चित्रकार अखिलेश की पुस्तक ‘अचम्भे का रोना’ पर
कलात्मक आध्यात्म की पराकाष्ठा : अचम्भे का रोना
Achambhe ka rona – akhilesh
अखिलेश की पुस्तक ‘अचम्भे का रोना’ की भूमिका लिखते हुए वागीश शुक्ल एक सटीक बात पकड़ते हैं कि अखिलेश की हाल ही में राजकमल से आई चारों पुस्तकों का हिन्दी जगत में भरपूर स्वागत होना चाहिए. मैं इस बात का मन से अनुमोदन करती हूं, क्योंकि ये पुस्तकें हिन्दी के पाठक के लिए कला व सृजन की दुनिया के एकदम नए द्वार खोलती हैं. खास तौर पर ‘अचम्भे का रोना’ के लेख़ हिन्दी जगत को कला – साहित्य के सन्दर्भ में नई समृद्धि देते हैं.
अखिलेश का चित्रकार तो लगभग अल्पभाषी है, वहाँ रंग बातें करते हैं, मगर जब अखिलेश का लेखक कुछ कहता है तो वह अभिव्यक्ति चमत्कृत करती है. ईमानदार धार लिए चमकीली अभिव्यक्ति की असरदार सम्प्रेषणीयता. गद्यकार अखिलेश, अनजाने ही या आदतन अपने चित्रकार से वे एक नया मुहावरा, नई भाषा और सादे से मगर अनूठे शिल्प का टूल किट लेकर चलते हैं जो अमूर्तन को मूर्त करता है, जो हिन्दी साहित्य जगत में विरल है, बल्कि अपने आप में एक ही है.
अखिलेश की यह किताब एकबारगी पलटने पर बहुविधात्मक किताब जान पड़ती है. जिसमें चित्रकला की दुनिया के शीर्षस्थ चित्रकारों के दुर्लभ संस्मरणों के अतिरिक्त, कला तथा अपनी रचना प्रक्रिया पर निबन्ध हैं, एक उनका स्वयँ का साक्षात्कार हैं, जो अशोक बाजपेयी जी ने लिया है. अपने वरिष्ठों तथा समकालीनों तथा उनकी कला पर लिखे रेखाचित्र भी हैं, कविता भी है. किंतु किताब पढने बैठो तो लगता है, यह किताब कला को लेकर कितनी संजीदगी से गहन सरोकार लिए हुए है, एकनिष्ठ सरोकार. न केवल चित्रकला, यहाँ जीवन के प्रति भी ये सरोकार उतने ही गहरे हैं ( चाहे वह अपने वरिष्ठों का जीवन हो या समकालीनोँ का या अपने से युवतर पीढी का) तो साहित्य को लेकर भी. वे अपनी उदात्त विनम्रता के साथ देश के प्रसिद्ध वरिष्ठ चित्रकारोँ, अपने लब्धप्रतिष्ठ समकालीनों तथा युवा चित्रकारोँ स्वामीनाथन, हुसैन, रज़ा, गायतोण्डे, बावा, नागजी पटेल, राम कुमार, प्रभाकर बर्वे, अम्बादास, अवधेश, मनीष, आदिवासी कला के प्रतिष्ठित चित्रकार – जनगण आदि के जीवन पर अपनी स्मृतियाँ खंगाल कर न केवल स्मृति चित्र रचते हैं, बलिक उनकी कला की बारीकी पर चर्चा करते हुए, उन पर जीवन में बदली गई करवटों का प्रभाव भी रेखांकित करते चलते हैं और साथ ही सहज और मुंह में घुल जाने की तर्ज पर कहूँ तो मन में घुल जाने वाली मुलायम भाषा में वो भारतीय व पाश्चात्य चित्रकला के ऎतिहासिक व वर्तमान तथा समकालीन स्वरूप की बारीकियां भी समझाते चलतें हैं. कभी – कभी वे भारत में चित्रकला के क्षेत्र में आने वाली दुश्वारियों व अकादमिक उपेक्षाओं पर भी अपनी विनम्र मगर तट्स्थ आपत्ति दर्ज कराते हैं. मसलन –
“ आज़ाद भारत का यह दुर्भाग्य है कि इस वैविध्यपूर्ण कला संसार की समग्रता को समझने का जोख़िम उठाने के पहले ही कला आलोचक पर ‘वाद’ की छुरी चल जाती है.”
