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मेरे अकेलेपन के निस्सीम दिन
मेरे अकेलेपन के निस्सीम दिन हैं-मन कहीं ज्यादा देर नहीं लगता,
भटककर वापस आ जाता है। थोड़ी देर अनमनेपन से पढ़ती हूं,
फिर सोचने लगती हूं। ये साधना है मेरी-कुछ लिखने से पहले
की साधना। साधना के लिए सधना पड़ता है। मैंने रस्सी पर चलती हुई नटी देखी है,
जिसके हाथ में एक बांस का पतला डंडा होता है और वह उसी के
सहारे उस पार चली जाती है। मेरे पास क्या है? जिस
रास्ते पर मैं जा रही हूं वहां तो देह के ये कपड़े भी छोड़ देने होते
हैं-उम्मीद का लंबा-पतला बांस भी। एक बार फिर यहीं हूं,
नैनी झील को आवाज देने इसकी आवाज में अपनी आवाज
मिलाने---कैसी हो तुम? उसने पूछा है मुझसे।
'तुम्हारी जैसी।' कहा है मैंने
और भी बहुत कुछ पर वह फिर कभी---।
पिथौरागढ़ में प्रियंवद ने एक बार कहा था 'किसी
ने सूखे पेड़ की टहनी के ऊपर चांद देखा है?'
मैं इस वक्त कहना चाहती हूं
'किसी ने झील के किनारे खड़ा सूखा वृक्ष देखा है?'
कौन किससे कितना लेता है, नहीं
लेता, यह कितने अनजान स्तरों पर घटित होता है?
झील के चारों तरफ अकेले घूमते-घूमते कल की बहुत सी बातें
एक साथ याद आ रही हैं-पिथौरागढ़ का फारेस्ट गेस्ट हाउस। एक खास ऊंचाई पर खड़ा,
तमाम किस्म के फूलों और पौधों से घिरा। मनीषा कहती है,
ऐसे फूल नीचे नहीं उगते। हर फूल को अपनी अलग किस्म की
मिट्टी की तलाश होती है। मैं कभी उसकी बातों में शामिल होती हूं,
कभी उसे बोलना छोड़ उससे दूर निकल जाती हूं। रात में उस
ऊंचाई से हमें पिथौरागढ़ की रोशनियां दिखाई देती हैं,
फूलों की हल्की-हल्की महक,
ठंडी सिहराती हवा। भीतर सब कुछ शांत, एक हिलोर तक
नहीं। एक ऐसा दुर्लभ क्षण, जो चाह की हरी काई को
चीरता चुपचाप उग आया है।
सुबह उठे तो आसमान का दूर-दूर तक एक ही रंग-हल्का नीला,
बादल पहाड़ों पर पसरे पड़े हैं। कभी किसी वक्त करवट बदलते
हैं तो हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों की झलक दिखाई देती है। वे वापस फैल
जाते हैं तो कुछ नहीं दिखाई देता। कभी-कभी तेज गति से चलते हुए वे एक पहाड़ से
दूसरे पहाड़ को लांघते हुए गुजरते दिखते हैं। पहाड़ों और बादलों का भी अजीब
रिश्ता है। बादलों को जो कहना होता है, सबसे पहले
पहाड़ों से ही कहते हैं, उन्हीं से सरगोशियां,
उन्हीं के कानों में फुसफुसाहटें,
उन्हीं पर सबसे पहले टूटकर बरसना,
थककर वहीं ढलक जाना। उन्हीं से लिपट खामोश पड़े रहना।
उन्हें दूर जाते देख पहाड़ बेचैन नहीं होते, वे चुप
उन्हें देखते रहते हैं-कहां जाओगे?
कल शाम काशीनाथ जी ने कहा था-'मुझे
एक प्रेम कहानी लिखनी है, पर मैं तुम्हारी जैसी
भाषा कहां से लाऊं?'
मैंने अत्यंत हैरानी से उनकी ओर देखा 'आपके
पास जो भाषा है, वह क्या किसी से कम है?'
