स्पन्दित यथार्थ की दर्शाती एस। आर। हरनोट की कहानियांएस। आर। हरनोट‚ हिन्दी कहानी के क्षेत्र में पिछले कुछ सालों में बेहद लोकप्रिय कहानीकार के रूप में उभरे हैं। इनकी कहानियों की लोकप्रियता का आधार भी वही है जो हर अच्छे कहानीकार की लोकप्रियता का आधार होता है।मिट्टी से जुड़ी कहानियां। प्रेमचन्द‚ फणीश्वरनाथ रेणु‚ शैलेश मटियानी‚ जैसे लेखकों की विविध धाराओं में फूटती परम्परा को आगे बढ़ाते हैं एस। आर। हरनोट। आंचलिकता हरेक शहरी – ग्रामीण भारतीय के मर्म में हरी दूब की तरह उगी रहती है। ये कहानियां उसी आंचलिक खुश्बू से तर ब तर हैं। अंचल कोई भी हो… बिहार का कोई गांव‚ उत्तरप्रदेश का मैदानी या पहाड़ी अंचल‚रेगिस्तान के धोरों में बसी ढाणियां हों‚ या समुद्र किनारे बसे गुजरात के कच्छी गांव‚ केरल के गांव हों या कुर्ग के‚ आसाम के‚ उड़ीसा के… या हिमाचल के … फर्क नहीं पड़ता… आंचलिकता एक महक है‚ एक स्वाद है। विशुद्ध राग है। उसका असर होकर ही रहता है।
मैं समीक्षक नहीं एक सुधि पाठक मात्र हूँ। और साहित्यकोष स्तम्भ के अन्र्तगत लिखा गया यह लेख ‘ दारोश ‘ की समीक्षा नहीं… हिन्दीनेस्ट के पाठकों से मुखातिब ‘ दारोश ‘ का सीधा – सीधा परिचय है। ‘दारोश’ एस। आर। हरनोट का कहानी संग्रह है‚ जिस पर लगभग 25 साहित्यिक पत्रिकाओं में चर्चा हुई है और समीक्षा लिखी गई है। इसी पुस्तक पर एस। आर। हरनोट को कहानी का ‘ अन्र्तराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान – 2003 ‘ प्राप्त हुआ है।
दारोश की कहानियां यथार्थ की‚ जीवन्त‚ स्पन्दित कहानियां हैं। इसके पात्र आकाश से नहीं टपकते‚ मिट्टी से उभरते हैं और कहानी बन जाते हैं। ऐसे – ऐसे आम पात्र‚ जिनका छोटा सा अस्तित्व कथा को विस्तार देता है‚ चाहे वह हरनोट जी की कहानियों की अपने अकेलेपन में अपना समूचा संसार बसाए अम्मा हो या गांव का मिस्त्री‚ मासूम सी लड़की मुन्नी जो पिता के आखिरी खेत को रेहन पर रखने से बचाने के लिये पीपल से ब्याह कर आती है।
साधारण पात्र‚ साधारण शिल्प में असाधारण कथ्य ‘ दारोश’ कहानी संग्रह की विशेषता है। इम कहानियों में जादुई किस्म की सम्प्रेषणीयता है।इस संग्रह के ताज़गी भरे नये कथानक‚ जीने के लिये निरन्तर लड़ते और प्रेरणा देते पात्र‚ एक नितान्त अपरिचित अंचल और वहां स्पन्दित जीवन के विस्तार से परिचय कराते हैं।
हरनोट जी के कथानकों की विशेषता है कि वे सामाजिक संदर्भों को साथ लेकर चलते हैं। एक ऐसा समाज और उसके ऐसे सन्दर्भ जो भारतीयता की समृद्ध संस्कृति के विलुप्त अवशेषों का पता देते चलते हैं। ऐसी संस्कृति जिसमें पर्यावरण के प्रति एक सम्मान न केवल दिलों में था‚ बल्कि रीति – रिवाज़ों‚ तीज – त्यौहारों तक में गुंथा था‚ यूं जैसे कि कभी मनुष्य और प्रकृति के बीच मां – बेटे का स्नेह व सम्मानमय रिश्ता रहा हो। ये रिश्ता आज भी हमारी पुरानी पीढ़ी के मानस में ज़िन्दा है‚ जिस पीढ़ी का ही देय सम्मान हम अपने स्वार्थों में बंध चुका नहीं पाते तो प्रकृति का देय क्या चुकायेंगे? सामाजिक सन्दर्भों में जहां हरनोट समाज की महत्ता प्रतिपादित करते हैं वहीं समाज की कुरीतियों व अंधविश्वासों को भी सामने लाते हैं‚ उन अंधविश्वासों को जिनकी कीमत रूढ़ियों से बंधा गरीब‚ अनपढ़ चुकाता है और उन अंधविश्वासों का फायदा उठाते हैं उस ऊंचे तबके के वे लोग जो अपने हितों के चलते इन अंधविश्वासों व रूढ़ियों को पालते – पोसते चले आये हैं। ये कहानियां आम इन्सान की‚ मिट्टी की कहानियां हैं… मर्म को छुए बिना कैसे गुज़र सकती हैं?