स्वामीनाथन के संस्मरणों के माध्यम से वे उनकी कला पर पड़े आदिवासी चित्रकला के प्रभाव के बारे में वे लिखते हैं – “वह आदिवासी कला से प्रभावित होना नहीं था, यह आदिवासी होना था.” वे बताते चलते हैं कि स्वामी का कला के किसी उत्तरोत्तर विकास में विश्वास नहीं था क्योंकि स्वामी कहते थे कि — “ मैं वहाँ खड़ा हूँ जहाँ पहला आदमी खड़ा था, अपने समय की विभिषिकाओं का सामना करता हुआ.”
अपने लेख ‘ वर्ण और वर्णन : कुछ पहलू ‘ में समकालीन चित्रकला के बारे में वे विचारोद्दीपक प्रश्न से शुरुआत करते हैं कि समकालीन भारतीय कला की भाषा और इसका व्याकरण क्या है? वह भी आज के वैश्विक कला परिदृश्य के समक्ष! इस सन्दर्भ में वे हमारी परम्परा में देशज शैलियों तथा आदिवासी कला को तो स्वीकार करते हैं मगर पौराणिक स्थानीयता के यथार्थवादी स्वरूप को कैलेण्डर तक पहुँचाने वाले राजा रवि वर्मा की कला को वे भारतीय चित्रकला की परम्परा न मान कर अंगेज़ों को खुश करने की प्रतिभाहीन अवसरवादिता व अदूरदर्शिता मानते हैं. तर्क अचूक है – यथार्थवाद वही है जिसे सम्प्रेषित होने का लालच है.
हुसैन पर एक वाक्य ही में अखिलेश बहुत कुछ अनकहा लिख जाते हैं, ‘ मक़बूल फ़िदा हुसैन ( बाबा) से मिलना पूरी एक सदी के मिलना जैसा है.’ हुसैन पर लिखे गए अध्याय, हुसैन के जीवन व कला पर एक नवीनतम कोण से प्रकाश ही नहीं बल्कि मुलायम छायाएं डालते हैं कि आप न केवल चित्रकार हुसैन से रू – ब रू होते हैं बल्कि किस्सागो हुसैन, कवि हुसैन, फिल्मकार हुसैन, पारिवारिक हुसैन और यारबाश हुसैन से हाथ मिलाते हुए हैरान होते हैं. जब अखिलेश उनकी चित्रकला की बात करते हैं तो वह यह कहने से नहीं हिचकते कि कला के वैश्विक फलक पर हिन्दुस्तानी कला में जिसने पहली बार भारतीयता को आत्मग्लानि की जगह आत्मसम्मान की तरह दिखाया वे हुसैन ही थे. आज हम जो एक कलाकार की नागरिकता को लेकर इत्ने प्रश्न उठाते हैं, अखिलेश के ये संस्मरणात्मक आलेख पढ कर बहुत क्षुद्रता महसूस होती है. हम क्यों नहीं मान लेते कि एक कलाकार जो प्रकृति से यायावर है और उसकी कला तो सार्वदेशीय – सार्वकालिक है, उसे कैसे सीमाओं में बाँध सकते हैं.
“तू शाहीन है, परवाज़ है काम तेरा” इक़बाल की ये पंक्तियाँ जो हुसैन को प्रिय हैं, हुसैन की यायावर प्रकृति का आईना हैं.
जंगल से निकल कर भारतभवन तक आए और विश्वप्रसिद्ध हुए एक आदिवासी चित्रकार जनगण के कलात्मक उत्थान से लेकर जीवन के अवसान को जिस सम्वेदना के तहत एक लोकगाथा के सापेक्ष एक मार्मिक पेराडॉक्स जो लेखक ने रचा है वह अपने आप में एक मिथकीय गाथा बन जाता है. जनगण और उसका जंगल, उसकी दिनचर्या के हर घटक में शामिल देवियां, देव किस तरह उसके चित्रों से विलुप्त होते हैं और जीवन में भौतिकता के साथ अवसाद प्रविष्ट होता है जो जापान की तीसरी और जीवन की अंतिम यात्रा के साथ ही समाप्त होता है.
