बाबल तेरा देस में एक बेटी एक बेल ।
हाथ पकड़के दीनी जामें परदेसी के गैल।।
भगवानदास मोरवाल का नया उपन्यास ‘ बाबल तेरा देस में’ मेवात अंचल की संस्कृति, मेव समुदाय के अनजाने – अनछुए बिन्दुओं को उजागर करता हुआ दूसरा उपन्यास है। इसके पहले इसी संस्कृति व अंचल को उपन्यास का फलक बना उन्होंने ‘काला पहाड़’ लिखा था ह्य1999 में प्रकाशितहृ और वह बहुचर्चित रहा। ‘बाबल तेरा देस में’ ह्य 2004 हृ भी बहुत थोड़े समय में काफी चर्चित हो चुका है। जिस तरह यह उपन्यास लिखा गया है तथा ‘ काला पहाड’. में संक्षिप्त में छूट गये विमर्शोंं को दुबारा विस्तृत रूप में ‘बाबल तेरा देस में’ उठाया गया है, उससे ऐसा लगता है कि यह उपन्यास ‘काला पहाड़’ की अगली कड़ी ही है। ‘ काला पहाड़’ में मेवों का सम्पूर्ण
समाज शास्त्रीय विवरण पस्तुत हुआ है जो कि यहां महज उल्लेख के रूप में है।

मोरवाल के इस विशाल उपन्यास की कथावस्तु का केन्द्र मेवाती समाज और इस समाज में जीती – जागती, कुढ़ती – घुटती स्त्री है। इस उपन्यास में चरित्रों की बहुत बड़ी भीड़ है, घटनाक्रम, कालखण्ड आदि हाथ से रपटते चले जाते हैं, पन्ना दर पन्ना। किन्तु यहां एक बहुत ही व्यापक चीज़ मौज़ूद है, वह है समग््रा जीवनानुभव की संवेदना का धरातल। यहां बनावटीपन का तत्व नहीं है, जो है वह जीवन का सहज प्रवाह है जिसमें गहरे बह रहे हैं, जाने – अनजाने किये गये विविध ज्वलन्त विमर्श। इस उपन्यास के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि विषय और फोकस को यहां खास तरह से परिभाषित करने की आवश्यकता है।

“ मानव, ‘व्यापक मानव’ हर जगह और सब समय मानव अपनी सारी विविधता में उभरेगा और साहित्यिक पाण्डित्य पुरातन मनबहलाव नहीं रहेगा। राष्ट्रीय लेन – देन का बहीखाता और सम्बन्धों के जालों के मानचित्रण भी नहीं रहेंगे। साहित्यिक पाण्डित्य कला की तरह कल्पना की क्रिया बनेगा इस तरह यह मानवता के उच्चतम मूल्यों का संरक्षक और सर्जक बन जायेगा।” पाश्चात्य आलोचना शास्त्र के एक प्रमुख विद्वान रेन वेलेक के ये शब्द भगवानदास मोरवाल के इस उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ सत्य होते प्रतीत होते हैं।

मेवात अपने आपमें एक सम्पूर्ण संस्कृति है, हिन्दु – मुसलमानों के बीच की दीवारें यहां प्रायÁ विलुप्त रही हैं। मेवात प्रदेश केवल मेवों ह्य मुसलमानोंहृ के आधिक्य होने ही से नहीं बसा है, वरन् वहां हिन्दुओं की संख्या मेवों के बीच आटे में नमक की तरह गुंथी है कि उन्हें उनसे अलग करके नहीं देखा जा सकता है। मेव – मेव तभी हैं, जब वे अन्य समुदायों के साथ हैं… हिन्दुओं, कुम्हारों, जाटों तथा अन्य समुदायों के साथ – साथ चलते, अपने आप में सम्पूर्ण मेवातीपन का गर्व पाले ये मेव मुसलमान होने के बावज़ूद इस गंगा – जमनी संस्कृति के मुख्य प्रतिनिधि हैं। ये मेव मेवाती संस्कृति के ताने – बाने का मजबूत धागा हैं। मेव परिवारों में हिन्दुओं का एवम् हिन्दु परिवारों में मेवों का न केवल बेधड़क आना – जाने, भेंट – उपहार देने का व्यवहार रहा है, बल्कि विवाह तय करवाने तथा अन्य पारिवारिक निर्णयों में एक दूसरे का दखल बाखुशी वे मानते आ रहे हैं। यहां इस उपन्यास का एक प्रसंग उल्लेखनीय है — हवेली के पड़ोस में रहने वाले बत्तो और हीरासिंह की बेटियों के विवाह में हवेली की बुजुर्ग और मोहल्ले में एक अहम् स्थान रखने वाली मेव स्त्री जैतूनी दादी मध्यस्थता ही नहीं निभाती बल्कि मैना के गौने के विवाद को लेकर भी जैतूनी दादी का निर्णय सर्वमान्य होता है।