इन कहानियों की विशेषता है कि इनका रस उनके कथ्य में नहीं इन कहानियों के रेशे रेशे में है।
इनकी कहानियों के पात्र आम उपेक्षित लोग हैं‚ दुनियादारी में व्यस्त वयस्कों की जगह बूढ़े – और बच्चे हैं‚ घर की बहुएं हैं‚ बेटियां हैं‚ मजदूर हैं। जो निरन्तर संघर्षोंं में‚ दुनिया – जहान की लाग लपेट में व्यस्त वयस्कों को देखते हैं और उनकी व्यस्तता में उपेक्षित हो आई स्वयं की ज़िन्दगी को जीते हुए कहीं एक मुलायम भाव बचाते चलते हैं। चाहे बेटे की लगातार उपेक्षा व स्वार्थ भाव के बावज़ूद स्नेह लुटाती’ बिल्लियां बतियाती हैं’ की अम्मा हों या ‘ बीस फुट के बापूजी’ का चाचू या ‘कागभाखा’ की दादी‚ या क्रूर पिता के अमानवीय कृत्यों से त्रस्त ‘माफिया’ का चुन्नी और ‘ दारोश’ की कानम‚ समाज की कुरीतियों से त्रस्त अपने माता – पिता के दुख को सहेजती ‘लाल होता दरख्.त’ की मुन्नी हो या पति की इन्सानियत के आगे परधान और करमू की नीयत को समझती’ मुट्ठी में गांव’ कहानी की मंगली और ‘बच्छिया बोली है’ की बहू‚ या ‘ हिरख़’ का किशोर किशनु और ‘ मिस्त्री ‘ कहानी का स्वयं मिस्त्री। हरेक पात्र इन्सानियत‚ पर्यावरण‚ धर्म‚ सत्य के पक्ष में कुरीतियों‚ शोषण‚ स्वार्थ‚ अकेलेपन के खिलाफ लड़ रहा है। उसके लड़ने में कहीं हताशा नहीं एक सकारात्मक प्रयास है। यही तत्व इन कहानियों को सकारात्मक स्पर्श देता है।
‘ बिल्लियां बतियाती हैं’ संग्रह की पहली कहानी है। यह एक बूढ़ी मां की अकेलेपन की‚ उसकी रोज़मर्रा की जद्दोजहद की‚ स्वर्गीय पति व शहर में जा बसे बेटे की स्मृतियों में रह – रह कर डूबने की कथा है। इस रोज़मर्रा के संघर्ष में उनके साथी हैं‚ कुछ मूक पशु।
” अम्मा का झगड़ा शुरु हो गया है। अपने आप से। दियासलाई की डिबिया से। ढिबरी से। चूल्हे से। चूल्हे में उपलों के बीच ठूंसी आग से और बाहर – भीतर दौड़ती बिल्लियों से। यही सब होता है जब अम्मा उठती है।वह चार बजे के आसपास जागती है। ओबरे में पशु भी अम्मा के साथ ही उठ जाते हैं। आंगन में चिड़िया को भी इसी समय चहकते सुना जा सकता है और बिल्लियों की भगदड़ भी अम्मा के साथ शुरु हो जाती है। यह नहीं मालूम कि अम्मा पहले जागती है या कि अम्मा की गायें या कि चिड़िया या फिर बिल्लियां।”ह्य पृ। 9हृ
हरनोट जी ने अम्मा के अकेलेपन की दिनचर्या को‚ उनके पशुधन‚ उनके छोटे – छोटे ज़रूरत के सामान को‚ साल भर के लिये‚ हरेक मौसम के लिये‚ पूजा के लिये‚ बाल – गोपालों में बांटने के लिये जो – जो सामान आस पास रखा है या संग्रहीत किया है‚ बहुत ही बारीकी से प्रस्तुत किया है जो कि बहुत ही रुचिकर बन पड़ा है साथ ही एक वृद्धा की मनÁस्थिति का वर्णन बहुत भला लगता है। भला इसलिये की यह जुझारू स्त्री वृद्धा अवश्य है पर कहीं भी‚ किसी भी दृष्टि से ‘ बेचारी’ नहीं है‚ अकेले होकर भी ‘अकेली’ नहीं है‚ कभी – कभी स्मृतियां इसे उदास कर जाती हैं पर वह ‘हताश’ नहीं है। उसके अकेलेपन का एक ‘ विचित्र संसार’ है —
