित्य से, न चित्रकला, न पुस्तकों से न कविता से, किन्हीं और कलाओं से आपका कोई सामंजस्य नहीं है। कला के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं. आप कभी चित्रकला नहीं देखते, आप कभी कविता नहीं सुनते, आप कभी संगीत नहीं सुनते। या संगीत में तो कभी-कभी चले भी जाते हैं मजबूरी में या वैसे ही अपनी इच्छा से भी चले जाएँ, पर आप और किसी विधा से संपर्क नहीं रखते, जबकि कोई कला अकेले तो जीवित रहती नहीं है.

वो ही, कलाओं के समन्वय पर ही मैं बात कर रही थी।

हर एक कला पर अन्य कलाओं की छाया तो आती ही है। अब क्या हो गया है- हमें यहाँ से भी हल्का का दिया और अब वहाँ से भी हल्का कर दिया। यानि शास्त्रीयता से भी, कविता के संस्कार से भी. वैसे ही कथक बड़ी मुश्किल से तवायफ़ों की उस पारंपरिक छाया से निकला है, यह हुआ कि वो छपका वगैरह पहनने से जैसे ही मंच पर नर्तकी आती थी तो सबको लगता था कि तवायफ़ों का नृत्य है, अब कम से कम समाज इतना तो समझ गया है कि यह शास्त्रीय नृत्य है, कला का स्वरूप है, अब हम उससे बाहर आ गये, पर आपको पहनावा तो गरिमामय और कथक का ही रखना पड़ेगा न। उस पहनावे को आप गरिमा और पहचान कैसे देंगे, वो आपकी अपनी सोच है.
मैंने आपको ग़ज़ल का जो उदाहरण दिया कि मैंने नाचा। मैंने उसी पहनावे में नाचा था, तो मुझे भी तो लोग कह सकते थे हैं कि आप तवायफ़ के अन्दाज़ में नाच रही हैं। आप जिस सोच के साथ नाच रहे हैं, वह सोच ही तो सामने रूपांतरित होगी कला में। यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि हम लोग, ख़ासतौर से युवा लोग, और गुरुजन भी इस मसले पर कुछ नहीं कर रहे हैं।

आपका लेखन के प्रति रुझान? क्या आप पुस्तक लिखेंगी कथक पर या कविता पर या दोनों पर? या कुछ कविताएँ आप लिखती आई हैं?

कुछ मेरे मित्रों से मत कह दीजिएगा यह बात, नहीं तो वे मज़ाक बनाएँगे. सच कहूँ तो सीधे तौर पर तो मेरा लेखन की तरफ खास रुझान नहीं है और जो मुझसे लिखवा लिया गया है - मतलब मुझे कहा गया कि मुझे लिखना ही है, या मैं विवश हुई हूँ लिखने पर वह सब ज़रूर लिखा रखा है.

साहित्य के प्रति आपका खास रुझान?

हाँ रुझान है। मेरा लेखन के प्रति भी रुझान अब बन चुका है। मैंने 2000 से एक किताब शुरू की थी, जो अभी तक पूरी नहीं की है। कथक के परिभाषिक जो शब्द हैं - मतलब जितने भी टर्म्स हों, आप सोच लें - जो मुझे याद हैं और जितना मैं जानती हूँ, उन सबको मैंने परिभाषित किया है - एज़ अ परफॉर्मर। उस किताब को मैं बहुत जल्दी पूरा कर देना चाहती हूँ। उसमें कुछ थोड़ा-सा काम शेष रहा है, जो मुझसे नहीं हो रहा है. क्योंकि फिलहाल कुछ मेरी व्यवसायिक व्यस्तताएँ हैं और मेरी प्राथमिकता अभी वही है। लेकिन वो किताब, उसे लिखने का मेरा उद्देश्य यह है कि कोई सामान्य व्यक्ति, जो नृत्य से सीधा सम्बन्ध नहीं रखता है, वह उसे पढ़कर कथक देखे तो वो उसे बहुत कुछ सहज ही समझ में आ जाए। उसका दूसरा उद्देश्य यह भी है कि जितनी अभी किताबें आई हैं, वह कम हैं, किताबों में कथक की बहुत सामग्री नहीं है।

हाँ, अगर हैं भी, तो वो सब एक जैसी हैं। अकादमिक किस्म की. ऐसा लगता है कि एक ही किताब की कॉपी दूसरे ने कर दी है, थोड़ा संक्षिप्त करके।