'हां, पर उससे प्रेम कहानी
नहीं लिखी जा सकती।'
मैं उनसे कहना चाहती थी-'सर
प्रेम कहानी तो किसी भी भाषा में नहीं लिखी जा सकती,
जो हम कह पाते हैं, वह हमारा
अधूरापन है।' पर मैंने कुछ कहा नहीं। वे बड़े लेखक
हैं, मैं उनके सामने छोटी बच्ची। फिर हम बहुत देर
इसके अनंत रूपों के बारे में बात करते रहे। वे शिद्दत से एक प्रेम कहानी
लिखना चाहते हैं। उन्होंने कहा-'मैंने किसी से
पूछा कि प्रेम के लिए किसे पढ़ना चाहिए?' तो उसने
कहा-'प्रियंवद और जया जादवानी को।'
मैं विषाद से मुस्करा पड़ी-इतना लिखने के बावजूद क्या मैं
सच में कुछ भी कह पायी हूं प्रेम के बारे में?
मुझे एक बार फिर प्रियंवद की भीगी आंखें याद आती हैं,
सोचती हूं, अगर इस आदमी के
जीवन में प्रेम न होता, कितना रूखा होता यह?
प्रेम कुछ देता नहीं, बस हमें
खुद से मिला देता है। इसके आईने में हम अपना चेहरा कितना साफ-साफ देख पाते
हैं?
2 अक्टूबर की शाम हम चाय की प्रतीक्षा में एक पेड़ के नीचे
आधी धूप, आधी छाया में बैठे हुए थे। से .रा .
यात्री, गिरिराज जी,
कुछ और भी लेखक। से .रा . यात्री और गिरिराज जी शैलेश मटियानी के आखिरी दिनों
की बातें कर रहे थे। उनके वे भयानक दिन-जब उन्होंने एक लावारिस पैकेट इस
उम्मीद से खोला था कि शायद उसमें कुछ खाने को हो और उसमें किसी बच्चे की
टट्टी थी। गिरिराज जी के चेहरे पर विषाद था। मेरा मुंह कड़वाहट से भर गया।
कहने को मनुष्य कहां से कहां पहुंच गया है, कितना
पैसा व्यर्थ बहाया जाता है, कितना बैंकों में पड़ा
सड़ रहा है, पर सबके लिए रोटी और कपड़ा कभी नहीं जुट
पायेगा।
फिर किसी बात पर गिरिराज जी ने पूरी कड़वाहट से कहा-
'लेखक झूठा होता है पूरा। सच का उससे कोई संबंध नहीं। न
वह यथार्थ लिखता है, न जीता है।'
'कैसे सर?' मेरे ऐतराज करने पर
उन्होंने मुझे समझाया।
मेरे भीतर निरंतर उठा-पटक चल रही है। मैं तो समझती थी,
लेखक होना मतलब महान होना,
क्या हुआ उसका?
मनीषा को कत्थक आता है, रात
में उसने फिल्मी गीतों की दो-दो, तीन-तीन
पंक्तियों में कुछ स्टेप्स करके दिखाये, मुझे बेहद
अच्छे लगे। देह के बंद द्वार खुल गए हों। जैसे वह उसमें से समूची बाहर आ गई
है। उसने मुझे रास्ते में कहा था- जया, पता है,
मुझे आपकी कहानियों में कौन सी बात अच्छी लगती है-आपकी
नायिकाएं अकेली नाचती हैं, जब उनके पास कोई नहीं
होता। मैं भी अकेली नाचती हूं, सबके जाने के बाद।
मैं कहना चाहती हूं, मनीषा,
नृत्य देह का उत्सव है। देह स्वयं अपनी जंजीरों को तोड़
देना चाहती है। हमारे पास आदिम मुद्राएं नहीं हैं,
हम संस्कारित कर दिए गए हैं। हम सिर्फ स्वप्न में या कला में आदिम हो पाते
हैं। उसके लिए भी हमें साहस चाहिए।
'जया, तुम्हारी दो कहानियां
अंदर के पानियों में कोई सपना कांपता है' और
'आर्मीनिया की गुफा'
मेरी कहानियां हैं। मैं कहना चाहती थी, यहीं पर
आकर हम दूसरे से जुड़ते हैं, जब हमारे संघर्ष और
हमारा दर्द एक हो जाता है। कहानी और कुछ नहीं बदलती,
वह सिर्फ व्यक्ति को बदलती है।
जब लोग कहानियों को लेकर सामाजिक सरोकारों की बात करते
हैं तो मुझे खुशी की याद आती है। जब वह अपने समूचे भरे-पूरे परिवार के साथ
पिकनिक पर गई हुई थी तब उस शिवनाथ नदी के भंवर में एक साथ उसी के घर के पांच
सदस्यों की मृत्यु हो गई-दो बहिनें, एक भाई,
एक जीजा, एक कजिन। जिन्हें वह
बहुत प्यार करती थी। इस शॉक से उबरने में उसे कई साल लगे। बाद में जब वह मुझे
कुछ बताने की हालत में हुई तो उसने कहा जया, जब
मैं डूब रही थी, मुझे किसी का ख्याल नहीं आया,
मुझे बस एक सांस और चाहिए थी,
जीने के लिए एक सांस और---।
एक बार मैं किसी हिल स्टेशन पर घूमने गई थी। मुझे रात को
अपने लिए एक गिलास दूध चाहिए था। हम दूध वाले की गर्म कढ़ाई के पास खड़े अपनी
बारी की प्रतीक्षा में थे। एक गरीब औरत फटी धोती के पल्ले में से आठ रुपए
निकालकर दूध वाले से एक पाव दूध लेती है, खुद पी
जाती है, उसकी बगल में उसका तीन साल का बच्चा फटे
कपड़ों में खड़ा उसे देख रहा है। क्या है यह?