” अम्मा के अकेलेपन का विचित्र संसार है।सुबह से शाम तक अम्मा कहीं न कहीं‚ किसी न किसी के साथ व्यस्त रहती हैं। अकेलेपन के अनेक सहारे पाल लिये हैं अम्मा ने। ऐसा कोई बच्चा गांव का न होगा जो अम्मां के यहां गुड़ की डली या मक्खन – रोटी न खा जाता हो‚ ऐसी औरत न होगी जो पानी – पनिहार‚ घास – लकड़ी को आते – जाते अम्मा के आंगन बैठ बीड़ी का कश न मार जाती होगी‚ ऐसा कुत्ता न होगा जो अम्मा के दरवाजे टुकड़ा न खा जाता होगा और ऐसी चिड़िया न बची होगी जो अम्मा का दाना न चुग जाती होगी। पशु भी आते – जाते अम्मा का आंगन झांक ही लेते हैं। “ह्य पृ। 12हृ
अम्मा जैसे ही पात्र हैं जो सम्मान करना जानते हैं‚ रीति – रिवाजों का‚ मानवीयता के सम्बन्धों का‚ पशु धन का‚ प्रकृति का तभी तो अकेले में भी प्रकृति से जुड़े हर त्यौहार को‚ हर फसल के मौसम को गीत गाकर‚ उल्लास के साथ मनाते हैं। खेतों की गुड़ाई के वक्त आज भी अम्मा के होंठों पर लोकगीत आकर ठहर जाते हैं। पशुओं का लोक त्यौहार भी वह अकेले ही मना लेती है। ऐसे में स्मृतियां उसे अवश्य बेचैन करती हैं।
” अम्मा को याद है‚ जब मक्की बड़ी होती तो खूब गुड़ाई लगती। घर में बेटा होता‚ उसके पिता होते और ब्याही हुई बेटी।×××× अम्मा की गुड़ाई बिना ढोल – शहनाई कभी नहीं हुई। पिता शहनाई के माहिर थे। ×××× अपनी गुड़ाई का आनन्द तो कुछ और रहता। पिता शहनाई पकड़ते। उनका जोड़ीदार ढोल और अम्मा कभी ‘झूरी’ तो कभी ‘जुल्फिया’ गाती।”
अम्मा यूं तो सक्षम हैं‚ बेटे के भेजे पैसे उनका अकेलापन नहीं बांटते वे उन्हें सहेज ज़रूर लेती हैं। शहर से बेटा जब आता ही अकेला आता है… जब भी आता है काम से आता है और अम्मा का मन बखूबी जानता है कि बेटा क्यों आया है। यही मां का बेटे की आहट – आहट‚ हर स्पन्दन को भांप जाना ही इस कहानी का मर्म है।
संग्रह की यह पहली कहानी है और सबसे अच्छी भी।
‘ बीस फुट के बापू जी’ कहानी बदलते परिवेश‚ बदलते मूल्यों तथा पीढ़ियों के अन्तराल और अपनों की उपेक्षा से जूझते एक घोड़े वाले ‘ चाचू’ की कहानी है। जिसे गांधीवादिता का सही – सही अर्थ तो नहीं पता किन्तु वह गांधी जी के प्रति अगाध सम्मान रखता है‚ और उनके बुत के प्रति अपमान उसे असह्य है। वह उस बुत की लगभग पूजा ही करता है। किन्हीं शरारती तत्वों के चलते इस बुत की वजह ही से वह रुसवा भी होता है।
चाचू के चरित्र के बारे में लेखक की यह दो पंक्तियां ही सब कुछ कह जाती हैं — ” शिमला की लम्बी कहानी चाचू के छोटे – से मन में बसी है। लम्बा अतीत है। या यूं कह लें कि लम्बा इतिहास और एक पूरी परम्परा का वारिस है चाचू।…”
कहानी का कथ्य कसा हुआ है। चाचू की मनÁस्थिति और उसकी हर अनमनी गतिविधि का विवरण कहानी को सशक्त बनाता है। यहां फिर से पीछे छूट गई‚ स्मृतियों से उलझती स्वाभिमानिनी‚ कमज़ोर किन्तु आत्मनिर्भर बुजुर्ग पीढ़ी का मार्मिक विवरण प्रस्तुत हुआ है।