यह सांप्रदायिक सद्भाव न केवल इस उपन्यास का सच है बल्कि मेवात की उस संस्कृति का सच भी है जो कि हिन्दी साहित्य में मोरवाल के पहले उपन्यास ‘ काला पहाड़’ से अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। ‘काला – पहाड़’ में प्रस्तुत पुराना मेवात विकास की उन आहटों – बदलावों से भले ही लगभग अछूता रहा हो, पर यह आज का उपन्यास है और हम बदलाव की आहटें इस उपन्यास में सुन सकते हैं, इस बार मेवात की स्त्री के माध्यम से। इसी सम्पूर्ण समाज तथा भरी पूरी संस्कृति की अगली कड़ी है, यह उपन्यास। इस उपन्यास में भी लेखक का आद्यंत यही प्रयास रहा है कि वह मेवात प्रदेश को एक संश्लिष्ट सामाजिक संरचना के अनूठे रूप में प्रस्तुत करे।

लेखक के इस सम्पूर्ण संश्लिष्ट समाज के परिदृश्यात्मक उपन्यास की विशिष्टता ही यही है कि उसने मेव समाज के रूप में केवल मुस्लिम समाज पर अपना कथानक केन्द्रित नहीं किया है बल्कि अन्य जातियों को भी संयुक्त रूप से शामिल किया है । अमूमन मेवाती लोग सहज ही साम्पदायिकता के विषम प्रभाव में नहीं आते वे शांतिप्रिय लोग हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि मोरवाल द्वारा उपन्यास में वर्णित मेवात का यह समाज हिन्दु – मुसलमान की इस थोपी गयी राष्ट्रव्यापी सांप्रदायिकता से आहत और प्रभावित नहीं होता है। अयोध्याकाण्ड का असर मेवात तक भी पहुंचना लाजमी है। लालदास के मन्दिर का प्रसंग ऐसा ही एक उदाहरण है, जो उन दिनों सुगबुगाहट का केन्द्र – स्थल बनता है। लालदास एक मेव पीर है जिसकी पूजा हिन्दू – मुसलमान दोनों करते हैं। इस पीर की शरणस्थली यह इमारत है जिसे कुछ लोग मंदिर कहते आये हैं, किन्तु पहले वह मस्ज़िद थी, अयोध्याकाण्ड के बाद कुछ जायदाद के लालची मेवों ने यहां नमाज़ पढ़ना शुरु कर दिया था। किन्तु लालदास तो दोनों मजहबों से मुक्त हैं — दोनूं दीन सूं जायेगो, लालदास को साथ। ह्य बाबल तेरा देस में, पृष्ठ 85हृ इन्हें मेवाती कबीर कहा जा सकता है।

हां, रसोई की दहलीज़ और तथाकथित पवित्रता को लेकर हिन्दु – मुसलमानों दोनों में एक संकोच है जो रूढ़िगत परम्पराओं का अवशेष मात्र है। हवेली की हिन्दु पड़ोसन बत्तो नायिका शकीला के कमरे में जाती ज़रूर है, अपनी बेटियां भी पढ़ने भेजती है पर वहां का कुछ खाना – पीना वह
धर्म के विरुद्ध मानती है और मुसलमान परिवार भी पिछड़ी व नीची जातियों के यहां खाना – पीना हराम मानते हैं। ऐसे प्रसंग उपन्यास में अनायास आये हैं वह इस विषमता पर ध्यान दिलाने के लिये सायास डाले गये हों ऐसा कहीं प्रतीत नहीं होता, ये जो छोटे – छोटे कड़वे सच हैं, सहज ही एक आम हिन्दुस्तानी संस्कृति की जड़ों में घुल ही चुके हैं।