बिल्कुल। कहीं किसी ने अपना दिमाग नहीं लगाया है। अगर कलाकार ने भी लिखा है, तो उन्होंने भी अपना दिमाग लगाकर नहीं लिखा है। इतिहास वही का वही उतारा हुआ । कुछ भी नहीं बदला गया न नया शामिल हुआ.
शिष्यों को जब मैं पढ़ाने लगी तो मुझे यह समझ में आया। जैसे- गुरुजी! ‘थाट’ की यह परिभाषा तो दो पंक्ति में खत्म हो रही है, क्या करें? तो फिर मैं उन्हें विस्तार से बताती हूँ और उन्हें बहुत अच्छी तरह से समझ आ जाता है, तो इससे मुझे यह समझ में आया कि इसे कहीं दर्ज होना/ लिखना ज़रूरी है। जैसे और किताबों में 'थाट्' को दो लाइन में खत्म कर देते हैं-खड़े होने का अन्दाज़? अरे भाई! थाट में कितना कुछ है। मैंने डेढ़ पेज़ की परिभाषा लिखी है थाट की।
ये उस तरह का तो मैंने लिख लिया है और अब कुछ लिखना चाहती हूँ कथक के कलाकारों के बारे में, मगर मैं जीवनियाँ नहीं लिखना चाहती। मैं सिर्फ़ कुछ लोगों के बारे में लिखना चाहती हूँ, जिनको मैंने देखा है, मेरे संस्मरण उनके साथ। क्योंकि बाकी तो उपलब्ध रहा ही है- कि वे यहाँ पैदा हुए, इस वर्ष में पैदा हुए, ये किया, इतने लोगों को सिखाया, यहाँ पर सिखाया, ऐसा किया। ये सब नहीं चाहिए। अगर मैं सितारा जी के लिए लिख रही हूँ, तो मैंने उन्हें कैसे देखा, एज़ अ नृत्य र - तो उस अन्दाज़ से मैंने उसे लिखा है, संस्मरणात्मक तरीके से। इतना, इस तरह का रुझान तो मेरा है लिखने में।
ये सच्चाई है कि मैं लिखती रही हूँ नृत्य के बारे में, एक और बात मैं बता देती हूँ कि मेरे पास बहुत सारे नोट्स हैं लिखे हुए और जो मेरे पास संग्रहित हैं सारे। जहाँ कहीं शायद मैं पकड़ नहीं पाई हूँ अपने आपको, या जहाँ मेरी अपनी समझ विकसित हुई , वह सब मैंने इन्द्राज किया है. जैसे मुझे एक बार नृत्य करते हुए लगा कि अभिसारिका नायिका जो है, उसके जितने चिह्न आप देखते हैं-- काँटा चुभने से लेकर सर्प। उसे लेकर पता नहीं मुझे कैसे समझ में आया, क्या मेरे मस्तिष्क ने सहेजा कि मैंने फिर उन सब चिन्हों को सांकेतिक तौर पर परिभाषित् किया है, अलग-अलग करके, कि असल में तो अभिसारिका नायिका जो है, सिर्फ़ अपनी जगह से उठकर बस यहाँ से यहाँ तक ही पहुँची है। बस। वह बाहर तो गयी नहीं। मगर उसने इन सब संकेतों – चिन्हों को महसूस किया.

यानि महज अभिसार की कामना में उसने इतना कुछ झेला है?

हाँ, बिलकुल. वो यहाँ से उठकर वहाँ गई, उसी में तो! मैंने उसी पर किया था, तो वह मुझे सूझा था कि ऐसे में सर्प क्या है? प्रतीकात्मक है, क्योंकि मैंने सिम्बोलिज़्म पढ़ा है, अपनी रुचि से और मुझे उसमें मज़ा बहुत आता है। सिम्बोलिज्म में सर्प किसका प्रतीक है और बिजली क्या है, काँटा क्या है और परिधान कैसे हैं और श्रृंगार क्या है, कैसे वह काँटे में अटक गया है दुपट्टा, कैसे वह खोलकर इससे निकालना चाहती है। असल में, उसके मन की अकुलाहट इतनी ज्यादा है कि वो सब सामने दिखाई देने लग जाता है.... तो इस तरह का व्याख्यात्मक लेखन मैंने किया है। मैंने खुद ही सवाल उठाए और काफी खोज – बीन कर अपने ही भीतर के उत्तर ढूँढते हुए नोट्स तैयार किए हैं।