‘ माफिया ‘ कहानी एक प्रकृति प्रेमी बच्चे ‘चुन्नी’ के माध्यम से जंगल के माफिया से रू – ब – रू कराती है‚ ऐसा माफिया जिसमें वनविभाग के गार्डों‚ छोटे कर्मचारी‚ काष्ठव्यापारी ही नहीं शामिल बल्कि गांवों के प्रधान‚ वनविभाग के अधिकारी तक शामिल है। ऐसा माफिया जो न केवल दुर्लभ जानवरों के शिकार व खालों के व्यापार में लिप्त है‚ बल्कि बहुमूल्य जंगलों को नष्ट करने में पूरा योगदान दे रहा है। इस कहानी में स्वयं मासूम प्रकृति प्रेमी चुन्नी के पिता इस माफिया का अंग हैं। जिन्हें चुन्नी सख्त नापसन्द करता है।
इस पात्र चुन्नी का अपनी दादी से विशेष प्रेम है… और चुन्नी का प्रेम है…घर के पीछे बसे जंगल में रहते मोर के जोड़े से। जिन्हें वह छुप कर देखा करता है। किन्तु यह जोड़ा भी चुन्नी के पिता तथा उनके सरमायादारों‚ माफिया के सदस्यों का शिकार हो जाता है।
इस कहानी में बूढ़ों और बच्चों के बीच के सहज स्नेह व क्रियाकलापों का मधुर वर्णन मिलता है। दादी ही ने तो उसे मोर की वह कहानी सुनाई थी जिसमें पता चला था कि मोर क्यों अपने पैर देख कर रोता हैॐ और तब से उसे धोखेबाज़ चिड़िया पर गुस्सा आया करता था‚ जिसने मोर के पैर उधार लेकर कभी नहीं लौटाये। एक बच्चे की सहज उत्सुकता व मनोवैज्ञानिक वर्णन के लिये लेखक बधाई के पात्र हैं।
‘ कागभाखा’ कहानी फिर से एक वृद्धा की कहानी है। एक स्नेहिल वृद्धा की कहानी जिसे पंछियों व बच्चों से स्नेह है। यह पैंसठ वर्षीय जुझारू वृद्धा अकेली रहती है। बहु – बेटा अलग रहते हैं। और यह कागभाखा दादी कौओं से घिरी रहती है। गांव के कुछ लोग कहते हैं कि वह जादू टोना जानती है‚ कुछ औरतों का कहना है कि वह डायन है। पर बच्चे जो प्रेम की भाषा समझते हैं कौओं की तरह ही स्कूल से आते जाते दादी को घेर लेते हैं। कहानी में दादी के माध्यम से लेखक ने बदलते समाज व परिवेश के प्रति पीड़ा व्यक्त की है — ” आज का समां देख कर दादी भीतर ही भीतर कुढ़ती है‚ जलती है‚ फुंकती है। जैसे गांव ही बदल गया। पहले जैसे लोग नहीं रहे‚ दया‚ धर्म खत्म हो गया। ममता नहीं रही। एक – दूसरे के लिये सरीक बन गये। छोटी – छोटी बातों पर लड़ते – झगड़ते हैं। मारपीट करते हैं। भला – बुरा बोलते हैं। पहले कितना प्यार था। मिलजुल कर लोग आपस में रहते। एक दूसरे के दुख – सुख में आते – जाते — जैसे एक ही घर हो‚ एक ही परिवार हो।”
दादी भी गांव के प्रधान की दुष्टता की शिकार है। वह उसकी पेंशन अपनी औरत के नाम से तो लेता ही है‚ साथ ही दादी जब उसके द्वारा की गई एक हत्या का राज़ जान जाती है तो उसका घर जला देता है। वह भाग निकलती है किन्तु‚ बहु जानते – बूझते उसे पनाह नहीं देती। वह जाने कहां गायब हो जाती है। किन्तु प्रधान उसे अकसर अपने जले घर के आंगन की मुंडेर पर आधी रात को बीड़ी पीते देखा करता है‚ और वह डर कर सूखता जाता है। मगर उसे कौन समझाये कि दादी न तब डायन थी‚ न अब है।
इस कहानी संग्रह की एक रुचिकर कहानी है — ” बच्छिया बोली है ” यह कहानी ग्रामीण समाज‚ लम्पट पुरुषों‚ गांव की राजनीति‚ अपराधों का ब्यौरा तो देती ही है साथ ही गांव के मासूम लोगों‚ परम्पराओं‚ आपसी ज़रूरतों‚ भोली स्त्रियों‚ पशुओं के महत्व को भी उजागर करती है।