मेव समुदाय की अपनी जातिगत मनोवृत्ति है सो है — किन्तु उसकी एक लोकमनोवृत्ति है जो अपने अस्तित्व को अपने अंचल की जड़ों से जोड़े रखती है। बल्कि यही लोकमनोवृत्ति है, जो मेव समुदाय को अन्य मुसलमानों से आंचलिक तौर पर अलग करती है। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं की जातिगत मनोवृत्ति कुछ भी हो, अपने – अपने अंचल से जो जोड़ती है वह लोकमनोवृत्ति भिन्न है।यह पक्ष लेखक ने बहुत ही सूझ – बूझ से प्रस्तुत किया है।

एक घटना का उल्लेख यहां आवश्यक है — जैतूनी के विशाल परिवार का एक युवक युनूस जो अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में पढ़ता है, वह मेवों के मुहर्रम मनाने के तरीके पर आपत्ति जाहिर करता है — “ हमारा या मेवात में तो ताजियान में ऐसी खुसी मनाई जावै है जैसे ई कोई ईद या बकरीद होए ’’ ह्य बाबल तेरा देस में, पृष्ठ 251हृ

वह उन्हें सिखाता है कि सच्चे मुसलमान सैयद मुहर्रम को मातम की तरह मनाते हैं न कि नये कपड़े पहन कर खुशी मना कर। ग्रामीण मेवों को वह पक्के सैयदी तरीके से मरसिया गाना सिखाता है, मातम मनाना सिखाता है तो वे असहज हो जाते हैं। मातम की मजलिस जमती है और हास्यास्पद तरीके से समाप्त हो जाती है क्योंकि युनुस स्वयं भी उस तरीके से सोज़ख्वानी नहीं कर पाता। ग्रामीण मेवों के लिये तो मोहर्रम ताजियों का त्यौहार है, जिसमें उत्साह है। ताजियों के नीचे से मुसलमानी और हिन्दुआनी स्त्रियां दोनों ही अपने अपने बच्चों को निकालती हैं, ताकि वे साल भर स्वस्थ रहें। वे बातें जिन्हें कट्टर धार्मिकता के चलते लेखक कहने लिखने का साहस अमूमन नहीं कर पाते वही बातें मोरवाल सहज जीवनप्रवाह में गुंथी घटनाओं के माध्यम से कह गये हैं।

उपन्यास की कथावस्तु एक सम्पन्न विशाल मेव परिवार की हवेली की चारदीवारी, दालानों, पुरुष बैठकों और जनाना बैठकों के साथ – साथ औरत की विवशता को छिपाते बन्द कमरों के भीतर और हवेली के बाहर फैली गलियों के उलझाव में बिखरी है। कथावस्तु के ताने – बाने में जहां एक ओर नसीब खां और जैतूनी तथा हाजी चांद मल का बड़ा – सा बिखरता – जुड़ता कुनबा है वहीं दूसरी ओर हिन्दु परिवार, अन्य पिछड़े व दलित परिवार भी शामिल हैं।

यह उपन्यास हवेली के भीतर व बाहर हुई अनेकानेक घटनाओं, प्रसंगों – उपप्रसंगों का लेखा – जोखा है, जो प्रमुखतÁ एक आम मेव – स्त्री के जीवन को ही नहीं प्रस्तुत करता वरन् पुरुषों द्वारा निर्धारित उनकी जिन्दगी के अंधियारे पक्षों पर तीखा प्रकाश डालता है, कि उनके जीवन का रेशा – रेशा इस उपन्यास की रोशनी की ज़द में आ जाता है। ये अनेक घटनाएं, अनेक प्रसंग – उपप्रसंग कथा – प्रवाह को ऐसा आरोह – अवरोह प्रदान करते हैं, जो कि मेवात समाज की स्त्री के भीतर घुट रहे आर्तनाद को बाहर तक गुंजायमान करते हैं।