मतलब एक साहित्यिक पुस्तक की तरह ही है होगी ये पुस्तक बजाय बहुत शास्त्रीय पुस्तक के। उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

हाँ. हम नृत्त को इतना क्यों नाचते हैं, हम सबसे पहले पदसंचालन क्यों नाचते हैं या मैंने जैसे कोई किताब पढ़ी तो उसका मैंने इम्प्रेशन लिखा है। जैसे मैंने उदयशंकर जी की ‘मोहन खोकर’ की किताब पढ़ी। मैं बहुत विचलित हो गई इस बात से कि उदयशंकर जी ने कथक को कोई स्थान नहीं दिया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। मुझे इस बात का अफसोस हुआ कि इतना ‘लेजेण्ड नर्तक’, एक ऐसा ‘लेजेण्ड नाच’ कथक- उसका उन्होंने ज़िक्र तक नहीं किया. उन्होंने शायद जाना ही नहीं कि कथक क्या है।
 
उपेक्षित रहा कथक वहाँ?

हाँ। उन्होंने नाम ही नहीं लिया कहीं. उसके अलावा और भी कुछ प्रभाव जो मुझ पर पड़े या मैंने कोई प्रस्तुति देखी और मुझे लगा कि - हाँ, इस पर कोई प्रतिक्रिया लिखूँ तो मैंने लिखा. यहाँ तक कि मैंने एक ड्रामा देखा था। शम्भू मित्रा की बेटी हैं ‘साँवली मित्रा’। वे प्ले लेकर आई ‘थीं अनाथवती और अनाथवत'। वे प्ले खुद करती हैं अकेली। लाइव म्यूजिक के साथ पंडवानी शैली में। आईआईसी में देखा था मैंने। लगभग दो घण्टे का था। उसमें द्रौपदी भीम से जो प्रेम है और वो भीम की नज़र से। द्रोपदी भीम को जगाती है जब भी कोई परेशानी होती है - अज्ञातवास वाले दिनों में। भीम जो है, वो उनकी नज़र से द्रौपदी। ओह हो! वो ऐसे रोंगटे खड़े कर देने वाली थी उनकी प्रस्तुति! मैं तो रो पड़ी थी, जब निकली वहाँ से, तो उसको मैंने लिखा था, कुमार जी की डैथ पर मैंने लिखा था।

बस तो, अब आपकी पुस्तक का इन्तज़ार रहेगा?

मैं लिखती तो बहुत रही हूँ और मेरे पास बहुत सारे नोट्स तैयार हैं। अब तो समझ में आने लग गया है और मज़ा आता है लिखते रहने में, समय थोड़ा कम मिल रहा है, यह भी एक सच्चाई है। पर मैं करूँगी, देखती हूँ। पूरा कब होगा यह मैं कह नहीं सकती। हाँ, मैं लिख तो रही हूँ.

आपकी आँखें इतनी भाव-प्रवण हैं और नृत्य के, अभिनय के पक्ष हैं, दृष्टि-भेद - भृकुटि-भेद ... कथक में दृष्टि-भेद का जो महत्व है, उसे आप कैसे साधती हैं? इसमें मुझे जो बहुत सूक्ष्म अमूर्तन वाला पक्ष है वो जानना है?

दृष्टि-भेद और भृकुटि-भेद! कैसे साधती हूँ...कैसे साधा यह बहुत मज़ेदार सवाल है. हालाँकि मैं इसके लिए तैयार नहीं थी, इन सारे सवालों के लिए, पर ठीक है।

मुझे एकदम प्रेरणा जी का सहज उत्तर चाहिए?