रज़ा पर लिखते हुए अखिलेश बहुत उदारता के साथ उदात्त शब्दों का चयन करते हैं. महासागर, प्रशामक दृष्टि, शांत, राजसी नीला, ठण्डी शमनकारी अनुशासित उपस्थिति, रहस्यात्मक तटस्थता. वे रज़ा के रंगों से स्वयं तो चमत्कृत हैं और अपने अनूठे अन्दाज़ में वे शब्दों के माध्यम से यह चमत्कार पाठक के मानस तक पहुँचा जाते हैं. अखिलेश रज़ा के चित्रों के रंगों पर तो लगभग कविता ही रचते हैं. “ रंग का यह मर्म, रंग का घर प्रतीत होता है. या हम यूँ भी कह सक्ते हैँ कि : ‘ओशन’ में नीले रंगों को अपना घर मिल गया है. यहाँ वे आवेगशील ढंग से आकर्षक, उदास और सघन हैं.”
रज़ा के चित्रों के रंगों की गहराई और रंगों के प्रयोगों की अनूठी अंतर्दृष्टि पर उनका कहना है कि – रंगों का यह आध्यात्म रज़ा को उनके समकालीनों से अलग करता है. जैसा कि अखिलेश अपने हर संस्मरण में यह नियामत पाठक को सौंपते चलते हैं यहाँ भी वे अपने संस्मरणों और आलेखों में बहुआयामी रज़ा के जीवन का कोलाजों प्रस्तुत करते हैं.
अम्बादास के चित्रों पर कलम चलाते हुए लेखक ने अम्बादास के चित्रों को ‘संकोच के चित्र’ लिखा है, वह भोला मगर जीजिविषा युक्त संकोच जो प्रकृति में छिपा रहता है. गर्भ में भटकते हुए शुक्राणुओं का – सा लक्ष्यहीन मगर जीवन लोलुप संकोच. महज रचना, रचने का आत्मविहीन सुख. इजस तरह ने अम्बादास के चित्रों को ‘संकोच के चित्र’ लिखा गया है, वहीं वे लिख्ते हैं कि ‘बर्वे के चित्र अद्वितीय कव्यमयता के चित्र है. समय व अवकाश के उस संयोग के चित्र हैं जहाँ समय का अतिक्रमण नहीं. रामकुमार के अमूर्तन से आकृति और आकृति से अमूर्तन में पेस्टल रंगों में घुलती – मिलती कलाशैली पर कुछ टीपों के रूप में अपने विचार प्रकट करते हुए वे लिखते हैं कि
‘ राम कुमार के चित्रों में फैली उदासी, विरह भाव रंग की है, विरह जो प्रेम को अनंत बनाता है. नाग जी पटेल और हेनरी मूर की समानताओं पर बात करते – करते अखिलेश पाठक को नागजी पटेल की शिल्पकला की विशिष्टताओं से आहिस्ता से अवगत करा देते हैं. जो कि पारम्प्रिक रूप से आधुनिक हैं, अव्यक्त एन्द्रिकता के बावज़ूद आक्रामक नहीं, अश्लील नहीं, नैसर्गिक हैं.
न केवल चित्रकला के क्षेत्र में दखल बल्कि अपने चारित्रिक विकास का श्रेय अपने शिक्षकों को देते हुए विनम्र अखिलेश सक्सेना सर को याद करते हुए स्नेह्सिक्त हो जाते हैं, और एक पूरा अध्याय उन्हें समर्पित करते हैं.
मनजीत बावा पर बहुत लेख लिखे गए होंगे मगर अखिलेश की लेखनी यहाँ फिर भारतीय आधुनिक व समकालीन चित्रकला को बहुत सतही तौर पर जानने एक आम पाठक को एक अलग ही तरह से ‘जॉय राइड’ कराती है, मनजीत के चित्रों के विषय – वैचितत्र्य और उनके भीतर छिपे विडम्बनात्मक हास्य से न केवल परिचित कराती है, सरल व्याख्या भी करती है
अखिलेश अपने से युवतर पीढी को, उसकी कला को एक सम्वेदनशील, उदार मगर बारीक सन्धानी दृष्टि से देखते हैं. प्रश्नाकुलता और मनीष, ’प्रतिक्रमण’ और मनीष, हड़बड़ाहट को छटपटाहट में बदलता मनीष, सफलता से अविचलित मनीष पुष्कले का मानस संसार, लगातार स्वाध्याय से समृद्ध होता हुआ और समकालीन कला में एक करवट भरता हुआ.