इस उपन्यास में स्त्री विमर्श अपने सहज लोक स्वरूप में निखरा है तथा यहाँ अशिक्षित ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से यह विमर्श मुखर हुआ है, जो कि उनकी परंपराओं के चलते रूढ़ियों की कठोर ज़मीन को फोड़ कर उपजा है। इस स्त्री विमर्श को आधार देती है हवेली की बुजुर्ग महिला जैतूनी… जो नई पीढ़ियों की बच्चियों की शिक्षा को आवश्यक मानती है वहीं अपनी पड़पोती मुमताज को कॉलेज तक सीढ़ी – दर – सीढ़ी पहुंचने में मदद करती है। जैतूनी के बाद आती है उपन्यास की नायिका शकीला जो स्वयं तो हैदराबाद से खरीद कर लाई गई है किन्तु उसकी आत्मसजगता देखते बनती है। इसी आत्मसजगता के साथ वह सरपंच का चुनाव जीतती है, किन्तु सरपंच होने के बाद उसे पता चलता है कि वह महज पुरुषों के हाथों की कठपुतली है, दस्तखत करने भर के लिये यह पद उसे मिला है, असली सरपंच उसका पति है तो वह अपनी बुद्धिमत्ता से अपने सारे अधिकार पुनÁ वापस लेती है और मेवाती स्त्रियों के लिये सराहनीय काम करके पुरस्कृत होती है।

भारत में एक मुस्लिम स्त्री की स्थिति कमोबेश वही है, चाहे वह ‘ मेवणी’ हो, हैदराबादी गरीब मुस्लिम स्त्री हो या उत्तरभारत की मुस्लिम स्त्री। शरीअत उन की सांस – सांस पर हावी है। तभी तो कुटुम्ब में बढ़ते तलाकों और स्त्री की बिगड़ती स्थिति और उस पर शरीयत के उलझे – उलझे नियमों पर जैतूनी दादी कई बार खीज उठती है, पहली बार बिहार से खरीद कर लायी समीना को बार – बार खरीद – खरीद कर दो मर्दों द्वारा तलाक देने की प्रक्रिया के बाद — “ या तलाक ने तो हमारी जिन्दगी ख्वार कर राखी है… हंगो तो तलाक, मूतो तो तलाकॐ ह्य पृष्ठ 371, बाबल तेरा देस मेंहृ
दूसरी बार जैनब को दहेज के कारण पति द्वारा उपेक्षित किये जाने पर —

“ सकीला, हमारो तो तेरा या सरीअत ने खून पी राखो हैॐ’’

“ हमारी तो सांसे ही शरीअत में अटकी हुई हैं अम्मां।” ह्य पृष्ठ 378, बाबल तेरा देस मेंहृ

शकीला के शरीअत के ज्ञान और मुमताज की बहसों और सवालों के बहाने इस उपन्यास में न केवल स्त्री के पक्ष और विरोध में खड़े शरीअत के नियमों का खुलासा हुआ है बल्कि ‘ बहिश्ती जे.वर’ और ‘ दस्तरुल मुत्तक़ी फ़ी अहकामिन्नबिट्यिय’ जैसी स्त्री विरोधी किताबों पर मार्मिक व्यंग्य उभर कर आये हैं। स्त्री के विरोध में परम्परा – नैतिकता और धर्म का सहारा लेकर इस सम्पूर्ण समाज को पुरुषों के पक्ष में निर्मित करने के इस सदियों पुराने षड्यंत्र पर इस उपन्यास में कई बार महिला पात्रों के माध्यम से बहस हुई है। जैतूनी की पौली ह्य बैठकहृ जहां इसका मुख्य मंच है, वहीं स्वयं जैतूनी, शकीला, मुमताज इसके मुख्य प्रवक्ता हैं। यहां तक कि हिन्दु स्त्रियां सोनदेई और बत्तो, मैना भी इस बैठक की सदस्या हैं। ऐसा नहीं है कि लेखक की तीक्ष्ण लेखनी शरीअत पर आकर रुक गयी हो उसने बराबर से हिन्दु वेदान्तों की भी खबर ली है जो पुरुष के पक्ष में औरत को ठोक – पीट कर तैयार करते हैं, एक जगह सोनदेई कहती है — काकी, एक बात कहूं, तिहारी या किताब में तो हू – ब – हू वे बात लिखी पड़ी हैं, जो हमारा वेद – पुराणन् में लिखी पड़ी है के औरत ए ई ना करनो चाहिये, औरत ए ऊ ना करनो चाहिये ह्यह्य पृष्ठ 387, बाबल तेरा देस मेंहृ