मैं अपना ही उत्तर दे रही हूँ, क्योंकि इस सवाल का और कोई उत्तर दे ही नहीं सकती. मैं जब दिल्ली आई थी जयपुर से, तो मैं गर्दन से नीचे की बहुत अच्छी नृत्य र थी और जयपुर में सब कहते थे, तेज़ नृत्य र है। छोटी भी थी, तो बहुत फास्ट नाचती थी, बड़ा तैयारी से और अच्छा नाचती थी। ऐसा सब कहते थे। दिल्ली आने पर मैं ‘वुडन डांसर’ कही जाने लगी थी। नृत्य तो अच्छा करती है, पर चेहरे पर कुछ नहीं है। और मैं इस कमेन्ट्स से इतनी ज्यादा आहत रहती थी अन्दर तक कि पूछिए मत. सच पूछिये तो, जब से मैंने प्रोफेशनली प्रोग्राम करना शुरू किया, तो जब प्रोग्राम कोई आता था मेरे पास, तो मुझे तनाव सिर्फ़ इस बात का होता थी कि अभिनय कैसे करूँगी, क्या करूँगी। मतलब मैं हताश होकर बैठ जाती थी। वो प्रोग्राम आने की खुशी तो होती ही नहीं थी, उससे पहले कष्ट होने लग जाता था कि अभिनय क्या करूँगी। क्योंकि ये भाग तो देख लूँगी नृत्त का। मेरे दिमाग में नृत्त और अभिनय की पूरी तरह से बँटे हुए थे मेरे भीतर, शुरुआत में, जो बहुत रियाज़ और अनुभव से ही एक हुए। वह फाँक तब इतनी गहरी थी कि मुझे हमेशा लगता था कि मैं यह हिस्सा तो देख लूँगी, लेकिन इसका ( अभिनय) का क्या करूँगी समझ में ही नहीं आता था। मैंने इसके लिए कमरा बन्द करके शीशे के सामने बड़ी प्रैक्टिस की। यह मैं बिल्कुल अन्दर की बात बता रही हूँ। एक प्रोफेशनल नर्तकी की तरह तो मैं आपको कभी नहीं बताती, क्योंकि आपने कहा व्यक्ति की तरह बात करुँ, तो मैं ने बता दिया. मेरे मसल्स भी मूव नहीं करते चेहरे के, तो मैंने अपनी एक्सरसाइज़ें डेवलप की - आँखों की एक्सरसाइज़। एक और सच्चाई यह है कि मैंने बहुत सारे एक्सप्रेशन तस्वीरों से चुराए शुरूआत के दौर में। यह मैं कह रही हूँ, क्योंकि तब मुझे समझ में नहीं आता था कि शर्म कैसे दिखाऊँगी। अब शर्म के लिए मेरी आँख कहाँ जाए! क्योंकि हमारे जो पुराने समय के गुरुजन हैं, जो मेरे गुरु थे, इन बारीकियों पर कभी नहीं जाते थे, वो आपको खुद से ही लाना होता था. कथक में वैसे भी अभिनय अलग सिखाने की प्रथा ही नहीं है। हमारे यहाँ भी यह प्रथा ही नहीं थी, ख़ासतौर पर जयपुर घराने में नहीं थी। लखनऊ घराने में भी अलग से अभिनय सिखाने की परम्परा नहीं थी।

अलग से नहीं थी?

हाँ। मतलब जब आप नृत्य की दूसरे विधा सीखते हैं तो वहाँ अभिनय की शिक्षा अलग से होती है। यह शिक्षा कथक में तो होती नहीं। कोई गुरु या आचार्य नहीं सिखाते। ठुमरी सिखा रहे हैं, तो अलग बात है कि मुद्रा के साथ भाव भी सिखा दिए बल्कि बस एक बार करके दिखा दिए । बाकी, भरतनाटयम में तो अभिनय की शिक्षा होती ही होती है, हर हालत में, कि बच्चे-बच्चे भी ऐसे-ऐसे ( आँखे और भौंह चलाते हुए) करने लगते हैं। उनको ऎसा सायास सिखाया गया है। हम तो परकाया प्रवेश करके ही वो ला पाते हैं। वहाँ तो बच्चे में ही रियाज़ के तौर पर नृत्त का अंग बना कर अभिनय भी डाल दिया जाता है। मगर वहाँ यह है कि वो एक ही तरह से आपको करना है, वहाँ बच्चे से लेकर बड़े तक, सब एक तरह से भाव प्रकट करते हैं, जबकि कथक में हर नृत्यांगना का भाव भिन्न होगा.