सपनों, दिवास्वप्नों, कोलाजोँ, प्रकाशपुँजों, भ्रमों, छायाओं, धुंधलकों को माध्यम बना कर अखिलेश अपने संस्मरण और लेख इतने रोचक और मौलिक बना देते हैं कि लगातार पूरी पुस्तक के पाठ के दौरान यही लगता है कि आप कहीं चित्र देख रहे हैं, कहीं कविता पढ़ रहे हैं.
‘क्या वह धूसर में प्रकट होती है’ , अवधेश के जिस चित्र पर अखिलेश ने जिस तरह से यह चित्रात्मक आलेख, या एक अतिनूतन शिल्प की सर्रियलस्टिकली रूमानी कहानी लिखी है वह चित्र मैंने देखा तो नहीं है मगर इसे पढते हुए वह चित्र देख्नने की तीव्र उत्कंठा बार – बार जगी है और कल्पना में न बॉलकनी में खड़ी – लेटी निर्वस्त्र युवती का वह व्याकुल चित्र अंतस में जाने कितनी बार बना – बिगड़ा है. कोई सीमा होती है कल्पनाओं की उड़ान की भी तो…. कहां गोरबियो की मॉन्तेजेल की पहाड़ियाँ कहाँ धौलागिरी से रावी का गिरना, या अथिरा नदी . देह में लगी जंग, सफेद फफूँद….असहनीय शीत से जमी जाती देह से लगातार उत्सर्जित होती ऊष्मा. ठंड से जमे स्तन, जाँघों से बहता खून. मृत्यु का सरक आना, मुस्कुराह्ट से प्रेम व आमंत्रण का चुकते जाना, जमती हुई देह में से आँख का लगातार युवक को देख्नना, उस युवक को जिस पर फफूँद उगती जाती है, जिसे वह नोंक कर खाता जाता है, वह फिर उग आती है. प्रेम – पीड़ा, आकर्षण – विकर्षण, अहम – समर्पण, विद्रोह – समझौते, देह – विदेह, मोह – मोहभंग, जीवन – मृत्यु की प्रधान भावपरकता के साथ – साथ न जाने कितने ही सूक्ष्म अहसास अवधेश के उस चित्र में होंगे जिन्हें अखिलेश की सन्धानी नज़र ने पकड़ा और कलम ने अचूक हो कर उन्हें शब्दों में रच डाला है. “ उसकी आमंत्रण देती मुस्कुराहट व्अहीं थमी है, सामने कुछ – कुछ दिखायी दे रहे युवक की आँख का मटकना जारी है, बीच – बीच में उसका अंतिम नमस्कार दिखायी दे जाता है और वह समझ नहीं पाई कि पहली मुलाकात
में अंतिम नमस्कार क्यों? क्यों वह युवक फफूंद सा जमा खड़ा है? “
इस पुस्तक के अंतिम दो अध्याय अखिलेश की अपनी रचना प्रक्रिया पर हैं, दरअसल एक अशोक बाजपेयी का लिया साक्षात्कार है, एक ‘ब्रिलिएंट इंटरव्यू’ जो अखिलेश के भीतर के कलाकार को और उनकी चित्रकला के विकासक्रम को पारदर्शी तरह से परत दर परत खोलता है. रचना प्रक्रिया के दौरान का संशय, कैनवास से लुकाछिपी फिर एक ‘रचनात्मक क्षणांश’ और फिर रंग के प्राणतत्व तक की यात्रा, अव्यक्त से व्यक्त होने की यात्रा, भ्रांति से यथार्थ स्वरूप की यात्रा, वे यह सहज बारीकी से बताते हैं. रंगों की ऊष्मा से प्रेम करने वाले अखिलेश रचनाप्रक्रिया पर तो खुलकर बात करते हैं मगर अपने बारे में बात करते हुए वे स्वयं को लेकर अण्डरटोन रहते हैं, वे अपने कला के प्रति सरोकारों को लेकर इतने संजीदा हैं कि कुछ भी उथला या स्थूल उनके बयानों में नहीं होता. सहज, महीन, कलात्मक, धारदार चमकीली ईमानदारी, स्पष्ट विचारधारा और समकालीन कला के भविष्य को लेकर एक सकारात्मक नजरिया, यही अखिलेश के इन आलेखों से झलकता है.