अपरिचित समाज की, अजीब सी मिश्रित भाषा बोलती, अपने समाज की विषमताओं से जूझती इस उपन्यास के स्त्री पात्रों की कहानियां पाठकों में अजीब सी बैचेनी पैदा ज़रूर करेंगी, क्योंकि यहां वे किसी थोपे हुए ‘ फेमिनिज़्म’ के तहत कोई विरोध नहीं कर रहीं बल्कि वे ससुराल की हवेली की घुटन भरी चारदीवारी में अपने लिए एक झरोखा बना रही हैं, अपने बाबल के देस में अपने लिये एक टुकड़ा ज़मीन पर हक़ मांग रही हैं। हालांकि अब भी उन्हें इस पितृसत्तात्मक समाज की अनदेखी क्रूर शक्ति का पूरा अंदाज़ा नहीं है।

जितनी इस उपन्यास में स्त्री विमर्श पर पात्रों द्वारा बहस करवाई है, उतना ही स्त्री के नीचे की खोखली ज़मीन को कुरेद – कुरेद कर दिखाया गया है कि इन औरतों की ज़मीन के नीचे दीमकों की कमी नहीं… क्या ये कभी खत्म होंगी? बिहार व हैदराबाद से जवान मुसलमान गरीब लड़कियों की खरीद – फरोख्त के मुद्दे को इसमें मार्मिक प्रसंगों के साथ उठाया गया है।स्त्री स्वतन्त्रता का परचम उठाने वाली सरपंचनी शकीला स्वयं हैदराबाद से खरीद कर लाई गई औरत है, उसके बहुमत से सरपंच बन जाने के बाद भी उसका पति दीन मुहम्मद ही सरपंच कहलाता है, वही सारे अधिकार अपने पास रखता है, महज हस्ताक्षर के नाम पर शकीला का उपयोग होता है किन्तु वह बाद में इसका विरोध करती है व सफल होती है। शकीला के माध्यम से स्त्री चिंतन के विषय को व्यापक फलक देते हुए लेखक ने अंत तक उनकी शक्ति सीमाओं को परखा भी है।

इस उपन्यास के आरंभ में परिवार की पुत्रियों और बहुओं के साथ परिवार के ही पिता, ससुर व अन्य अधेड़ों की यौन – हिंसा के प्रसंग भी उठे हैं। इनमें पिता के यौनशोषण से तंग आकर ब्रज से एक मेव के साथ भाग आई पारो है, हवेली के प्रमुख बुजुर्ग हाजी चांदमल की हवेली की बहुएं उल्लेखनीय हैं, जो स्वयं चांदमल द्वारा या दीनमोहम्मद द्वारा बार – बार लांछित हुई हैं। यह हवेली जो उपन्यास का प्रमुख केन्द्रबिन्दु है, अपने आप में इस तरह की घिनौनी तथा पारिवारिक यौन शोषण की घटनाओं का केन्द्र्र भी है।