मगर आप अंतर देखिए न, वहाँ यह लाउड है, अपने कथक में सटल है।

बहुत लाउड है, बहुत लाउड है। कथक तो वो नाच है कि आप ऐसे नाचिये जैसे रस्सी पर नाच रहे हैं, इधर गये कि गिरा, उधर गए कि गिरा. बस संतुलन में सब कुछ। ज्यादा तो बहुत ज्यादा, कम तो बहुत कम। मैं बहुत सारे एक्सप्रेशन नहीं कर पाती थी शुरु में - मुझे किसी तस्वीर में दिखा कि ऐसे आप करेंगे तो शर्म दिखेगी। तो मैंने उसकी प्रैक्टिस की कि ऐसे आँख करूँगी तो शर्म दिखेगी। बहुत तकलीफ हुई। क्योंकि समझ में ही नहीं आता था। गुरुजी से पूछूँगी तो वह गाली बोल देंगे और कह देंगे- “जा, चली जा यहाँ से, आग लग जाए तेरे को। “
ऎसे में ऐसी बातें उनसे पूछें कैसे? मैं तो उनके सामने घूँघट की गत नहीं कर पाती थी, तो अभिनय क्या पूछूँगी? एक दिन मुझको कक्षा में कहना पड़ा। वे घूँघट बता रहे थे, उसमें घूँघट ऐसे लेकर ऐसे ( करके दिखाती हैं प्रेरणा और मैं उनके अभिनय की सूक्ष्मता पर दंग...) करना था। अब गुरुजी ने तो बता दिया, मै तो खड़ी हूँ। कुछ नहीं हो रहा, वजह कि वे बिल्कुल, पितातुल्य लगते थे, और किसी भी हालत में मैं उनके सामने कर नहीं पा रही थी। कोई भी पिता के सामने ये वाले भाव नहीं कर पायेगा, हमें लगेगा कि पिता के सामने यह सब कैसे कर सकते हैं? फिर गुरुजी ने डाँटा, कक्षा भी बन्द करवा दी। कहने लगे- तेरी शर्म तेरे हॉस्टल में छोड़कर आया कर।
फिर एक बार जब दुर्गा भैया कोई आइटम कर रहे थे। तो उन्होंने घूँघट का एक्शन करवाया मैंने खुद से ही किया. तब पहली बार मुझे लगा कि “अच्छा। अच्छा किया मैंने“ तो इसलिए कहना चाहिए कि मैंने खुद इसको मांजा है। दृष्टि-भेद अगर आप देखें, मेरे हिसाब से, तो कथक में जो दृष्टि है और भी फोर्म्स में होगी, मेरे ख्याल व अनुभव से वह हस्तक का ही विस्तार है।

वाह, क्या बात कही आपने कि, कथक की हर मुद्रा में दृष्टि - भेद जो है वह हाथ का ही विस्तार है।

जैसे हाथ बढ़ाकर अगर आपने पास में देखा तो गति यहाँ पर ही खत्म हो गया, वहाँ दूर देखा तो वहाँ तक विस्तार हो गया। ये फ़र्क़ है, ये जो दृष्टि है, दृष्टि का इस्तेमाल कथक के नृत्य से लेकर अभिनय तक सब जगह है। 'भृकुटि' जहाँ तक आप कहते हैं, उसका इस्तेमाल अगर आप तरीके से न करें, तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है, और बहुत सारे लोग कर भी नहीं पाते हैं। भृकुटि की भी मैंने प्रैक्टिस की है, एक-डेढ़ साल मैंने गुरु गौरीशंकर जी से सीखा, जो मुम्बई में थे और मुम्बई से जयपुर आकर सिखाया उन्होंने। उन्होंने बाकायदा ऐसे ( आँखे और भौंह चलाते हुए) करके मुझे प्रैक्टिस करवायी है। मेरी तो खाली एक चलती थी, दूसरी चलती ही नहीं थी। मतलब प्रैक्टिस कर-करके मेरा यह हाल है कि मैं पिक्चर देखते - देखते प्रेक्टिस करती रहती थी, ऐसे-ऐसे( आँखे और भौंह चलाते हुए) आदत पड़ गई थी।

बहुत पुरानी बात होगी?

बहुत पुरानी बात है। यहाँ तक कि दिल्ली आने से पहले की। मैं 78 में दिल्ली आ गई, उसके पहले।

मतलब 18-19 साल की उम्र में?