अशोक बाजपेयी जी के साक्षात्कार के दौरान ही पता चलता है कि आप एक बड़े, समकालीन चित्रकला के लब्धप्रतिष्ठ मगर विनम्र चित्रकार से मुख़ातिब हैं. इस साक्षात्कार में अखिलेश की शैली में विशिष्ट तौर पर उभरे ‘रूप – आध्यात्म’ के बारे में अशोक जी के प्रश्न के उत्तर में वे इस अमूर्त कला की इस नई टर्म को इन शब्दों में परिभाषित करते हैं — “किसी भी रूप का आध्यात्म, किसी रूपाकार की आत्मकेन्द्रित अवस्था.”
“ रंग और उसके स्याह अँधेरे में जहाँ से मैं सफेद को एक नए रूप में, एक नए आकार में, एक नए टोन में चुपके से पकड़ लेता हूँ, वह अचम्भित हो जाता है. फिर धीरे से दोस्त बन जाता है.” तितली की तरह यूँ किसी रंग के नए टोन, किसी सतह के नए टैक्सचर को पकड़ लेना, उनका उँगली की पोर पर छूट जाना अखिलेश को खुद को कम अचम्भित नहीं करता, क्योंकि वे मानते हैं कि किसी भी आर्ट का कलात्मक प्रस्तुतिकरण उन्हें रुला जाता है,
यही अचम्भे का रोना है. यही कलात्मक आध्यात्म की पराकाष्ठा है.
अखिलेश के यहाँ सहजता सर्वव्यापी है, उनके व्यक्तित्व में, बातों में – सम्वादों में, घर में, स्टूडियो में मित्रों के साथ, वह सहजता जो अपने आपमें उतनी ही महीन, सघन और बहुपरतीय – गुम्फन लिए होती है, जितने कि अखिलेश के चित्र. पहली नज़र में उनके चित्र बहुत कठिन लगते हैं समझने में, बारीकी में एब्स्ट्रेक्ट? इतना महीन? फिर गहरे उतरो तो, एक कैलाइडोस्कोप खुल जाता है, फिर दिखता है, खपरैल वाली छ्त पर गिरे नीम के लाल – पीले पत्ते या भूरी रेगिस्तानी लहरदार रेत पर से सरसराता गुज़रा एक हरा सांप, आइस्पाइस खेलते में घर के अँधेरे स्टोर रूम में हर आहट पर बनते – बिगडते भय और रोमांच के पुँज. आंख पर बंधी ब्लाइंड फोल्ड में से दिखती आकृतियां. एक रेश्मी रूमानी नीली शाम में विदा के बाद का खुरदुरा सलेटी सन्नाटा, एनेस्थीसिया के शुरुआती असर में दिखते काले – भूरे – धूसर माँसल वृत्त. हाल ही में जुते खेत की लाल – काली मिट्टी पर बने बटेर के झुण्ड के पंजों के बेतरतीब निशान.
वे चुनते हैं अवचेतन के नितांत एलियन रंग. वे रंगों के कबीर हैं, कविता गुनगुनाते हुए रंग कातते हैं. न जाने कब कविता रंग में और रंग कविता में बुन जाते हैं.
‘अचम्भे का रोना’ एक अजीब – अजनबी शीर्षक बना रहा मेरे लिए. जब किताब के अंत में आकर यह सन्दर्भ मुझसे मिला तब मैंने जाना कि ये ‘अचम्भे का रोना’ तो मेरे बचपन का मित्र था. मंदिर के घंटों – नगाडों से शुरु होता हुआ, कालबेलिया नृत्य से लेकर यह शास्त्रीय संगीत या नृत्य प्रस्तुतियों के बीच मुझे शर्मिन्दा करता रहा है. किसी अद्भुत कलात्मक प्रस्तुति के दौरान बाँहों पर उभरी रोमावलियों के ‘गूज़ पिम्पल्स’, फिर गालों पर से बहते अविरल आंसू. यही अखिलेश का ‘अचम्भे का रोना’ है. यही कलात्मक आध्यात्म की पराकाष्ठा है.
मनीषा कुलश्रेष्ठ
धुन सुरीली हो तो गीत तक पहुंचने को मन मचल उठता है। ये समीक्षा उस धुन सरीखी लग रही और किताब अचंभे का रोना एक गीत जिसे निश्चय ही गुनगुनाना चाहिए।
अप्रतिम