इस कहानी की मुख्य पात्र चंदिया की बहू है‚ जिसे लगातार उसकी सास आदेश दे रही है कि करमू से ह्यकहानी का दूसरा मुख्य पात्रहृ उसका बैल ले आये‚ क्योंकि उसकी गाय गर्भाधान को आतुर है। पर बहू जानती है करमू लम्पट है। छोटा – मोटा अपराधी है। साथ ही उसके पति का रिश्तेदार तो है किन्तु उनकी आपस में जायदाद को लेकर अनबन है‚ पति ने उसे मना किया है। बहू के असमंजस को लेखक ने बखूबी उकेरा है। इस कहानी की खूबी है इसमें प्रस्तुत चरित्रचित्रण। चाहे वह बहू का भोला भाला ग्रामीण सौंदर्य हो या लम्पट करमू का चरित्र या चंदिया की मां का अवसरवादी‚ मतलबी चरित्र‚ लेखक ने बहुत बारीकी से पेश किया है। जैसे यहां ग्रामीण सुहागिनी हिमाचली युवति का यह सौंदर्य —
” गोरे चेहरे पर बेतरतीबियां बड़ी भली लग रही हैं। उसका भोलापन अनायास ही चेहरे और आंखों में भर आया है। मन में आक्रोश नहीं ‚ लज्जा की परतें हैं। माथे पर लगी सिन्दूृर की बिन्दिया पसीने से नीचे तक फैल गयी है। एक सहज अनछुआ सा रूप। पकता हुआ। लालिमा से तर – ब तर। जैसे गुलाब की कोई कली आहिस्ता – आहिस्ता खिल रही हो। न कोई श्रृंगार न सजावट। एक मीठी सी कसक। लाल गालों के ऊपर काजल से सनी आंखें। सिर पर ब्याह के टिक्के का गोटे वाला लाल दुपट्टा। कानों में चांदी के झूलते कांटे। गले में चांदी का तीन लड़ियों वाला हार। छाती के दोनों छोर से स्पर्शता हुआ। बांहों में दर्जनों लाल कांच की चूड़ियां। हल्का सा हिलें तो अजब की खनखनाहट। कोई सुने देखे तो भीतर तक बींध जाए। कोई गांव‚ जैसे सुबह के सूरज की स्वर्णिम आभा में लिपट कर अलसा रहा हो।”
यह ग्रामीण वधु जितनी सुन्दर है‚ उतनी चतुर भी। वह करमू की सौंदर्यलोलुप निगाह समझती है। उस पर करारा व्यंग्य करती है—
” बहू जानती है कि बछिया और बैल एक ही मां के जाये हैं। तपाक से प्रहार करती है‚ ” बछिया का कसूर नहीं है सास जी। बैल समझता है कि गांव – बेड़ में भी कुछ साक – सम्बन्ध होते हैं। इसे भी अपने पराये की पहचान है।”
‘लाल होता दरख्.त’ सम्वेदनशील लड़की मुन्नी की कहानी है। उसके धर्म भीरू माता – पिता की कहानी है। ब्राह्मणत्व के एक झूठे दर्प की कहानी है जिसे निबाहते हुए मुन्नी का पिता कर्जदार है। पुरानी पड़ चुकी मान्यताओं के निबाह की मार्मिक कहानी है जिसके चलते मुन्नी के पास पीपल से विवाह करने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता।
‘ हिरख़’ कहानी में भी दादा – पोते का स्नेहिल सम्बन्ध दिखाया है। ‘ दोघरी’ शब्द का महत्व पहाड़ी ही जान सकते हैं। यह शब्द हरनोट जी की हर कहानी में आया है कि अनजान पाठक भी समझ जाये कि दोघरी से उनका क्या अर्थ हो सकता है। जहां तक मैं समझ सकी हूँ — दोघरी वह दूसरा घर जहाँ पहाड़ी गांवों में रहने वाले लोग भयंकर शीत में पहाड़ों से थोड़ा नीचे समतल में अपने जानवरों को रखते हैं‚ व खुद भी रहते हैं।जहां बर्फीले दिनों में भी घास उपलब्ध रहती है‚ चारागाहों में।