नहीं, उसके भी पहले। 17-18 साल में। अच्छा फिर जब यहाँ आ गई, उसके बाद एक बार महाराज जी ने पूछा- अरे जयपुर! - वे मुझे 'जयपुर' कहते थे - 'अरे जयपुर! अब तो तेरी आईब्रो चलती है। मैंने कहा, “हाँ, महाराज जी। देखिए.”
इसलिए मुझे लगता है कि दृष्टि संचालन जो है कथक में, वह सही मायनों में विस्तार है हस्तक का और मंच का भी आपके आसपास की पूरी जगह आप साध रहे हैं, अमूर्त स्पेस क्रियेट कर रहे हैं न, वो भी केवल दृष्टि संचालन से कर रहे हैं. हमें यह सीखना पड़ता है कि आपकी आँख झपके नहीं। 'थाट' में जो दृष्टि भेद है, वह बिल्कुल अलग है, वहाँ आप शरीर से स्थिर हैं भ्रू विलास और दृष्टि का विस्तार है। आप जब 'गत' में भाव के साथ, मूवमेंट के साथ – साथ देख रहे हैं तो वह बिल्कुल अलग है, गत के समानांतर चलती है दृष्टि। अभिनय में ये दृष्टि-भेद - भृकुटि-भेद और गहन हैं, मुझे लगता है। मैं इसका इस्तेमाल करती भी हूँ, सिखाती भी हूँ। आईब्रोज़ का इस्तेमाल मैं 'थाट' में बहुत ज्यादा करवाती हूँ। कोशिश करती हूँ कि मेरे शिष्य करें और मैं खुद भी करती आई हूँ।

मेरे गुरुजी भी कहते थे, 'थाट’ में तो भ्रू - संचालन बहुत ज़रूरी है? हारमोनियम के ‘लहरा’ पर हम ‘थाट’ की मुद्रा में बस भौंह ही चलाते थे.

यह बहुत ज़रूरी लगता है मुझे भी। थाट में यही एक हिस्सा है, जो चल सकता है। बाकी सब स्थिर है। एक बहुत मज़ेदार बात यह भी है कि कथक में कनखियों से देखना बहुत कम होता है। उसमें आपकी गर्दन जितनी घूमी है, दृष्टि उससे कम घूमेगी और वह केन्द्र में आ जाएगी। वो सही है। यदि आप 'थाट' में अगर ऐसे ही खड़े हो गये, तो अच्छा नहीं लगता है। अब अगर आप गर्दन घुमायेंगे, दृष्टि वहीं हैं, तो भौंह संचालन आवश्यक हो जाता है.

मेरा अन्तिम सवाल आपके समकालीनों को लेकर है। आपके समकालीन और उनसे आपका सम्बन्ध?

मेरा रेपो वैसे बहुत अच्छा है सबसे। केवल कथक में ही नहीं, दूसरी जितनी भी नृत्य की फोर्म्स हैं, सबसे, समकालीनों से ज्यादा मेरे सीनियर्स से मेरा ज्यादा रेपो है इनफैक्ट। क्योंकि समकालीन तो, सौभाग्य या दुर्भाग्य कहिए, कि बहुत सारे नहीं हैं। सीनियर्स, मतलब मैं कह रही हूँ जो मुझसे 8-10 साल बड़े हैं।

शोभना जी, उमा शर्मा जी आदि ?

सभी सीनियर्स से बड़े सहज सम्बन्ध हैं। उमा जी से ज़रूर थोड़ी सम्मानजनक दूरी है, क्योंकि वे और भी वरिष्ठ हैं। शोभना जी से दोस्ताना सम्बन्ध हैं। हम लोग एक बार खाना साथ खा रहे थे और हमने इतनी गप्पें मारीं आईआईसी में कि अंतत: वहाँ के स्टाफ को कहना पड़ा कि – अब आपको उठना पड़ेगा, दोपहर में वह खाली हो जाता है, हम बैठे बात करते रहे। वे बहुत पढ़ी-लिखी हैं, वेल लिटरेट पर्सन। स्वप्न सुन्दरी से भी मेरी अच्छी दोस्ती है। माधवी जी से मेरी अच्छी दोस्ती है। राजू तो मेरा कुलिग है, राजेन्द्र गंगानी के तो साथ में हमने सीखा है लेकिन वह व्यस्त बहुत रहता है. कुछ थोड़ा-सा - मुझे लगता है कि अब वह स्थिति आ गई है - अगर वैचारिक तालमेल न हो या मानसिक रूप से आप अगर कम्युनिकेट नहीं कर पा रहे हैं ढंग से, तो फिर दोस्ती उस तरह नहीं रहती। पहचान तो सभी से रहती है मगर समकालीन कथक में मेरे बहुत सारे मित्र नहीं हैं।

मेरे ख्याल से आपके समकालीनों में हैं नहीं। अब जो नई पीढ़ी आ रही है?