इस हवेली में ढेर सारी औरतें हैं जिन्हें ऐसी मिट्टी और पानी से गूंथा गया है कि वे पितृसत्तात्मक समाज में निरन्तर जीती – ढलती हुई, शोषित होती हुई बूढ़ी होती हैं और अन्ततÁ उन्हीं पुरुषों के पक्ष में बोलते हुए औरतों की नई खेप को तैयार करती हैं। उपन्यास के अन्त में ऐसी ही औरतों ह्य हसीना, ज़रीना, जुम्मी व असगरीहृ को मेवों के रिवाज़े – आम ह्य कस्टमरी लॉहृमें पति तथा पिता की सम्पत्ति में पत्नी व पुत्री का अधिकार न होने की वकालत करती हुए दिखाया गया है। इस उपन्यास में अन्त तक अडिग रहे वृद्धा जैतूनी दादी, शकीला और मुमताज व मैना के चरित्र ही स्त्री विमर्श के प्रबल पक्ष हैं। पुरुष पात्रों में नसीब खां, रामचन्द्र ऐसे पात्र हैं जो अपनी दलीलों व निर्णयों के साथ स्त्री अस्मिता के पक्षधर के रूप में अपनी परिणति तक पहुंचे हैं। इन जीवट पात्रों की सहायता से ही चाहे हवेली के अन्दर और बाहर की मेव औरतों की स्थिति में पूर्णतÁ बदलाव आया हो या न आया हो, पिता और पति की जायदाद में औरत को हक़ मिला हो या न मिला हो, किन्तु इनके प्रयासों से हवेली के भीतर और बाहर की घुटन भरी फिजां ज़रूर बदलती है। ऐसा उपन्यास की प्रमुख पात्र वृद्धा जैतूनी अवश्य महसूस करती है।

इस उपन्यास में दो पीढ़ियों के अन्तराल तथा मानसिक द्वन्द्व को भी विभिन्न युवा पात्रों के माध्यम से उठाया गया है। मुमताज, मैना जुझारू स्त्रीपात्र तो हैं ही साथ ही एक ओर अपने कामुक पिता चांदमल के कुकृत्य से आहत जमशेद का हवेली के बुज़ुर्गों से नाइत्तफाक़ है तो वहीं दूसरी ओर अपना गौना कमउम्र में कराने के प्रति मुबारक का विरोध है, इस विरोध में साथ हैं युवा युनूस। हालांकि कमउम्र का यह विवाह और गौना बुजुर्गों की बात मानने न मानने के बावज़ूद तलाक की परिणति को प्राप्त होता है। किन्तु यह पीढ़ियों के बीच का अन्र्तविरोध उपन्यास में कई जगह उठा है।

चरित्रों को गढ़ने में लेखक के मन में एक आम मानव की गढ़न एक पल को भी विलुप्त नहीं हुई है, उनके पात्र ऐसे मनुष्य हैं जो उदात्त चरित्रों की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। उनमें जितनी अच्छाइयां हैं उतनी ही कमियां हैं। वे जहां – तहां अपनी जिजीविषा के तहत समझौते करते चलते रहते हैं। चाहे वह जैतूनी दादी हो, शकीला हो या मैना और मुमताज हों। पुरुष पात्रों में चांदमल और दीनमोहम्मद जैसे चरित्रहीन, निकृष्ट पात्र भी कहीं – कहीं सकारात्मक बातों के पक्ष में खड़े नज़र आये हैं। चरित्र विशेष को उभारने और दबाने की मनोवृत्ति लेखक में न के बराबर है, उनके चरित्र पूर्णतÁ कथावस्तु के स्वाभाविक प्रवाह में प्रवाहित हैं, जैसे एक आम मानव जीवनप्रवाह में स्वयं को छोड़ देता है।

इस उपन्यास के अधिकतर पात्र मेवाती बोली ही बोलते पस्तुत किये गये हैं। ‘मेवात’ जो दिल्ली और अलवर के बीच स्थित है, राजस्थान के अतिरिक्त हरियाणा गुड़गांव और उत्तरप्रदेश की सीमाओं तक फैला है। मेवाती इसी अंचल की बोली है। मेवाती को राजस्थानी में ब्रज भाषा का विलीन होता रूप कहा गया है। इस पर जयपुरी और अहीरवाटी बोली का भी प्रभाव है। इन प्रभावों के कारण इस मेवाती की कुछ उपबोलियां हैं । उनमें से उपन्यास में पात्रों के द्वारा मेवाती की ‘ कठेर’ उपबोली का प्रयोग किया गया है जिस पर ब्रज भाषा का सर्वाधिक प्रभाव है। यह उपबोली भरतपुर के उत्तर पश्चिम तथा अलवर के दक्षिणपूर्व ‘कठेर’ क्षेत्र में बोली जाती है।