हिरख़ कहानी में दादा और पोता किशनू इसी दोघरी में रहते हैं। यहीं रह कर किशनू स्कूल जाता है। दादा उसकी देखभाल करते हैं। किशनू एक ग्रामीण भोला – भाला‚ दृढ़चरित्र‚ पढ़ने में अच्छा मगर विद्रोही किशोर है जो सरपंच की कुटिल कारगुजारियों से कुपित है। किन्तु वह सरपंच से लोहा नहीं ले पाता तथा गांव वालों के अन्धविश्वासों और सरपंच के प्रभाव से षडयन्त्र का शिकार हो जाता है।
‘ मिस्त्री’ कहानी एक साधारण से मजदूर की कहानी है। जिसका हुनर व पुरुषार्थ ही उसकी पूंजी है। इसी पुरुषार्थ व हुनर के चलते वह अपने प्रति अन्याय का रुख मोड़ देता है।
‘ दारोश’ कहानी के शीर्षक से ही इस पुस्तक का नाम लिया गया है… सो निÁसन्देह ही यह कहानी इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानी है। ठीक इसकी नायिका कानम की ही तरह जो ‘ दारोश डबलब’ नामक हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र की कुप्रथा का सामना करती है। इस कुप्रथा में विवाह योग्य लड़के अपनी मनपसन्द लड़की को जबरन उठा कर ले जाते हैं। फिर तीन चार दिन तक बलात्कार के बाद उसके माता – पिता के पास जाकर उसका हाथ मांगते हैं। ऐसी जटिल परिस्थिति में लड़की के माता – पिता के पास विवाह के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता।
कानम के पिता गांव के मुखिया हैं। वे इस प्रथा को बुरा नहीं मानते बल्कि इस प्रथा का साथ देते हैं। कानम की बड़ी बहन इस कुप्रथा का शिकार होती है‚ कानम के बालमन पर इसका विपरीत असर पड़ता है और वह मानसिक अवसाद का शिकार हो जाती है‚ और अपने छोटे पापा – मम्मी के पास शहर आ जाती है। किन्तु एक दिन वापस लौट कर गांव जाकर इस प्रथा को आमूल नष्ट करने का प्रण लेकर। उसके छोटे पापा – मम्मी कानम का मनोबल बढ़ाते हैं व उसे शिक्षा ही नहीं दिलवाते बल्कि स्वरक्षार्थ मार्शल आर्ट भी सिखवाते हैं।
कानम सही अवसर पर गांव लौटती है और अपने पिता के बुरे व्यवहार‚ उपेक्षा व षडयन्त्र के बावज़ूद इस प्रथा से लोहा ही नहीं लेती बल्कि गांव के लोगों व स्त्रियों में इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि अपने पिता के खिलाफ पंचायत के चुनाव लड़ती है।
इस कहानी में हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र की बहुपति प्रथा का भी विवरण मिलता है। कानम की मां का विवाह तीन भाइयों से हुआ है। एक कानम के पिता हैं जो गांव के मुंिखया भी हैं‚ दूसरे दोघरी में रहकर बेटे के साथ पशुधन की देखभाल करते हैं। तीसरे भाई ने इस प्रथा का विरोध कर शहर आकर अलग विवाह किया है‚ वही कानम के आदर्श व प्रेरक छोटे पापा हैं।
इस कहानी में कहानी के सभी तत्व मौजूद हैं। साथ ही इसमें प्रस्तुत स्त्री विमर्श कृत्रिम नहीं लगता… वह सही मायनों में एक स्त्री का संघर्ष प्रस्तुत करता है। यह कहानी इस संग्रह को पूर्ण व अद्भुत बनाती है।