नई पीढ़ी से भी मेरे बहुत अच्छे ताल्लुकात हैं। मेरे बाद वाली पीढ़ी में से बहुत सारे नर्तक, जो इण्डिविजुअल फॉर्म्स लेकर सामने आ रहे हैं, उनमें से दो-तीन को बिस्मिल्ला अवार्ड भी मिला है - उन सबसे मेरा बहुत अच्छा कम्युनिकेशन है। दुर्भाग्य से, समकालीन, मेरी अपनी उम्र के लोग नहीं हैं, या मेरे से बड़े हैं और सीनियर हैं। मतलब, उम्र की ही बात नहीं है - अनुभव में भी, या तो मुझसे जूनियर जो हैं, वे सब मेरे बहुत करीबी हैं। जब मैं रेपर्टरी में मुखिया के तौर पर काम कर रही थी, वहाँ सारे मेरे जूनियर्स ही थे, वे सब बहुत अच्छे कलाकार थे।
आप उनमें सम्भावनाएँ देखती हैं?

बहुत ज्यादा। अभी जो कलाकार आ रहे हैं, वे बहुत सारे हैं और 19-20 के अन्तर से सब एक-से हैं। सकारात्मक बात यह है कि सबमें बहुत अच्छी सम्भावना है. स्किल है और नकारात्मक बात यह है कि उनमें से निकलकर अपनी पहचान बनाने वाले बहुत मुश्किल से नज़र आ रहे हैं। सब लगभग एक-सा नाच रहे हैं, क्योंकि पहचान तो तब बनेगी, जब आपसे अच्छा बनेगा, कुछ नया बनेगा, तो वैसे लोग कम हैं। जो मेरे से बाद वाली जनरेशन है, सब बहुत ही तेज़ और मेहनती हैं। वह इस अर्थ में कि अगर आपने पच्चीस चक्कर लिए तो मैं 50 चक्कर लेना चाहती हूँ। ऐसा वाला मामला है। उन्होंने एक स्किल को मास्टरी कर लिया है. नृत्य की तकनीक जो है न, उस तकनीक को तो पकड़ लिया है, मगर कविता गायब हो गई है, उसमें से भावना गायब हो गई है - और क्योंकि उनको गहराई से सिखाने का न तो वक्त है गुरुजनों के पास। शायद उनमें वो रुचि व सजगता उनमें डाल ही नहीं पाए कि वह अपनी तरह से स्वत: सवाल करें। यह थोड़ी-सी एक कमी दिखाई देती है।

मैं प्रेरणा जी के नृत्य के खास अन्दाज़ यानि प्रेरणा श्रीमाली के सिगनैचर स्टायल में महत्वपूर्ण क्या मानूँ - अभिनय, कविता, शास्त्रीयता या सबका एक कोलाज?

अभी जैसे कहा कि अभिनय और नृत्त के बीच की फाँक खत्म कर दी है मैंने, इनसे मिलकर ही पूरा कथक बनता है. नृत्त में अभिनय शामिल हो गया, अभिनय में नृत्त की शास्त्रीयता शामिल हो गयी, और इन दोनों में कविता शामिल हो तो मेरे लिए वो पूरा मिलकर ही एक सम्पूर्ण प्रस्तुति बनता है। मैं इन दोनों को अलग देखती ही नहीं हूँ, मैं वैसा ही नाचती हूँ, इसे मेरी विशिष्टता आप मान सकती हैं। कथक के प्रति इस नज़रिये को बदलने की मेरी भरपूर कोशिश रही है लोग जो मानते हैं कि ये टुकड़े - तोड़े जो हैं, पदसंचालन है। वे उसे सम्पूर्ण भाषा के रूप में नहीं देख रहे हैं। मेरा अपना यह ध्येय है कि मैं किसी भी सीमा तक, जहाँ तक मैं कर सकती हूँ अपने स्तर पर, मैं इस भेद को मिटाना चाहती हूँ। मेरे नृत्य में वह झलकता है और सदा झलके. मेरा अपना नृत्य, इसकी पहचान बनना चाहिए।

मेरे ख्याल से बन चुका है। नृत्त और अभिनय का समायोजन और उसमें कविता का स्पर्श, यही वैशिष्ट्य है आपकी नृत्य शैली में ।

जी बिलकुल.

धन्यवाद! प्रेरणा जी।


 

Top
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com