मेवाती में लोकसाहित्य रचना न के बराबर हुई है, ऐसा माना जाता रहा है किन्तु मेवाती के लोक कवियों की लोकनिधियां कवि सादल्ला और … सादी, भीक जी के गीतों के द्वारा उपन्यासकार ने यह साबित कर दिया है कि मेवात की संस्कृति लोक साहित्य से अछूती नहीं रही है। उपन्यास में कई मेवाती लोककहावतों और दोहों, गीतों का प्रसंगानुकूल बढ़िया उपयोग हुआ है, जो कि कथावस्तु के प्राण बन इसके निहितार्थों को स्पष्ट करते हैं तथा भाव की सघनता को प्रस्तुत करते हैं। विभिन्न पात्रों द्वारा प्रयुक्त ये लोकोक्तियां, दोहे, दादी जैतूनी द्वारा गाये कवि सादी के कृष्ण और चन्द्रावल गूजरी पर लिखे गीत, अन्य स्त्रियों द्वारा गाये मेवाती लोकगीत उपन्यास को रोचक ही नहीं बनाते हैं बल्कि उपन्यास में चित्रित फलक को जीवंत करते हैं। ब्रज से मेवात का एक खास रिश्ता इस उपन्यास में बार – बार परिलक्षित हुआ है, कहावतों में वृन्दावन ह्य एक बांदरी के रूसना सूं बिन्दा्रबन खाली थोड़े ही हो जायेहृ शब्द का आना, कवि सादी के गीतों में कृष्ण और चन्द्रावल गूजरी की कथा का होना आदि। उपन्यास ऐसे कई अद्भुत तथ्यों से भरा है जिनसे मेवात क्षेत्र के सामाजिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आंचलिकता के स्तर पर पुर्नमूल्यांकित किया जा सकता है।

यह इतना विशाल उपन्यास है कि लेखक के प्रयास व श्रम के बावज़ूद कहीं – कहीं कथ्य ढीला हुआ है, घटनाक्रमों की कड़ियां भी बिखरी हैं। शिल्पगत कसावट का अभाव भी खटका है। कालखण्ड को लेकर असमंजस हुए हैं। कई पात्र जो आरंभ में प्रमुख से प्रतीत होते थे वे अन्त तक आते आते लगभग विलुप्त हो गये हैं। फिर भी यह कहना गलत न होगा कि निरंतरता, अबाध प्रवाह, लेखक की सतत उपस्थिति और परिदृश्य पर एक चौकसी मोरवाल की लेखनी की विशेषता है। भगवान दास मोरवाल ने इस उपन्यास के माध्यम से यह प्रमाणित कर दिया है कि आडम्बर रहित लेखन के साथ भी कोई उपन्यास इतना प्रभावी हो सकता है।

भगवान दास मोरवाल ने इस उपन्यास में लोक मानस का इतना सहज रेखांकन किया है उन्होंने कि पाठक सहज ही अंदाज़ लगा सकता है कि ‘ मेवात ’ उनकी जड़ों स्थित है। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि मेव समुदाय की अन्दरूनी बारीक शिराओं में बहते जीवन – तरल से भी वे पूरी तरह वाक़िफ हैं। यह उपन्यास कार की सफलता है कि व न मेव है, न स्त्री फिर भी उन परिस्थितियों और उन मनोस्थितियों का रेखांकन इस तरह किया है जिस तरह इनके बीच एक मेव व एक स्त्री होकर गुज़रती रही है। इस उपन्यास का शीर्षक मेवात संस्कृति ही नहीं भारतीय संस्कृति का भी दर्पण है जहां बेटी और बैल में कोई अन्तर नहीं।

अकार अंक 13 से साभार

बाबल तेरा देस में ह्य उपन्यासहृ उपन्यासकार Á भगवानदास मोरवालऌ प्रकाशक Á राजकमल प्रकाशन मूल्य Á 395 रू।ऌ पृष्ठ संख्या Á 484

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