'लिखना हमें भीतर से बदल देता है,
हम वही नहीं रह जाते, जो लिखने
के पूर्व थे। क्या यही एक रचना की उपलब्धि नहीं कि हम फिर उससे यह मांग करते
हैं कि वह आपको यह या वह, यश-प्रसिद्धि या कुछ और
दिलवा दे।'
अशोक अग्रवाल ने कहा था, जब हम
साथ घूम रहे थे। महीनों बाद किसी दूसरे को सुनते हुए लगा,
मैं खुद को सुन रही हूं। अशोक जी छोटी-छोटी बातें बता रहे
थे-किसी वक्त की पढ़ी, किसी की छोटी सी अद्भुत
कहानी, किसी ग्रामीण से उनकी मुलाकात,
उनसे बातचीत-वे किन बारीक रास्तों में कहानी और कहानीकार
के हृदय तक पहुंचते हैं-यह शायद उन्हें भी नहीं मालूम होगा। उन्होंने कई
लेखकों को हवाला दिया। जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा था। उन्होंने अमरकंटक में हुई
एक ग्रामीण से मुलाकात का जिक्र करते हुए बताया कि वह अशोक जी को अपने साथ
रखने को राजी हो गया था। उसने कहा था, 'जमीन बहुत
सस्ती है, झोपड़ी वह बना देगा,
कुम्हड़ा और अन्य सब्जियां वह अपने छोटे से खेमें बो देगा।
जलाने के लिए लकड़ियां तो हैं हीं उसे सिर्फ आटा और तेल लाना होगा।'
रास्ते में देवेंद्र ने किसी बात के जवाब में कहा-'मैं
तो जीने पर यकीन रखता हूं, आज अभी। साला गोबर भी
रास्ते में पड़ा हो तो उसे दिन भर कोई नहीं उठाता,
आदमी के मरते ही उसे दफनाने की चिंता शुरू हो जाती है।'
मैं बहुत वक्त तक उस बात पर सोचती रही। प्रियंवद ने अचानक
प्रेम पर बहस छेड़ते हुए मुझे भी उस बहस में शामिल कर लिया। 'प्रेम
जुनून नहीं होता, प्रेम पैशन नहीं होता---प्रेम यह
या वह नहीं होता---लगातार मेरी और देवेंद्र की बात का कमजोर विरोध करने के
बाद आखिरकार उन्होंने 'ममता'
फिल्म की कहानी सुनायी, जिसमें
अशोक कुमार ने काम किया था। फिल्म के अंत तक आते-आते उनकी आवाज बुझ गई। चेहरे
का रंग बदल गया, वे बेहद उदास हो गए। उन्होंने
हथेलियां घिस अपने चेहरे और आंखों से वह सब पोंछने की कोशिश की,
जो उनके अनजाने चेहरे पर उग आया था। इतने सूखे हाथों में
तो वह स्लेटें भी साफ नहीं होती, जिन पर हम चॉक से
कुछ लिखते हैं। कहीं भी कुछ लिखा हो, उसे मिटाने
के लिए अलग-अलग किस्म के पानियों की जरूरत पड़ती है। उनकी आंखें गीली देखकर
मुझे एक अजीब सा ख्याल आया---हम क्यों रोते हैं?
अपने भीतर कुछ लिखा मिटाने को?