अंतिम कहानी ‘ मुट्ठी में गांव’ फिर से गांव के प्रधान के अन्याय की कहानी है। इन कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है… कि गांव की दुर्दशाओं के ज़िम्मेदार ये सरपंच‚ प्रधान‚ मुखिया हैं जो ज़रा सा रसूख़ हाथ आते ही गांव के हित में जारी सरकारी सेवाओं को अपनी जेब में लिये घूमते हैं। चाहे वह विधवा की पेंशन हो‚ पशुधन के लिये मिला कर्जा‚
हरिजनों को मिला कोटा या बच्चों को मिली छात्रवृत्तियां … सरकारी अफसर भी इन्हीं का साथ देते हैं। ‘ मुट्ठी में गांव’ कहानी भी ऐसे ही एक दलित की कहानी है जो बड़े अरमानों से जर्सी गाय के लिये सबसीडी पर प्रधान के जरिये लोन लेता है। गाय भी आती है… मोती के नाम पर… प्रधान के घर जा बंधती है। किन्तु यह बात उसकी पत्नी मंगली के गले नहीं उतरती। वह प्रधान के घर जाकर अपनी दरांती के बल पर गाय खोल लाती है। यह कहानी भी अपने आप में विशिष्ट है… जो मंगली जैसी दलित स्त्री की दबंगता को प्रस्तुत करती है।
हरनोट जी की कहानियों में कुछ बातें आम हैं और लगभग हर कहानी में प्रस्तुत हैं ‚ मसलन — पात्रों के प्रकृति व पशु – पक्षी प्रेम के बहाने प्रकृति के प्रति अथाह प्रेम व चिन्ताॐ बुजुर्ग पीढ़ी के अकेलेपन का मार्मिक चित्रण। बच्चों बुजुर्गों के बीच प्रेम का सहज बंधा नाता।ग्रामीण समाज का चित्रण।गांव में प्रधान – पटवारियों की मनमानी। गांवों के सहज जीवन में ज़हर घोलती राजनीति।समाज में फैले अंधविश्वासों का चित्रण साथ ही संस्कृति की अच्छाइयों मसलन पशुओं के त्यौहार‚ कृषि सम्बन्धी त्यौहार और इन त्यौहारों के बहाने भाईचारे का चित्रण और धीरे धीरे इन परम्पराओं के क्षय होने की भी पीड़ा।
हरनोट जी जाने अनजाने हमें हमारी प्राचीन उदार संस्कृति का वह रूप दिखा जाते हैं जहां हरिजनों‚ चमारों की भी हर घर में आमदरफ्त थी… उन्हें भी सम्मान दिया जाता था‚ तीज – त्यौहारों में बुलाया जाता था। वह संस्कृति जिसमें प्रकृति एक महत्वपूर्ण भाग थी जीवन का। यह तो सिद्ध करती ही हैं यह कहानियां की हमारी संस्कृति एक कृषि प्रधान और प्रकृति प्रिय संस्कृति थी जो आज नष्टप्रायÁ है। सहज पूजा – पाठ अब मतलब साधने हेतु कर्मकाण्ड हो चले हैं और रीति – रिवाज अन्धविश्वासों में बदल गये हैं।
एस। आर। हरनोट की कहानियों में चरित्र चित्रण बढ़िया विस्तार पाता है। हिमाचल प्रदेश के दूरस्थ ग्रामीण समाज का पूरा आइना ही मानो ढाल कर रख देते हैं वे अपने सहज विवरण में।
एस। आर। हरनोट की कहानियों की भाषा भी उतनी ही सादगी भरी है‚ जितना उनकी कहानियों का शिल्प। बिना लाग – लपेट के सीधे – सच्चे शब्द‚ छोटे – छोटे गतिमय वाक्य‚ किस्सागोई का मुलायम लहज़ा इन कहानियों को पठनीय बनाता है।
ऐसे में अगर ज्ञानरंजन इन कहानियों की भूमिका में अपना यह वक्तव्य लिखते हैं तो ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं करते कि — जिस तरह संजीव और शिवमूर्ति प्रेमचन्द का विकास हैं या अमरकान्त और शेखर जोशी प्रेमचन्द की अग्रसर होती समृद्धि हैं‚ उसी तरह हरनोट भी हैं।
एस। आर। हरनोट की ये यथार्थ से निरन्तर सकारात्मक दिशा में जूझती कहानियां खोखले बुलबुले नहीं हैं‚ बल्कि समाज को आइना दिखाती प्रेरक सच्चाइयां हैं।