झील में पड़ती पहाड़ों और उनके बीच बने मकानों की परछाईयां
देखती हूं। हवा में वे बहुत धीमे-धीमे हिलती हैं और ठहर सी जाती हैं। हमारे
ऋषि ठीक कह गए है-जगत परछायी है, जितना भी तुम उसे
पकड़ने की कोशिश करोगे वह और दूर हो जायेगा। उसे जस का तस छोड़ दो। वह वही
हैं-न कहीं आता है, न जाता है,
न किसी को हासिल होता है। हम ही आते-जाते,
लड़ते-भिड़ते रहते हैं, उसके
लिए।
मुक्तेश्वर-जाने कैसे तंग,
ऊंचे-नीचे, उबड़-खाबड़,
गीले-अपरिचित रास्ते से हम ऊपर जा रहे हैं। चट्टानें एक-दूसरे से सटकर बैठी
हुई हैं, जितनी चट्टानें-उतने रंग। मानो वे किसी
की प्रतीक्षा में थी। उस ऊंचाई पर हममें से प्रत्येक अकेला है। हम चुप हैं।
हवा हल्की सी सरसराहट के साथ हमारे कंधों पर बैठती है,
हमारी नाक छूती, बाल सहलाती
हममें से गुजर रही है-उसके पास हमें पहचानने के अपने तरीके हैं। नहीं सोचा था
कभी इतनी ऊंचाई पर बैठकर नीचे झांकूगी तो अनंत में झांकने का सा अहसास होगा।
हमें यूं ही गलतफहमी है कि जो चुनते हैं, हम चुनते
हैं, हम चुने जा चुके हैं। व्यक्ति के लिए,
जगहों के लिए, जंगल के लिए।
आते वक्त अशोक जी बता रहे थे---शोभना बूटानी यूं ही एक दिन समंदर के आकर्षण
में सम्मोहित सी लहरों में खो गर्इं। उन्हें पकड़ने की कोशिश में उनके पीछे
जाते उनके पति भी। उन्होंने एक नाटक लिखा था-'शायद
हां।' त्रिलोक, जो
हमारी गाड़ी चला रहा था, बता रहा था कि दिल्ली का
एक परिवार इन गोल रास्तों से अपनी गाड़ी फिसल जाने की वजह से खाई में जा गिरा
था। कोई नहीं बचा। क्या यह मोहब्बत है?
'जैक लंदन जब अपनी मां के पेट में था,
उसके पिता ने उसकी मां को यह कहते हुए गोली मार दी थी कि
उसके पेट में उसकी संतान नहीं है। मां-बेटे दोनों बच गए। बाद में उसकी मां ने
जिस आदमी से शादी की, उसकी तीन बेटियां थी,
जैक लंदन से बड़ी। बड़ी बहिन जैक लंदन का खूब ख्याल रखती।
उसने एक बार लिखा था-'काश,
वह उसकी बहिन न होती। जैक लंदन जब प्रसिद्ध और अमीर हो
गया, उसने एक ऊंची जगह पर लकड़ी का बड़ा सा घर बनाया,
उसके दुश्मनों ने उसमें आग लगा दी। सबकुछ जलकर राख हो गया,
जैक लंदन भी नहीं बचा। बाद में उसकी बहिन ने उसी घर के
समीप एक पेड़ लगाया, ताकि उसकी कब्र पर आधी धूप-आधी
छांव पड़ती रहे। ऊपर से नीचे आते वक्त अशोक जी बता रहे थे,
हम उसी सम्मोहन की सी अवस्था में हैं। काफी चलने के बाद
हम मुख्य सड़क तक आये हैं, किनारे पर गिरे सूखे
पत्तों और शहतूत जैसे फलों के करीब बैठ गए हैं,
सुस्ताने।
पहाड़ों पर जाने से पहले हम सोचते हैं,
सारा कचरा गिरा आयेंगे, नये
होकर लौटेंगे-नए और खाली और मुक्त। लौटते हुए मुझे लगा,
जो कुछ छोड़ा था मैंने यहां,
उसकी एवज में पहाड़ों ने कुछ और दे दिया है। ओस की तरह निर्मल,
स्वच्छ और हल्का। इस वादे के साथ कि हम इसे भी मैला नहीं
कर देंगे। बिल्कुल नहीं। मैं सबको आश्वस्त करती हूं,
नैनी झील को, पहाड़ों को---।
पत्तों पर ओस गिरती है न, पत्ते थोड़े ही मैले होते
हैं।
-जया
जादवानी
जुलाई 16, 2008
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